उस जमाने की मुख्य वनस्पतियाँ एवं फसलें: इस समय तक सावनी में ज्वार, बाजरा, ग्वार, कपास, सन, सन्नी, नील, मुंग, मोठ व् उड़द आदि फसले उगाने के साथ-साथ भूमि को साढ़ी रखने का भी प्रचलन था| इस मौसम में सामक, तख्डा, कुंदरा, चौलाई व् भांखड़ी, झोझरू आदि खरपतवार होते थे| साढ़ी में चन्ना, जौ, सरसों, मेथी, मसरी आदि फसलों के साथ थोड़ी बहुत गेहूं क़ी खेती भी होती थी| इस सीजन में प्याजी, बथुवा, पीली कंडाई, पसरमा कंडाई, बेल, चटरी, मटरी आदि खरपतवार होते थे| गावं की बणी में व् जोहड़ों पर पीपल, बड़, गुलर, नीम, कैंदु, कैर, केशु, कीकर, जांड-जांडी, शीशम, बेरी, ढ़ाक, हिंस, झाड़, आक, आदि रुख एवं बोझड़े आम दिखाई देते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति पर पहली योजना में ही सिंचाई सुविधाओं का विस्तार चाबरी मायनर के रूप में होने पर इस गावं के किसानों ने गन्ना उत्पादन में भी अच्छा-खासा नाम कमाया। एक एकड़ में सौ-सौ मन गुड निकालने लायक गन्ना पैदा करना सामान्य बात थी। पुरे गर्मी के मौसम में कसौलों के साथ ईंख नुलाना, बड़ा होने पर खदालियों के साथ नुलाना व् थापियों के साथ थेपड़ना एक आम नजारा होता था निडाना के खेतों में। क्या गज़ब का तरीका था खरपतवार नियंत्रण व् आल-संरक्षण करके गन्ने क़ी खेती करने का।
आजादी के बाद की निडाना कृषि: हरियाणा और हरित-क्रांति के स्वागत क़ी तैयारियों के तौर पर 1960-62 में इस गावं में भी चकबंदी/ मुरबाबंदी हुई। लाल डोरे से बाहर क़ी भूमि को 25-25 एकड़ के मुरबों में बांटा गया व् इसके तहत किसानों क़ी अनेकों जगह बिखरी पड़ी जमीन को एक या दो जगह ही इक्कठा किया गया। यही वो समय था जब खेत के खेत रुखों से ख़ाली हो गये और साडी क़ी लामनी करते वक़्त लोग छाँव को तरसने लगे थे।
हरित क्रांति (हरियाणा के दोबारा बनने के बाद का कृषि इतिहास):
ख़ैर 1966 में हरियाणा अस्तित्व में आया और इसी के साथ सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर एवं उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों व् जीवनाशियों पर आधारित हरित क्रांति आने क़ी आहट इस गावं में भी सुनाई देने लगी| 1968 में बैलों वाले हल क़ी जगह लेने ट्रेक्टर गावं में आया और 1970 में बाजरे के हाईब्रिड बीज व् गेहूं क़ी कल्याण सोना किस्म व् गन्ना क़ी 1148 किस्मों का प्रचलन हुआ| इन्ही के साथ फसलों को नाईट्रोज़न देने के लिए रासायनिक उर्वरकों क़ी शुरुवात हुई।
सत्तर के दशक में ही धान व् गन्ने क़ी फसल में कीड़े काबू करने के लिए राख़ में मिलाकर DDT व् BHC का प्रयोग होने लगा| 1980 के आते-आते हरित क्रांति के इन उन्नत बीजों के साथ-साथ गेहूं क़ी फसल में मंडूसी नामक एक नया खरपतवार |
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आधुनिक मशीनों ट्रेक्टर व् कल्टीवेटर से खेत जोतता किसान| |
किसानों को ठोसे दिखाने लगा व् कपास क़ी फसल में एक तरफ अमेरिकन सुंडी किसानों को खिजाने लगी व् दूसरी तरफ सफेद-मक्खी व् तेले जैसे नामलेवा से कीट प्रमोसन पाकर मेज़र बन बैठे| गन्ने क़ी फसल में पायरिला व् अनेकों किस्म के छेदक कीड़े यहाँ के किसानों को आतंकित करने लगे। यही से गावं में मंडूसी नियन्त्रण के लिए isoproturon नामक खरपतवारनाशी के प्रयोग क़ी शुरुवात हुई व् कपास में कीड़े काबू करने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल होना शुरू हुआ|
1982 में पहली बार गुलजारी ग्राम सेवक ने दो स्प्रे ढोलकी श्री दलीप सिंह व् रघबीर को कृषि विभाग क़ी तरफ से मुफ्त में ही उपलब्ध करवाई| इसके बाद तो गावं में रासायनिक उर्वरकों, खरपतवारनाशियों व् कीटनाशकों के खेती में इस्तेमाल क़ी बाढ़ सी आ गयी। निसंदेह नहरी व् नलकूपों से सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि के साथ इस हरित क्रांति से दलहनी फसलों को छोड़कर अन्य फसलों क़ी पैदावार में अच्छी-खासी बढौतरी हुई।
बदलते कृषि औजारों और विधियों का सामाजिक ढाँचे पर प्रभाव:
हरित क्रांति के इस दौर में कृषि औज़ारो का भी तेज़ी से विकास हुआ व् प्रचलन बढ़ा। गेहूं गहाने के लिए फल्सी क़ी जगह टोका, घुघु आये और अब कम्बाइन व् रिपर आ गये| भूमि जोतने के लिए हल क़ी जगह हैरो, कल्टीवेटर व् रोटावेटर आ गये। बिजाई के लिए पोरे क़ी जगह सीड ड्रिल ने ले ली| इस दौर में थापी चूले में अर खुदाली कबाडियों के यहाँ पहुच चुकी हैं। रथ, बैलड़ी, रेहड़ू, बैलगाड़ी निडाना गाव से रफूचक्कर हो चुके हैं। ईंख पीड़ने वाले कोहलू क़ी जगह अब सुगरमिल ने ले ली। चकबंदी, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार व् हरित क्रांति के इस दौर में कृषि औजारों के विकास ने यहाँ के किसानों क़ी सोच व् सामाजिक संबंधों पर भी व्यापक असर डाला। संयुक्त परिवार टूट कर एकल हो गये। घर-घर बैठक हो गयी पर पर इनमे बैठने वाले कोई नही। जिसके परिणामस्वरूप अनौपचारिक सामाजिक शिक्षा गायब। सामुदायिक कार्यों में रूचि ख़त्म। खेती में ल्हास का प्रचलन बंद, जोहड़ खोदने व् नाली समारने का काम ख़त्म सा ही हो गया। बड़े किसानों द्वारा छोटे किसानों को बंटाई पर जमीन देने क़ी बजाय अब बड़े किसानों द्वारा छोटे किसानों क़ी जमीन बंटाई पर या मुराफे पर ली जाने लगी है। खेत मजदूरी के लिए अब उत्पाद का हिस्सा देने क़ी बजाय रुपये देने का प्रचलन हो गया। एकल परिवार के चलते खेती में मानसों क़ी कमी हुई जिस कारण मजदूरी और मशीनरी पर खर्च बढ़ा। सिंचाई का पानी, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, फफुन्द्नाशक, खरपतवारनाशक, बीज, मोबाईल व् मोटरसाईकल हर किसान क़ी आवशयकता बन गये।
बड़े हुए खेती के मुनाफे और प्रयास क्या सही दिशा में जाते दीखते हैं?:
हरियाणा के अस्तित्व में आने के बाद अब तक निडाना क़ी आबादी में ढाई गुना वृद्धि हुई है जबकि दलहनी फसलों को छोड़कर अन्य फसलों क़ी पैदावार में पांच से पंद्रह गुना वृद्धि हुई है। इस दौर में हमें किसी कलमुहे अकाल का मुहं भी नही देखना पड़ा। फिर यह अतिरिक्त आमदनी गई कहाँ?
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क्यों इतने बड़े पैमाने का उत्पादक एवं योगदानी होने के बावजूद भी गाँव की आर्थिक स्थिति जहां आज के दिन होनी चाहिए थी उससे कोसों पीछे है? कुछ तो गलत जा रहा है पर क्या?
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क्या हमारे अर्थशास्त्रियों और नीतिकारों की समझ में कोई फर्क है? या गाँव की ही अर्थव्यवस्था में कोई गड़बड़ है? आख़िरकार ये त्रुटियाँ कहाँ से आ रही हैं?
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क्यों एक पांच एकड़ जमीन तक वाले किसान को भी अपने बच्चों को किसी शहरी बच्चे के समकक्ष शिक्षा केंद्र में पढ़ाने हेतु कर्ज उठाने पड़ते हैं?
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कहीं से भी शुरू कर लो, चाहे गेहूं से बनने वाले बिस्कुट, पिज्जा, दूध से बनने वाली चाय या दूध के उत्पाद, गन्ने से बनने वाली चीनी से ले के कपास से बनने वाले कपड़े और वनस्पतियों से बनने वाली दवाइयों तक, है कोई ऐसी चीज जो एक किसान के खेत से आने वाले उत्पादों के बिना बने जा सकती हो...सब कुछ तो उसके खेतों के उत्पादों पे निर्भर है| इस तरीके से सब व्यापारों का केन्द्रीय बिंदु (चाहे वो खुदरा क्षेत्र से दिनचर्या की रसोई का सामान हो, वस्त्र बनाने के कारखानों से ले के सर्विस क्षेत्र हो) होने के बावजूद भी किसानी का धंधा और जमीन एक किसान के लिए ही सफ़ेद-हाथी क्यों साबित हो रहा है?
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कौन भरेगा इन रिक्तियों को? इन प्रश्नों के उत्तर जरूर मिलने चाहिए!
विशेष: वक्त के साथ इस विषय पर और जानकारी जोड़ी जाती रहेगी|