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कविताई
 
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हिंदी कविताई

कुल 14
1. उजड़ रहा अपना चमन
2. चढ़ा था क्यों भगत फांसी
3. क्या खूब मिला मोल
4. एक और बना द
उजड़ रहा अपना चमन, टूट रहा अपना वतन,
कभी मंदिर के नाम, कही मस्जिद के नाम|

कितनो ने पढ़ा है गुरुग्रंथ, गीता और कुरान,
पर हर कोई खोजे यहाँ रहीम, कोई ढूंढे नानक, कोई राम|

कश्मीर से कन्याकुमारी, गुजरात से आसाम,
एक मिटटी, एक ही खुशबू, पर क्यों न एक अवाम|

जात, पात पर बहाते खून चन्द गद्दार सियासतदान,
बस कभी राम बदनाम, कभी रहीम बदनाम, कभी नानक बदनाम|

कवि: आवेश अहलावत

दिनांक: 15/11/12
चढ़ा था क्यों भगत फांसी आज किसको याद है?
बना बैठा कसाब दामाद, जिस पर दुश्मन को नाज़ है|

ग्रोथ रेट हो गयी 7 से 8 % ये झूठे बहकावे है,
70 % जनता BPL के नीचे और भारत निर्माण के दावे है|

2G के लाखो करोड का पता नहीं, पर 3G की नीलामी है,
कोयला कर के दफ़न, अब FDI की तयारी है|

अपाहिजों की बैशाखी लूट कर भी मिलती तरक्की है,
71 लाख रह गए थे कम, अब लाखो करोड़ की बारी है|

किस्मत का दर दिखाके ढोंगी कहलाते भगवान है,
चारा, कोयला खाने वाले बने बैठे सियासतदान है|

मर रहा किसान क़र्ज़ से उसका किसको ख्याल है,
फार्मूला रेस पर करोड़ो फुके उस पर सबको मान है|

अम्बानी बनाये घर 350 करोड़ में, ना उठता कोई सवाल है,
पर गरीब को 30Rs में घर चलने का फरमान है|

सफ़ेद खादी वालो के घर कुत्ते केडबरी खाते है,
और गरीब के बचे भूखे, अधनंगे सोते है|

चढ़ा था क्यों भगत फांसी आज किसको याद है?
बना बैठा कसाब दामाद,जिस पर दुश्मन को नाज़ है|

कवि: आवेश अहलावत

दिनांक: 15/11/12

क्या खूब मिला मोल, भगत तेरी शहादत का,
जात पात पर बहता खून, तेरे हिंद में अब जनमानस का|

ठगी ठगी रह गयी क़ुरबानी, आज़ाद और बिस्मिल की,
कोयला, चारा, 2G, कोमन्वेअल्थ, बस यही रह गयी कीमत आज़ादी की|

मै हिंद के लिए हो जाऊ शहीद, तो भी दाग लगे गद्दारी का,
मरे एक गद्दार सियासतदान तो, शोक में झुकता है तिरंगा हिंदुस्तान का|

क्या खूब मिला मोल, भगत तेरी शहादत का,
जात पात पर बहता खून, तेरे हिंद में अब जनमानस का|

कवि: आवेश अहलावत

दिनांक: 15/11/12
एक और बना दे, बना दे फ़ौज सुभाष,
हिन्द को आज फिर से तेरी जरुरत खास|

बोल पंडित आज़ाद को संभाले हथियार फिर से अब,
न चूमे भगत फंदा, करे पूरी जंग बिस्मिल आज|

बेशक हो एक और जलियावाला, पर पैदा हो अब सौ उधम आज,
है तमनना, हो कण कण में पैदा हिन्द में सराभा आज,
पर हो ना गुमनाम शहादत सुखदेव की और अब|

ना भूख हड़ताल खातिर फाके लालमिर्ची किशोरी आज,
हिलाए गद्दी गद्दारों की, जो बम बनाये जतिन दा आज|

एक और बना दे बना दे फ़ौज सुभाष,
हिन्द को आज फिर से तेरी जरुरत खास|

कवि: आवेश अहलावत

दिनांक: 15/11/12
5. धज्जी-धज्जी हुए कफ़न
6. "काली जुबान"
7. "मुज़फ्फरनगर से आगे"
8. "सियार-गिद्द मंडरा रहे"
धज्जी-धज्जी हुए कफ़न फट कर कीलों की बस्ती में
कैसे अपनी लाश बचाएँ हम चीलों की बस्ती में

अपनी ही गलियों में चलने पर ऐसा क्यों लगता है
जैसे हिरन भटक कर आया हो भीलों की बस्ती में

भेजा गया जिन्हें था समतल करने उबड़-खाबड़ को
आकर बन बैठे हैं पर्वत वो टीलों की बस्ती में

गहरे तल में बैठी प्यासी रेतों से पूछे कोई
कितने रेगिस्तान छुपे हैं इन झीलों की बस्ती में

पत्थर ढोने वाले हाथों की रेखाएँ कहती हैं
कोई राम नहीं आयेगा नल-नीलों की बस्ती में

नई रोशनी लेकर आए हैं वो नए ज़माने की
नए अँधेरे छाएँगे फिर कंदीलों की बस्ती में

कवि: आवेश अहलावत

दिनांक: 17/11/12
शीश कटाते फौजी देखे, आंख दिखाते पड़ोसी महान|
भाव गिराता रूपया देखा, जान गंवाता हुआ किसान||

बहनों की इज्जत लुटती, काम खोजता नौजवान|
अन्न गोदामो में सड़ता, भूख से मरता हिंदुस्तान||

घोटालों की सत्ता देखी, लुटता हुआ हमारा हिंदुस्तान,
फिर भी काइय्याँ कहते जाते ‘हो रहा भारत निर्माण’|

"मंदिरों" के सोने तक गिरवी रखवाने पर हैं अड़े हुए,
उसपे भी दम भरते हैं कि विश्व में हमारे झंडे गड़े हुए?

"सत्याग्रह" तो क्या, सती हो जाओगे तो, तो भी ये बाज नहीं आयेंगे।
‘फुल्ले भगत’ शुभ-शुभ बोल, वर्ना 'काली जुबान' पे तेरी कव्वे मंडराएंगे|

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 06/09/13
वो अयोध्या 84 कोसी थी, ये खाप चौरासी थी,
वो बातों के शेर, पर यहाँ बात नहीं जरा सी थी|

हिले-हिले इधर भी चढ़ गए, क्या अक्ल बेच खा रखी थी?
जा छेड़ा उनको, जिन्होनें लाज हिन्द की सदियों से रखी थी||

मुलायम तुझे जाट नहीं भाए, कभी एक आँख काणी,
इसीलिए तो जाट-रेजिमेंट की भी सोची थी तूने हाणी।

मुस्लिमों को भी तूने, हथियार बनाने की सोची,
जिन्होनें तेरी सरकार बनाई, उन्हीं की गर्दन द्बोची| (see ref 1 below)

जा कोई और रास्ते ढून्ढ रे, नहीं ये पी. एम. बनने की सीढ़ी,
2012 में चल गई तेरी, अब नहीं चलेगी ये ग़दर की सीडी।

1857 से बहादुर-शाह ने जो डोर मोहब्बत की बाँधी थी,
खापों को दे कमान लड़ाई की, दिशा आजादी की साधी थी|

सर छोटूराम ने उसी डोर की, और गाँठ गूढ़ी गांठी थी,
1947 में इस डोर को बचाने, खाप लिए खड़ी लाठी थी|

दंगाई को पैर धरने ना दिया, घेरा-बंधी वो बाँधी थी,
कांधला में दिया ऐसा भरोसा, मुस्लिमों ने पाक की राह त्यागी थी|

सरे-हिन्द कत्ले-आम हुए, यहाँ अमनो-चैन बनी बांदी थी,
जाट-मुस्लिम के धागे की डोर एक बार फिर गूंथी गाढ़ी थी|

चरण सिंह आये उन्यासी में लिए विरासत बांकी सी,
इसी एकता के दम की, गंगा-जमना की शीतलता सी|

‘फुल्ले-भगत’ की खाल उतार लो जो बात जरा हो झूठी,
खेतों में काम करना-करवाना तुमको, उनकी नी अम्मा रूठी।

जाट विचार लो, मुसलमान विचार लो, फिर होना होगा एक,
और नहीं तो इतिहास देख लो, जिसकी नहीं कोई टेक।

नुकसान तुम्हारे खेतों का है, काम से ले कमेतों का है,
इनका (राजनीतिज्ञों का) क्या है इन्होनें तो अपने बापों तक को बेचा है|

Ref 1: Listen to what Mohmmad Adeeb is saying from 1.30 minute to 2.00 minute fraction of this video

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 12/09/13
सियार-गिद्द मंडरा रहे, सौहार्द की खाई बढ़ा रहे।
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?

कारोबार तुम्हारे उजड़ रहे, इनको क्या अड़चन रे,
दमालो वाली आग लगा वन में, दूर जा खड़े हुए।
ट्रेक्टर-ट्राले जले कहीं तो, कहीं स्वों के शव सड़े,
जितना तुम लड़ते रहे, इनके कारोबार बढ़ते रहे॥
MNCs के माल बिकेंगे, तुम्हारे चूल्हे-बर्तन बिकें रे|
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?

हिन्दू-हिंदुत्व के खेल में, मत उजाड़ो दिलों के मेले,
कट्टरता विनाश की राही, ये आडम्बर-पाखंडों के रेले।
फिर कोई आडवाणी ले मंदिर काख में, सजदे जिन्ना को करेगा,
जड़ नहीं इनकी अपनी, तुम्हारे जख्म क्या ख़ाक भरेगा?
भावनाओं पे मत चढना, ये भावनाओं को ही रोंदे रे|
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?

कहीं व्यापारी बैठ के हंस रहा, कहीं मीडिया ताने कस रहा|
पहले से ही दुश्मन थे ये, अब तो मौका स्वत: ही मिल गया।
हुआ सो हुआ, गुस्सा तुम्हारा था, पर सियार क्यूँ चढ़ने दिया,
मैदान छिड़ा असली जब, पदचाप भी ना जिसका दिखाई दिया|
रंग-रहबर सब उठा ले जायेंगे, खाल तुम्हारी बेचें रे|
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?

मुस्लिम हो-इंटरनेशनल हो, पर नेशनल तो फिर भी हो,
बहादुरशाह ने जो राह दिखाई थी, उससे क्यों विचलित हो?
छोटू-चरण-टिकैत के भाईचारे की लो से, प्रज्वलित तो हो?
गंगा-जमुना सी मिठास नहीं जग में, फिर क्यों उद्वेलित हो?
धुंए तुम्हारे चूल्हों के फिर, कब एक बादल बन बरसे रे?
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?

खेल भारी है तुम्हारे पर, सियार-गिद्द मंडरा रहे,
कमाई कैसे लूटें तुम्हारी, धर्म के ठेकेदार विचरा रहे।
मानसिक गुलामी घर करवाएं कैसे, इसके रस्ते बतिया रहे,
कट्टरता पे मत चलना कभी, बुजुर्ग तुम्हारे यही फरमाए रहे|
'फुल्ले भगत' टीस लग रही, क्या तेरे रहे राह रे|
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?

सियार-गिद्द मंडरा रहे, सौहार्द की खाई बढ़ा रहे।
क्या जाट-मुस्लिम एकता के, फिर से दिन होंगे हरे?


शब्दावली:

सियार-गिद्द: मुज़फ्फरनगर की पंचायतों के मंच से कट्टरता पे बोलने वाले
छोटू-चरण-टिकैत: रहबरे हिन्द सर छोटू राम, चौधरी चरण सिंह एवं बाबा महेन्द्र सिंह टिकैत

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 18/09/13

9. Choice Marriage (स्वयंवर)
10. किससे शिकायत करूँ तेरी?
11. जब तक मुंह ना लावें, ना लावें
12. भामाशाहों के भामाशाह दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम
एक सीता ने की choice marriage बण-बण धक्के खाए,
आगे-आगे राम चलें, पीछे लछमन देवर ज्यूँ साए।

रावण ले गया उठा के, राम रहे सीते-सीते बण गुंजाये,
सीते मिली जब, अग्नि परीक्षा वही राम जी धरवाए।

इतने पर भी होणी ना मानी, धोबी से वचन कहलवाए,
मर्यादा-पुरुषोतम का देखो पुरुषार्थ, सीता ही बलि चढ़ाए।

पुरुषप्रधानता सिद्ध करने, सिया को फिर से बण छुड़वाएं,
Choice marriage भी कुछ स्वर्ग नहीं थी, सति का जीवन यही सिखाये।

एक राजा नल हुए जो दमयंती ने थे प्रणाये,
उसी दमयन्ती को वो नल, धर जुए में बिकवाये।

एक कुंती हुई जिसने स्वेच्छा से पांडू वर वरणाये,
दाम्पत्य सुख भोग सकी नहीं, देवताओं से पुत्र जनवाये|

द्रोपदी नारी एक हुई दीवानी, मछली-चक्षु में तीर मरवाए,
स्वेच्छा थी या धक्का था, पांच-पांच पति मिल जाए।

जितनी दुर्गति द्रोपदी की हुई, धर्मराज भी ना गिन पाए,
लगा दी जुए पे समझ के प्रोपर्टी, भाग्य कहाँ तक आगे आये।

कहीं बनी शारेंद्री, महलों की पटरानी पे कीचक नजर चलाये,
रच दिया महाभारत बोलों ने, भरी सभा चीरहरण ना रोक पाए।

शादी तो फिर शादी है, स्वेच्छा की है या व्यवस्था की है,
पर ये समाजसेवी और मीडिया देखो choice marriage को ज्यादा तोलता जाए|

अक्ल पे पत्थर क्यों पड़े तुम्हारे, जो स्वेच्छा को ही सर्वोतम बतलाये,
रानियाँ तक नहीं सुखी हुई कभी, ये साधारण को ख्वाब दिखाएँ।

ख्वाब दिखाएँ सो दिखाएँ पर गारंटी क्यूँ धरवायें?
कि choice marriage ही सर्वोतम बाकी सब न्यूनतम बतलाएं।

'फुल्ले भगत' क्यों पगला रहा, जो अनर्गल बतलाये,
पीछे पड़ गया जो कोई तो बता फिर कैसे पिंड छुटाए|

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 21/09/13
रहबर, मेरे ओ रब्बा, मौका दिया न धब्बा,
कट्टी सारी मेरे से, बाकियों से रही अब्बा|

होश सम्भालता, या तुझे पालता,
हरकतें तेरी ही, रहा सम्भालता|

किस्मत नाम की डुगडुगी, क्या खूब मचाई गुदगुदी,
तू ही ललचाया रहा, दिन-रैन भड़काया रहा|

तू भी यह जानता था, किस्मत को मैं ना मानता था,
अटकलें राह ऐसी मौड़ी, जिनपे मैं भोहें तानता था|

एक तो राह चलाया अकेला, उसपे भी ना कोई लगाया मेला,
हसरते दामन लूटते-लूटते मेरी, तुझे रोना तक भी ना आया?

खुद ही मुझे मारना था, तो क्यों जंगे-मैदां उतारना था,
ऊपर ही लेख लिख लेता मेरे, चित्रगुप्त क्या न जानता था|

उतारा है तो राह जीने दे, सपनों के रंग पीने दे,
साकार करूँगा कब इनको, जो बिल्ली बन राह काटता रहा|

खुदा है खुदाई करने दे, जय बोलूं बस इतना भरने दे,
या किससे शिकायत करूँ तेरी, उसका ही पता दे-दे|

‘फुल्ले भगत’ गरूर में, फरमान तेरे के आया,
रहबरी ढंग से कर ले, नहीं तो मैं ऊपर आया|

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 28/11/2013
चंगेजों की उड़ी धज्जियाँ, जब चली रणचंडी चढ़ के,
घोड़े की जब चापें पड़ें, धरती जाए दहल पल में|
सर्वखाप चले जब धुन में, दुश्मनों के कलेजे फड़कें,
दिल्ली-मुल्तान एक बना दें, मौत नाचती दिखे घन में||
जब प्रकोप जाटणी का झिड़के, दुश्मन पछाड़ मार छक जे,
पिंड छुड़ा दे दादीराणी से, अल्लाह रहम कर तेरे बन्दे ते|||

चालीस हजार की महिला आर्मी खड़ी कर दूँ क्षण में,
जहां बहेगा खून हमरे मर्दों का, हथेली ताक पे धर दें|
वो आगे-आगे बढ़ चलें, हम पीछे मलीया-मेट कर दें,
अकट नदी के कंटकों तक दुश्मन की रूह चली कतरते||
खापलैंड की सिंह जाटणी हूँ, तेरी नाकों चणे भर दूँ,
दुश्मन बहुत हुआ भाग ले, नहीं "के बणी" वाली कर दूँ|||

पच्चीस कोस तक लिए भगा के, दुश्मन के पसीने टपकें,
खुल्ला मैदान है तेरा भाग ले, विचार करियो ना मुड़ के|
पार कर गया तो पार उतर गया, वर्ना लूंगी साँटों के फटके,
चालीस हजार योद्ध्यायें नभ में, यूँ करें कोतूहल चढ़-चढ़ के||
सर्वखाप है यह हरयाणे की, बैरी नहीं लियो इसको हल्के-हल्के,
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल चर्म से|||

प्राण उखड़ गए मामूर के, 36 धड़ी सिंहनी ने जब लियो आंट में धर के,
अढ़ाई घंटे तक दंगली मौत खिलाई, फिर फाड़ दिया छलनी करके|
ब्रह्मचारिणी दादीराणी क्या दुर्गा क्या काली, सब दिखी तुझमे मिलके,
दुश्मन भोचक्को रह गयो, ये क्या बला आई थी घुमड़ के||
हरियाणे की सिंहनी गर्जना से, मंगोलों के सीने यूँ थे चटके,
"फुल्ले भगत" पे मेहर हो माता, दूँ छंद तुझपे निराले घड़-घड़ के|||

Description: This poem written on on 1355 AD conquest between army of Changez Khaan and Dadirani Bhagirathi Ji Maharani

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 24/05/14
चौधरी छोटूराम के धर्म पिता तुम, उनका फ़रिश्ता-ए-रोशनाई थे,
हरियाणा के तीन लालों की तरह, इसके तीन रामों के रहनुमाई थे|
भामाशाहों के भामाशाह दानवीरसेठ छाजूराम, आप गजब शाही थे,
जब उदय हो चले अलखपुरा से, जा छाये आसमान-ए-कलकत्ताई थे||

जी. डी. बिड़ला, लाला लाजपतराय रहे किरायेदार, जो इन्सां जुनुनाई थे,
कलकत्ते के सबसे बड़े शेयरहोल्डर आप, साहूकारों के अगवाही थे|
भगत सिंह को मिली पनाह जिनके यहाँ, वो खुदा-ए-रहबराई थे,
नेताजी सुभाष को दी आर्थिक सहायता, जर्मनी की राह लगाई थे||

दानवीरता की टंकार हुई ऐसी कई भामाशाह अकेले में समाईं थे,
बाढ़-अकाल-बीमारी-लाचारी-गरीबी में दिए जनता बीच दिखाई थे|
लाहौर से कलकत्ता तक, शिक्षा के मंदिरों की दिए लाइन लगाई थे,
कौम का इतिहास लिखवाया कानूनगो से, गजब आशिक-ए-कौमाई थे||

तेरे जूनून-ए-इंसानी-भलाई का, यह फुल्ले भगत हुआ दीवाना,
वो जज्बा तो बता दे, जो धार दुःख देश-कौम के मिटा पाई रे?
सेठों-के-सेठ ओ भारत-देश की शान, किसके दूध की अंगड़ाई थे?
जिंदगी राह लग जाए, तुझसे रोशनी ऐसी पाई ओ दादी माई के|

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 14/11/14
13. तेरा कोई दोष नहीं, ओ नारी अनुष्का शर्मा!
14. मैं लुटेरों का बेटा हूं!
तेरा कोई दोष नहीं, ओ नारी अनुष्का शर्मा,
यह भारत है इसने औरत को सदा ही भरमा,

इश्क करने चली सरूपण-खां तो नाक कटी,
सीता ने लांघी लक्ष्मण रेखा तो गई हरी|
जुआ खेले युधिष्टर, चीर द्रोपदी की फ़टी,
जुआ खेले नल बेचे सौदे में सती दमयंती||
बलात्कार इंद्र करे, अहिल्या को पत्थर का दिया बना|
यह भारत है इसने औरत को सदा ही भरमा|

आरएसएस कहती खेल अंग्रेजों का, आज भी क्यों ढोवें,
पर गुलामी जाती नहीं, जब तक दिमाग को ना धोवें|
विराट ने जुआ छोड़ क्रिकेट की तरफ तरक्की कर ली,
पर इसमें भी हारे तो राष्ट्रीय पनौती बोल तू धर ली||
ऑस्ट्रेलिया की धरती पे, तेरा बन्दर दिया बना|
यह भारत है इसने औरत को सदा ही भरमा|

तेरा कोई दोष नहीं, यह भारत है ना कि इंग्लैण्ड,
तेजपाल हो, आशाराम हो या भागवत का बैंड|
दोष इंडिया को ही देंगे, भारत अनटोल्ड स्टैंड,
दामिनी हो, कामिनी हो, तोलें सबको एक ट्रेंड ||
कभी कपड़े कभी मोबाइल, देवें तुझपे जाम बिठा|
यह भारत है इसने औरत को सदा ही भरमा|

पर बैलेंस तो तुझे भी कहीं ना कहीं धरना पड़ेगा,
विश्वामित्र का तप मेनका ने तोड़ा, कौन ना कहेगा?
क्या कहें जीवन और प्यार की हैं इतनी ही कठिन राही,
'फुल्ले भगत' नहीं समझ पाया, तू कौनसी खेली-खाई||
तुझको पनौती कहने के विरुद्ध, मैं लिखूं कलम उठा|
यह भारत है इसने औरत को सदा ही भरमा|

तेरा कोई दोष नहीं, ओ नारी अनुष्का शर्मा,
यह भारत है इसने औरत को सदा ही भरमा|

कवि: फूल कुमार मलिक

दिनांक: 27/03/15
ना मैं कोई खोजकर्ता,
ना कोई सियासतदान हूं।
खड़ा हूं कुछ सवाल लिए,
मैं हैरान हूं परेशान हूं।
कौन ललकारा शोशल मीडिया में,
कौन घिरा तलवारों में|
सफेद झूठ वो मुरथल का,
कैसे छप गया अखबारो में|
दुकान मकान के चर्चे ही चर्चे,
इन्सान जले का फिक्र नहीं।
जिसने भाईचारा फूंका है,
उस बंदर का कहीं जिक्र नहीं।
आज कोस रहे है 35 उनको,
जिसने कभी किसी को कोसा नहीं।
हैरान करती है भेड़चाल मुझको,
ये सांसद किसी का मौसा नहीं।
लुटेरों की कौम थी जिसने,
दुकान मकान सब तोड़ दिए|
पर सड़कों पे खड़े लदे ट्रक,
उन लुटेरों ने कैसे छोड़ दिये।
जिस बिस्तर पे राहगिरों को सुलाया,
अभी मैं भी उसी पे लेटा हुं।
गर फंसों को खिलाना लूट है,
तो गर्व है मुझे मैं लुटेरों का बेटा हूं।

लेख्क्क: रमेश चहल

द्यनांक: 12/03/16
 


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

साझा-कीजिये
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
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कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं - NH
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