व्याख्या: वैसे तो आप (दादा जी) गाँव में 1935 से स्थापित सरकारी उच्च विधालय के लिए जितनी चाहिए उतनी जमीन दान करने के कारण आज भी गाँव के सबसे बड़े दानवीर कहलाते हैं| लेकिन इससे ज्यादा आपकी तीव्र मनोवैज्ञानिकता, खुले दिल और बड़े जिगर मिशालें आज भी लोक-किवदंतियां बन गाँव के लोगों की जुबानों पर पाई जा सकती हैं| जिसमें से एक ऐसे ही किस्से का विवरण यहाँ दे रहा हूँ, जिसमें कि आपके हस्यास्द्पूर्ण स्वभाव और खुले दिल की झलक देखने को मिलती है:
पुराने जमानें में ब्याह-शादी में बरातें 3 दिन रुका करती थी और खापलैंड के गावों में ये प्रचलन था कि बारात के ठहरने का पूरा खर्चा और प्रबंध गाँव के लोग मिलकर उठाते और करते थे
(आज की तरह नहीं था कि लड़की वाले को सब कुछ अकेले ही करना पड़ता है)| और बारात में आये हुए सबसे बिगडैल, नखरैल और अड़ियल बाराती को आपके (दादा जी) घर ठहराया जाता था क्योंकि आपमें ऐसी विलक्ष्ण मनोवैज्ञानिकता की समझ थी कि ऐसे-ऐसे अड़ियल बाराती भी या तो आपकी आवभगती और मेहमान-नवाजी का लोहा मान जाते थे अन्यथा रातों-रात एडियो-थूक लगा
(साथी बारातियों को घर पर काम होने का बहाना बना) फुर्र हो जाया करते थे|
ऐसे ही एक बार क्या हुआ कि गाँव में बांगर
(हरियाणा का जींद-उचाना से पंजाब की ओर का क्षेत्र बांगर कहा जाता है) के एक गाँव से बारात आई| और क्योंकि उस जमानें में मोटर-गाड़ियाँ तो होती नहीं थी, जाट-जमींदार दूरस्थ आने-जाने हेतु घोड़े-घोड़ियाँ और बैल-गाड़ियाँ रखा करते थे| तो ऐसे ही उस बारात में एक ऐसा बातूनी और
माँ को माँ ना कहने वाला (हरियाणवी में माँ को माँ वो नहीं कहता जो जवानी के मद में रहता हो (वही गधे के अढाई दिन वाली बात) और अपने से किसी को बड़ा ना समझता हो) बाराती आया तो उसनें अजीब सी शर्तें रख दी कि मुझे ऐसे जजमान के घर ठहराओ जिसके यहाँ मेरी घोड़ी तो बुखारी
(चने के गोदाम को हरियाणवी में बुखारी कहते हैं) पे खड़ी हो के चरे और जब तक मैं ना, ना कहूँ वो मेरे को खिलाता जाए| तो बस फिर क्या था गाँव वालों ने कहा कि अच्छा
"गाखडया" (मतलब बिगड़ा हुआ) जाट है इसको तो दादा जागर के घर छुड्वाओ, और उसको और उसकी घोड़ी दोनों की आवभगती दादा जागर के जिम्मे सोंप दी गई|
दादा जागर ने क्या किया कि उसकी घोड़ी को तो बुखारी पर बंधवा दिया और उसके रात के नास्ते में एक परात
(वो बड़ा बर्तन जिसमें रोटियाँ बनाने के लिए आट्टा गूंथा जाता है) में उसके लिए बूरा (मीठा) दाल दिया, एक बड़ी कुलिया
(जो कि 1 से 1.5 लिटर पिघला हुआ घी आ जाए, इतनी बड़ी होती थी उस जमाने में) घी की रख ली, और दूसरी परात में ढेर-साड़ी रोटियाँ व् अन्य खाने की सामग्री रखवा दी| और पास में एक गंडास रख लिया| और मेहमान को भोजन करवाने को आगे बढे|
तो दादा नें घी की कुलिया उठाई और मीठे वाली परात में धार लगा दी और बोले कि जब आप बस कहोगे तभी यह धार रोकूँगा| पर वो बाराती भी बड़ा ढीठ था और पूरी कुलिया घी की खाली हो गई पर शेर ने ना नहीं की| फिर दादा ने कहा कि आप भोजन करना शुरू कीजिये| लेकिन दादा का इतना फक्कडपना देख के बाराती समझ तो गया था कि नहले पे दहले से टक्कर हुई है तेरी| खैर उसनें धीरे से खाना शुरू किया| तो उधर दादा नें गंडास को पत्थर पर रगड़ना शुरू कर दिया|
दादा को ऐसा करते देख, बाराती को टेंशन हुई और पूछ बैठा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं तो दादा ने कहा कि गंडास को पिना (पैना) कर रहा हूँ| तो बाराती फिर पूछ बैठा कि वो किसलिए? तो दादा ने कहा कि अगर तूने ये सारा खाना नहीं खाया और तेरी घोड़ी ने बुखारी को खाली करने से पहले उसमें से गर्दन उठाई तो दोनों को यहीं के यहीं काटूँगा| बाराती तो अब तक का नजारा देख पहले ही पशोपेश में आ चुका था और अब तो उसको पक्का जच गया था कि जो इतना दिल खोल के खिला सकता है वो गर्दन काटने में कितनी देर लगाएगा? और सच भी था वो इससे पहले बहुत सी बरातों में गया था पर ऐसा आवभगती करने वाला कहीं नहीं मिला|
तो थोड़ी देर तो उसनें कोशिश करी पर जब सारा नहीं खा पाया तो बोला कि चौधरी साहब घर पर मेरी माँ बीमार थी सो उसकी चिंता में खाना खाया ही नहीं जा रहा और मुझे तो जाना है अभी के अभी, मेरी माँ को संभालने| शायद उसको जंच गई थी कि अभी तो 3 दिन के ठहराव का पहला ही खाना है और अगर पूरे 3 दिन इसके पास रुकना पड़ा तो बड़ा भारी हो जायेगा, और अगर शादी वालों को यह कहूँगा कि मेरा जजमान बदल दो सब मेरा मजाक उड़ायेंगे कि तब तो बड़ी ढींगे मार रहा था कि ये चाहिये-वो चाहिये| इसीलिए उसनें तो पकड़ी अपनी घोड़ी की लगाम और सीधा जा के अपने गाँव रुका और घर की दहलीज पर पहुँचते ही आवाज लगाई (ठेठ बांगरू में):
बाराती (अपनी माँ से): ऐ री माँ!
और क्योंकि माँ को अपने बेटे के मुंह से माँ शब्द सुने एक अरसा हो गया था तो माँ ने कहा
माँ: रे बेटा, न्यूं क्यूकर मेहर होई रे परमात्मा की, जो तनै मैं माँ कह कें पुकारी?
बेटा (अपने बाराती महाशय): अरी माँ ओ माँ कुहावनिया ऐडड़ दिद्याँ आळआ था| अर्थात
(हाथों को खोल के ईशारे से बताते हुए) वो मेरे से माँ कहलवाने वाला इतनी मोटी-मोटी आँखों वाला था
तो फिर उसकी माँ जी ने दादा जी के पास वापिस संदेशा पहुंचवाया और कहलवाया कि दादा थारा कर्म बना रहे-खेड़ा जमा रहे जो मेरे बेटे के मुंह पे वापिस माँ शब्द धरवाया|
तो ऐसे थे हमारे दादा जागर जी, इनकी महानताओं को शब्दों में पिरोती एक कविता भी बनाई गई है, जो आप यहाँ से पढ़ सकते हैं| शीर्षक है: "
दादा जागर हो, फेर न्यडाणे आइये"
और इसे कहते थे पुराने जमाने के लोगों की human management की कला, कि आदमी को अपनी जिद्द पूरी करने का मौका भी देते थे पर उसको हंसी-हंसी में लाइन पे भी लगा देते थे|