माँ-बाप बनना और बच्चे को पालना कोई औपचारिकता नहीं यह एक जिम्मेदारी होती है और जाने या अनजाने में इसमें आपसे कोई चूक तो नहीं हो रही?...इसकी सुनिश्चितता जरूर करें|
अगर बच्चे में आत्म-सम्मान बनाना है तो जरूरी है कि बच्चे को अपने हाथों से पाला जाए खासकर उस परिस्थिति में तो जरूर जब आप साधन संम्पन हों:
एक जमींदार था जो गाँव के सबसे बड़े जमींदार घरानों में गिना जाता था| लेकिन इनका परिवार, औरत के मामले में किसी अन्य भारतीय परिवार की तरह दोहरी मानसिकता का था| क्योंकि जो समाज पुरुष-प्रधान होगा वहाँ ये मानसिकता रहती ही है| जब चौधर की बात हो तो औरत पे अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझना और जब औरत के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाने की बात आये तो घर की बड़ी औरतें हैं ना, कह के अपनी जिम्मेदारी की औपचारिकता निभा देना| पुरुष-प्रधान समाज की एक ख़ास बात और होती है कि घर की बड़ी औरतें, अपने बेटों की बहुओं और ननदें अपनी भाभी पे ही हुक्म चला के अपनी चौधर की कमी पूरा कर लेती हैं और शायद इसीलिए समाज में सास-बहु, ननंद-भाभी के झगड़े प्रसिद्ध हैं|
खैर हम इस बच्चे के जन्म की बात कर रहे थे जिसका नाम रामभरोसे रखा गया, तो इस बच्चे का जन्म इन्हीं सब विवादित परिस्तिथियों में हुआ....बाप घर की औरतों के भरोसे अपनी गर्भवती बीवी की जिम्मेदारी छोड़ बेफिक्र बना रहा बावजूद इसके कि उसको पता था कि उसकी बीवी का यह चौथा बच्चा है और इससे पहले के तीन बच्चों के जन्म पर वो टेटनस (धनुस्बा) की बीमारी के कारण मरते-मरते बची थी| और घर की औरतें अपने घर में अपनी चौधर जमाने के चक्कर में इतनी भी सवेंदनशील नहीं बनी रह सकी कि तुम्हारे घर की एक-इकलौती बहु है इसका चौथा जाप्पा होना है तो अबकी बार बच्चा और जच्चा दोनों सुरक्षित रहें इसलिए बहु को बच्चे के जन्म से पहले किसी हस्पताल में ले चलते हैं या कम से कम एक डॉक्टर या नर्स को घर बुला के ही बच्चे का जन्म करवाया जाए| लेकिन नहीं करवाया और वही हुआ जो पहले तीन जाप्पों पे उस औरत के साथ हुआ था| धनुस्बा ने इस बार बच्चे के जन्म के उपरान्त ही उससे उसकी माँ को छीन लिया| इसपे सितम ये कि रामभरोसे से जन्म से पहले वाले जाप्पे पे डॉक्टरों ने परिवार को बता दिया था कि तुम्हारी बहु का अगला जाप्पा बहुत सवेंदनशील होगा इसलिए अगले जाप्पे पे ये गलती ना हो पाए|
इस घटना से मुझे यही समझ में नहीं आया कि औरतों से भरे घर में एक औरत का जाप्पा ठीक से निकल पाए उसके इतने भी इंतजाम क्यों नहीं हो पाए? इतने बड़े घर, एक बच्चे के जन्म को सुरक्षित सुनिश्चित करने मात्र के पैसे ना हों, क्या ऐसा भी हो सकता है? क्या उस जमींदार की जेब में जो रिश्तेदारों के घर बसाने हेतु मदद के लिए हमेशा अपनी जेबें खुली रखता हो उसके पास खुद के बीवी-बच्चे के जन्म और जाप्पे के लिए पैसे नहीं रहे हों या जुटा नहीं पाया हो, क्या ऐसा भी हो सकता है?
उसपे सितम ये कि उस बाप को फिर भी इतनी अक्ल नहीं आई कि कल इतनी औरतों के होते हुए भी जब तेरी बीवी नहीं बची, उन्हीं को तू तेरे बच्चे की जिम्मेदारी सोंप रहा है| क्या बच्चे पैदा करना, पालना-पोसना एक औपचारिकता मात्र भी हो सकता है? जिस समय एक सवेंदनशील बाप (माँ तो थी ही नहीं जो संभालती) जिसको ये सुरक्षित करना चाहिए था कि तुम्हारा बच्चा इतना ना रोये कि उसकी मांसपेसियां रोने की वजह से अविकसित या सिकुड़ी रह जाएँ, हमारी कहानी का पात्र पिता इस तरफ से बेफिक्र था| |
|
ऐसे माहौल में पल रहा बच्चा कुछ ऐसी ही हताश नजरें और लाचारी लिए बड़ा होता है| |
इसे बेफिक्री कहो या अति-आत्मविश्वास, इस मानसिकता से चलते हुए फिर से अपने बच्चे को उन्ही रिश्तेदारों के पास छोड़ा जो खुद अपने घर से मारे-मारे जिंदगी स्थिर करने को फिर रहे थे| एक तो वो खुद अपनी जिंदगी में परेशान ऊपर से रामभरोसे की जिम्मेदारी| और परिवार व् रिश्तेदारों ने रामभरोसे को वहाँ छोड़ने का बहाना बनाया सौतेली माँ का डर, जो कि कभी साबित ही नहीं हुआ| बच्चे की चाहत या समझ की ऐसे समाज में कोई कीमत नहीं होती कि बच्चा क्या चाहता है उससे पूछना या उसको समझना ऐसे लोग अपनी समझ के लिए चेतावनी मानते हैं| तर्क होता है चार साल बनाम चालीस साल का तजुर्बा| उनको कौन समझाए कि तुम्हारा चालीस साल का तजुर्बा इसकी रगों में तुम्हारा खून बनके दौड़ता है सो जरूरी नहीं कि इस बात के जवाब के लिए इसको भी पहले चालीस साल का होना जरूरी है|
खैर आगे बढ़ते हैं तो उन रिश्तेदारों की मदद हेतु या कहो कि रामभरोसे की पढ़ाई के लिए अपने जमींदार बाबू ने शहर में मकान बनवा दिया| देखिये ये वही जमींदार बाबू हैं जिनको अपनी पत्नी का जाप्पा सुरक्षित निकले उसके लिए शहर में एक हस्पताल तक नहीं मिला था लेकिन अपने रिश्तेदारों की मदद के लिए शहर में मकान तक बनवा दिया और बहाना हुआ रामभरोसे के भविष्य का| ये देखिये जनाब एक तीर से दो शिकार साधने चले थे कि बच्चे को शहर में पढ़ा भी लूँगा और रिश्तेदारों की मदद करने का पुन्य भी कमा लूँगा| पर अंतत: हुआ क्या?
माया मिली ना राम, वही रिश्तेदार मतलब निकलने के बाद ये कहते मिले कि रामभरोसे का बापू एक अव्यवहारिक इंसान है| सात-आठ साल तक रहने को मकान दिया, हर साल संभव रुपया-अनाज-चारा की खेपें तक पहुंचाई परन्तु इनका पुन्य फिर भी सिरे नहीं चढ़ पाया|
कैसे क्या हुआ वो बताने से पहले रामभरोसे की जिंदगी रिश्तेदारों के यहाँ किन प्रश्नों के घेरे में चल रही थी वो तो रामभरोसे ही जाने| बच्चे में कभी अपनेपन की सोच ही नहीं उभर पाई क्योंकि रामभरोसे उसी वक़्त से इस सोच के साथ बड़ा हुआ कि घर में सब कुछ होते हुए भी बाप ने मेरे को रिश्तेदारों के पास क्यों छोड़ा और वो भी उन रिश्तेदारों के पास जो खुद आसियाने की तलाश में थे| इसपे वहाँ जो माहौल और व्यवहार रामभरोसे को दिया गया और देखने को मिला वो तो फिर एक अलग ही किताब लिखने लायक सामग्री है|
क्योंकि स्कूल की छुट्टी के बाद वही भैंसे रामभरोसे ने वहाँ शहर में रहते हुए चराई, जो वो गाँव रह के भी चराता, वही चारा रामभरोसे ने वहाँ ढोया जो वो गाँव में रहके भी ढोता| और उस चारे को सर पे ढोते हुए रामभरोसे सोचता कि गाँव में कम से कम अपनी झोटा-बुग्गी तो होते जिससे कि अगर सर को बोझ लगता तो बुग्गी को बाहड में ले जा के चारा बुग्गी में डालता और ठाठ से उसपे बैठा घर आता, मगर यहाँ शहर में तो चारे की गठरी सर पे बैठ के आती थी| वो सोचता कि अगर मेरे बापू को शहर में पढ़ाने के नाम पे चारा ही लुढ्वाना था तो कम से कम एक झोटा-बुग्गी भी छोड़ देता, क्योंकि जहां मकान बना दिया वहाँ इसका इंतजाम करना कोनसी बड़ी चीज थी| यही वो पल थे जिनको रामभरोसे कभी नहीं समझ पाया कि शहर में पढाई के नाम पे -जिंदगी बनाने के नाम पे मेरे बापू ने यही इंतजाम किये हैं मेरे लिए? खैर जैसे कि ऊपर कहा इसपे तो एक और बड़ी कहानी अलग से लिखी जा सकती है| |
|
ऐसे माहौल में बड़े बच्चे को हड़काना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं, फिर वजह मिले या बेवजह भी हड़काने हो| |
खैर सात साल बीतने को आये और इधर इस दरमियान उन रिश्तेदारों ने अपना मकान बना लिया| और शायद ये सोच के कि कहीं अपने खुद के मकान में रामभरोसे को साथ ना रखना पड़े, ये नौबत आने से पहले रामभरोसे को वापिस गाँव फेंक दिया गया (भेज दिया तो नहीं इसको तो फेंक दिया गया ही कहा जाएगा) और कहा गया कि बहुत पढ़ा दिया अब अपने घर से जा के पढो| गाँव से आया करो हम और ज्यादा नहीं रख सकते|
और बाप ने अपने ही मकान से उन रिश्तेदारों के इस व्यवहार पे उनको चलता करने की बजाय रामभरोसे को ही गाँव रखना बेहतर समझा| शायद रिश्तेदारों ने सात साल रामभरोसे को रखा वो इस अहसान के कर्ज से डूबा जा रहा था| लेकिन अगर उसने खुद उनके लिए क्या अहसान किये उनको भी ध्यान में रखके देखता तो खुद को अहसान के कर्ज में डूबा ना पाता|
और ये थी अपने रामभरोसे की जिंदगी के साथ हुई सबसे बड़ी औपचारिकता जिसने इसमें इसके खुद के लिए इतनी घृणा भर दी कि यह
"भरी थाली को ठोकर मारने वाला बन गया", क्योंकि ना पिता ने समझा और रिश्तेदार तो निकले ही मतलबी| इसकी जिंदगी में कोई ख़ुशी मुस्कराना भी चाही तो इसने मुस्कराने नहीं दी क्योंकि इसका खुशियों पर से विश्वास उठ चुका था| बाप, घर और रिश्तेदारों की औपचारिकताओं ने इसको इतना उलझा के रखा कि ख़ुशी होती क्या है इसको कभी समझने का वक़्त ही नहीं लगा|
किसी को रिश्तेदारों की मदद करते तो सुना था पर उनकी मदद के चक्कर में अपनी औलाद के आत्म-सम्मान की बलि भी चढ़ा दी हो ये ऐसा शायद पहला किरदार देखा था, पर इसके बावजूद रामभरोसे के पिता को रिश्तेदार अव्यवहारिक ही कहते हैं| इसीलिए कहता हूँ कि चाहे जैसा भी दबाव या जिम्मेदारी रही हो उसके चलते अपनी औलाद के लिए जो खड़ा नहीं हो सकता हो तो रामभरोसे जैसे बच्चों का रखवाला तो फिर राम जी ही बने|
चिंतन: -
क्या इसका मतलब ये नहीं निकाला जाए कि वो रिश्तेदार तो रामभरोसे को पढ़ाने की औपचारिकता मात्र कर रहे थे और जैसे ही अपने दुःख के दिन दूर हुए तो बच्चे को गाँव का रास्ता दिखा दिया? क्योंकि वो सही में उसको पालने और उसका जीवन बनाने वाले होते तो कहते कि बेटा अब तक सात साल हम तुम्हारे मकान में रहे; अब ज्यादा नहीं तो सात साल तुम्हे हम अपने मकान में रख के पढ़ाएंगे| परन्तु ऐसा नहीं हुआ और होता भी कैसे उनका मकसद तो अपना कठिन वक्त निकालना था परन्तु उनको क्या पता कि तुम्हारी इस फिरकापरस्ती के चलते इस बच्चे की जिंदगी तो एक धूल में लगे लठ की तरह कहलाई जो निशाने पे लगे तो सही नहीं तो धूल का फूल|
-
इस बच्चे की जिंदगी तो उस भैंस के बच्चे (कटड़ी) की तरह हो गई थी जिसको एक जमींदार "आध्ले" पे दे के पलवाता है| (आध्ले पे देना एक ऐसा करार होता है जो भैंस (कटड़ी) के मालिक और कटड़ी को पालने वाले के बीच किया जाता है कि जब कटड़ी पहली बार माँ बनेगी तो इसका मूल्य रखा जायेगा और या तो मालिक उसका आधा मूल्य पालने वाले को दे के कटड़ी से भैंस बन चुकी भैंस को ले ले या इस भैंस के बेचने से जो कीमत मिलेगी वो दोनों में आधा-आधा बाँट ली जाएगी|) और यहाँ पर इस जमींदार ने रिश्तेदारी का फर्ज निभाने की इतनी हद निभाई कि अपने बच्चे को ही कब कटड़ी बना डाला, अंत तक भी शायद ही उसको इसका अहसास हुआ हो| भला बच्चे पालना भी कोई व्यापार हो सकता है दुनिया में? जाने में हुआ हो या अनजाने में पर ये तो व्यापार ही हुआ ना?
-
और उस पर बदकिस्मती यह कि इस आध्ले वाले करार के तहत पालने वाला उस कटड़ी को उसके घर की कटड़ी (खुद के बच्चे) के बराबर तक का भी ध्यान दे ऐसा होता ही नहीं और कोई इसका दावा करता हो तो वो इंसान की प्रकृति को जानता ही नहीं| और यही इस बच्चे के साथ हुआ, जो इसके पालक बने उन्होंने इसको उस करार से ज्यादा कुछ समझा ही नहीं वरना सात साल बाद जब वो अपने खुद के घर में गए तो इस बच्चे को गाँव भेजने की बजाय जैसे की ऊपर भी कहा, अपने साथ क्यों नहीं ले गए, अपने नए मकान में?
-
और दूसरी तरफ वो पिता (कटड़ी का खसम), जिसकी वो कटड़ी थी जब उस कटड़ी से बड़ी बन चुकी भैंस को वापिस अपने घर लाया तो 12 और 15 के फेर से कभी बाहर ही नहीं निकल पाया| उस आध्ले पे पल के आई भैंस ने चाहे 12 किल्लो भी दूध दिया, उसके मन में हमेशा बात आई की आध्ले पे दे के पलवाई तो बारह किल्लो देती है अपने हाथों पाली होती तो जरूर पन्द्रह किल्लो तक तो देती| और यही रिश्ता अपने रामभरोसे का इसके बाप के साथ चला|
-
और इसी 12-15 के फेर के चलते वो यह कभी मान ही नहीं पाया कि तेरा रामभरोसे एक परिपक्कव बच्चा है और वो यही सोचता रहा कि इसको और बेहतर इंसान बनना अभी बाकी है| बावजूद इसके कि ना तो उन रिश्तेदारों का कोई बच्चा और ना ही गाँव का कोई बच्चा पढाई का क्षेत्र हो या सामाजिक सूझ-बूझ का, रामभरोसे के आसपास भी नहीं फटकता था|
निष्कर्ष: तो अंत में इस कहानी के यही दो पहलु सामने आये कि:
-
एक तो उस बच्चे में कभी आत्म-सम्मान नहीं बन पाया और वो उम्र भर यही सोचता रहा कि सब कुछ होते हुए भी मेरी जिंदगी में ऐसा क्यों हुआ कि पैदा होते ही माँ खोई, फिर जो भी मेरी जिंदगी का खेवनहार बना, अपनी औपचारिकता सी निभा मुझे मझदार में नांव की तरह छोड़ चलता बना| सबने मेरी जिंदगी को औपचारिकता बना डाला कभी किसी ने उसको गंभीरता से नहीं लिया|
-
दूसरा उस पिता का कभी 12-15 का हेर-फेर ख़तम नहीं हुआ और इसके चलते ना तो वो कभी औलाद को और औलाद के गुणों और शक्ति को सही से पहचान पाया और ना ही कभी उससे दिल जोड़ पाया|
-
अति हर चीज की बुरी होती है| इस पिता ने अपनी सीमा से बाहर जा, अपने बच्चे के आत्म-सम्मान तक को किनारे कर रिश्तेदारों के हर व्यवहार पर चुप्पी साधी और अंत में सुनने को क्या मिला, कि रामभरोसे का पिता एक अव्यवहारिक इंसान है?
सो इस लेख का उद्देश्य जैसे की इसके शीर्षक में लिखा है कि अगर आप अपनी औलाद की सम्पूर्ण जिम्मेदारी खुद नहीं उठा सकते, अपनी पत्नी और होने वाले बच्चे के लिए अपने ही पारिवारिक तंत्र से नहीं लड़ सकते तो सोचिये कि कहीं आप धरती पे ऐसी पीढ़ी तो नहीं ला रहे जो आत्म-सम्मान से रहित होगी?
वैधानिक चेतावनी: इस प्रस्तुती का मात्र उद्देश्य बच्चों के बौधिक और आत्म-सम्मान को विकसित करने में माँ-बाप के किरदार और बच्चे को दिए गए माहौल की महत्ता पर चर्चा करना मात्र था| इस कहानी का किसी की जिंदगी से मिलना सयोंग मात्र ही कहा जायेगा| |
|
रामभरोसे अपनी हस्ती सोचते हुए| |