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गठवालों व् निडाना गाँव की कहानी, दादा चौधरी चतर सिंह मलिक की जुबानी |
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दादा चौधरी चतर सिंह मलिक का परिचय:
दादा चौधरी चतर सिंह मलिक पुत्र दादा चौधरी लहरी सिंह, गाँव के जाट समाज के वयोवृद्ध, आदरणीय व् ज्ञानी सज्जन हैं| आपकी ही जुबानी गठवाला खाप के दादा चौधरी बलजीत सिंह तक ने कौम के इतिहास व् ज्ञान हेतु आपके ज्ञानकोष का लोहा माना हुआ है| आपके ज्ञानकोष की टंकार ऐसी है कि आप अनपढ़ होते हुए भी पढ़े-लिखे को अचम्बे में डाल देते हैं|
गाँव के ऐतिहासिक वीर पुरुष दादा चौधरी गुलाब सिंह जी (जिन्होनें कि अकेले दम पर धाड़ के अठारह लोगों को मौत के घाट उतार अदम्य वीरता और साहस का परिचय दिया था, व् अपने जौहर के लिए आजतक अमर हैं) आपके ही पड़दादा हुए हैं|
नीचे की लिखी बातें सशब्द आपकी जुबानी रख रहा हूँ| मेरा किरदार इसमें सिर्फ आपके बोलों को शब्दों में रूपांतरण का है| दादा से यह वार्तालाप 21 व् 24 अक्टूबर 2014 को हुई|
21 अक्टूबर 2014 की वार्ता में आपके बताये तथ्य इस प्रकार हैं: |
दादा चौधरी चतर सिंह मलिक |
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- दादा चौधरी मंगोल जी महाराज ने बसाया था निडाना: दादा बताते हैं कि हमारे पुरखे दादा मंगोल जी महाराज के हाथों गाँव मोखरा (जिला रोहतक) में माणस बिगड़ गया था| और ऐसे माहौल से सुख और शांति की तलाश में दादा जी महाराज ने वहाँ से पलायन कर, यहां आ, आज का निडाना बसाया था| किसी मंशा, उद्देश्य सिद्धि या जिद्द के चलते कहो दादा मंगोल की जिद्द थी कि वो किसी रांघड़ों के खेड़े पे ही अपना खेड़ा बसाएंगे| तो जब वो ऐसे खेड़े की तलाश में निडाना तक आये तो यहां एक उजड़ा हुआ खेड़ा मिला (जो कि इससे पहले रांघड़ों का बताया गया) और दादा ने यहीं बसने का निर्णय लिया| और उसी जगह आज जहां "दादा बड़ा बीर" है अपना खेड़ा जमाया| और वहीँ जाट-सभ्यता की मान्यतानुसार उस खेड़े को मूर्तिरहित-आडंबर रहित रख, अब जाटों व् सहयोगी जातियों के निडाना में बसने की पवित्र पूजा स्थल में परिवर्तित कर दिया| और ऐसे निडाना के सबसे बड़े-ऊँचे-पवित्र-श्रद्धेय धाम की नींव डाल, इसके इर्द-गिर्द गाँव बसाया गया| दादा चतर सिंह बताते हैं कि और इस तरह जाटों ने इस खेड़े को अपने खेड़े में तब्दील कर लिया और उसको अपने प्रभाव में ले आबाद किया| और क्योंकि गठवाला जाटों को रांघड़ों ने सदैव बराबरी और सम्मान दिया तो इसलिए उनसे किसी तरह की जिरह की कोई उडार या टीस नहीं आई और ऐसे ख़ुशी और उल्लास के माहौल में निडाना का खेड़ा आबाद हुआ|
- निडाना गाँव दादा भेड्डी का है: दादा बताते हैं कि दादा मोमराज जी महाराज को महारानी ग़ज़नी से बांगड़, जांगड़, दाधल, जड़िया, भेड्डी, पद्याण नाम के छ: बेटे हुए| इनके अलावा दादा का सांतवा बेटा भी हुआ जो आगे चलकर रांगड़ बन गया; वह गोहाना की गढ़ी में अलग से बसता था| तो निडाना गाँव दादा भेड्डी जी का खूम है| ऐसे ही शामलो दादा पद्याण जी का खूम है|
- दादा मंगोल जी से आगे की वंशबेल: दादा जी मंगोल को तीन पुत्र हुए रायचंद, रूपचंद व् लाधू (लाधू दादा ने गतौली गाँव बसाया, रूपचंद दादा ने निडानी और रायचंद दादा का निडाना है)
दादा अपनी वंश-लेन के साथ-साथ बराबर की और लेनों बारे ऐसे बताते हैं:
रायचंद को हुए भनिदास (बेऔलादे गए) व् करारा
करारा को हुए सांझरण और लखमीर (काले)
सांझरण को हुए राहतास और मलवा
राहतस को हुए संजय
लखमीर को हुए बग्गा और गढ्ढू
बग्गा को हुए कटारु और रूडा
रूडा को हुए बालकदास, मंदरूप और मनसा
मनसा को हुए दाता और भंता
भंता को हुए मोख्ता, काबरा और गुलाब {दादा गुलाब को सांझरण वाली (इस चर्चा के रूपंताणकर्ता फूल कुमार मलिक की लेन) लेन में दादा घरद्याला वाली पीढ़ी और दादा गुलाब वाली पीढ़ी आपस में चचेरे भाइयों की पीढ़ी में बताते हैं}
गुलाब को हुए रामसुख
रामसुख को हुए कर्मा
कर्मा को हुए मामचंद
मामचंद को हुए लहरी
और लहरी को हुए दादा चतरा (इस सारी वार्ता के बयानकर्ता)
- दादा के बताये 'एक पंक्तिय' तथ्य:
- दादा मंगोल के साथ आई अन्य जातियों के बारे दादा बताते हैं कि 'मीला' धानकों की लेन जो आज गाँव में बसती है, यह दादा मंगोल के साथ ही मोखरा से आई थी| 'दादा मीला' नाम था धानकों के बड़े बुजुर्ग का|
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गाँव का मंगोल वाला जोहड़ दादा जी मंगोल के नाम से और लाधू वाला जोहड़ दादा जी लाधू, जिन्होनें कि गतौली बसाई के नाम से हैं|
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चौदह की साल के ग़दर के 6 महीने पहले दादा चौधरी गुलाब जी ने एक धाड़ द्वारा गाँव में मचाई तबाही के क्रोधवश 18 डाकू काटे थे|
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गाँव की पुरानी कच्ची परस कातक वाली बीमारी यानी महम राज के दौरान सत्तर की साल (च्यार की साल देशी में) में बनी थी|
- घरद्याला व् गुलाब जाटों में, हरद्वारी ब्रह्मिनो में और रूलिया बनियों में सदा से खाती-पीती लेन रही हैं|
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दादा बड़ा बीर सिर्फ उल्हाणा, मोखरा और निडाना में है, बाकी के मलिक गाँवों में "दादा खेड़ा" हैं|
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दादा बाढ़ला पीर की पत्नी का नाम दादी चौरदे था, जिनका कि गाँव के बड़े बीर के बगल में छोटा सा मंदिर है|
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गठवाला जाटों ने कलानौर रियासत के साथ-साथ एक ही वजह (जिस वजह से कलानौर तोड़ी) से "सेहरडा" की रियासत भी तोड़ी थी|
- गाँव में बसने वाली धाणी यानी बेटी की औलादें:
- मलवा में: दादा मलवा के दादा भलुआ हुए, वो पार यानी पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जा बसे| मलुओं में दादा घनघे के, दादा बाऊ के और दादा मांगा के दादा लाही लेन हैं, बाकी मलवा जैसे कि दादा फत्ता के, दादा सुधन के, दादा निर्मल के, दादा कल्ला के, दादा गिरधारी के, दादा ठोइया के, दादा भानू के यह सब धाणी की औलादें हैं|
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चेतू में: दादा जाती, दादा पल्ली के यह सब धाणी की औलाद हैं|
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दादा सुधन के भालसी में जो हमारी बेटी ब्याही गई थी उसकी औलादें हैं और वहाँ से आये हुए हैं|
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दादा फ़ाददु कोरडां से आये हुए हैं|
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दादा ठकुरिये की अलग लेन है, जिसका मिला बाहर का है|
सबका मलिक गोत्र होने बारे दादा बोले कि क्योंकि जाट-सभ्यता के अनुसार गाँव के बेटा-बेटी की औलादों के गाँव में बसने पर दोनों के लिए खेड़े का ही गोत्र प्रथम गोत्र के रूप में अपनाया जाता है| इसलिए जाटलैंड पर अगर औलाद माँ के गाँव में बसे तो माँ का गोत्र उसका प्रथम गोत्र बन जाता है और अगर वह पिता के गाँव में ही बसे तो वहाँ तो पिता का गोत्र प्रथम गोत्र रहता ही है| इसका ध्येय खेड़े के गोत्र की नजर में बेटा-बेटी को बराबर देखना है| अत: इसीलिए आज इन सबके गोत्र भी मलिक हैं|
- गठवाला जाटों को मलिक की उपाधि कैसे मिली?: दादा जी के अनुसार बादशाह अकबर के पिता हुमायूँ की 3 रानियां थी, बड़े वाली रानी “मंझा” उर्फ़ हमीदा बेगम थी| जब रानी मंझा उम्मीद से हुई यानि अकबर जब गर्भ में आया तो हुमायूँ पर मुसीबतें टूट पड़ी और ऐसे में गठवाले जाटों के बड़े (जो कि हुमायूँ के मिलनसार थे), हुमायूँ पर खतरे को भांप गर्भवती रानी मंझा को दुश्मनों से बचाते हुए, दूर जंगलों में निकाल ले गए| और दोनों ने जंगल में एक ऋषि के आश्रम में शरण ली| वहीँ गठवाले जाट की सुरक्षा व् साध-संगत के वातावरण में रानी मंझा ने अकबर को जन्म दिया|
जब अकबर बड़ा हुआ और बादशाह बना तो उसने माँ से वो कहानी जाननी चाही, जो रानी मंझा अकबर के जन्म बारे बचपन से उसको बताती आई थी कि उसका जन्म जंगल में हुआ था| विस्तार से जानने पर रानी मंझा ने बताया कि ऐसे-ऐसे फलाने गठवाले जाट का उपकार है हमारे ऊपर, वो ना होते तो ना आज तू होता, ना मैं होती और ना यह विशाल रियासत और राज होता| माता से सारी बात जानकर अकबर ने गठवाला जाटों को भाईचारे का निमंत्रण दिया; और क्योंकि मुस्लिमों के यहां "मलिक" उपाधि सर्वोपरि वीर, रक्षा करने वाले व् हुतात्मा इंसान को दी जाती है, साथ ही इसकी पेशकश गठवाला जाटों को की और इस प्रकार गठवाला जाटों ने बादशाह अकबर से भाईचारा व् 'मलिक' उपाधि स्वीकारी| और तब से गठवाला जाट "गठवाला" के साथ-साथ "मलिक" उपनाम से भी जाने गए|
मेरी विवेचना: दादा का बताया यह तीसरा पक्ष है जो मलिक जाटों को मलिक उपाधि कैसे मिली, बारे मैंने सुना| इससे पहले दो पक्ष और इसके अपने-अपने कारण बताते हैं| जिनमें एक पक्ष माननीय इतिहासविद श्री के. सी. यादव जी का है जिनके अनुसार गठवालों को यह उपाधि पाखंडवाद व् फंडियों को मैदान-ए-युद्ध में हराने की ख़ुशी में उस समय के बादशाह से बराबरी के सम्मान में प्रस्तावित की थी| इस युद्ध में उस समय के बुद्ध अनुयायी 9000 गठवाला जाटों ने पाखण्डवादियों से प्रेरित व् मार्गदर्शित एक लाख सेना को अपने 1500 वीरों को खोकर हराया था| और अपने बौद्धत्व के साथ-साथ अपनी स्वछँदता को भी बचाया था|
दूसरा पक्ष पत्रकार व् विख्यात लेखक श्री प्रताप सिंह शास्त्री का है, जो कहते हैं कि गठवाला जाटों को यह उपाधि तब प्रस्तावित हुई थी जब पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद हाँसी के किले पर कब्ज़ा कर देपल रियासत में गठवाला जाटों ने फिर से खुद को स्वतंत्र राज्य घोषित किया| शास्त्री जी के अनुसार गठवालों के अमर ओजस्वी सिंह सुरमा प्रतापी दादा महाराज जीवन सिंह जाटवान गठवाला के जौहर से यह किस्सा जुड़ा है|
तीनों में से कारण जो भी रहा हो परन्तु एक बात तो स्पष्ट उभर कर आती है कि "मलिक" उपाधि का मिलना दूसरे धर्म के लोगों द्वारा गठवाला जाटों को अपने बराबर/ऊपर का मानना था, क्योंकि अरब साहित्य व् देशों में "मलिक" उपाधि समाज के सर्वोच्च, नेक व् साहसी लोगों के लिए बताई गई है|
- मलिक जाटों की निकासी गढ़-ग़ज़नी की है: दादा बताते हैं कि गठवाला जाटों के पुरखे दादा मोमराज जी, गढ़-ग़जनी (उस वक्त अफ़ग़ानिस्तान भारत का ही हिस्सा होता था) की रियासत में सेना में वरिष्ठ पद पर थे| वहाँ रहते गज़नी की महारानी व् उनका प्रेम संबंध हो गया और दोनों ने ब्याह रचा लिया| इस पर ग़जनी का सुल्तान भड़क उठा और दोनों को कैद में डाल दिया| तब कैद से निकलने हेतु दादा बाढ़ला पीर जी ने उनकी मदद की| फिर वहाँ से चलकर दादा मोमराज जी व् दादी महारानी ग़ज़नी, गोहाना के पास “कासंढा” आ गए; जहां वो 2-3 साल रहे| फिर कासंढा से उल्हाणा और उल्हाणा से मोखरा आये| और ऐसे समय के साथ मलिक जाटों का आगे फैलाव होता गया|
24 अक्टूबर 2014 की वार्ता में आपके बताये तथ्य इस प्रकार हैं:
अपने इतिहास व् गाँव के गौरव को मेरे जरिये दुनिया तक पहुंचाने का दादा का जज्बा व् जोश इसी बात से देखा जा सकता था कि तेईस को मुझे किसी काम से बाहर जाना हो गया तो दादा उस दिन गाँव के दूसरे कोने से मेरे घर आ के मेरी गैर-हाजिरी लगा गए और चौबीस को भी सुबह दस बजे आ गए और दादा को दूध-नास्ता देने के साथ ही हमारी चौबीस की वार्ता शुरू हुई, जो इस प्रकार रही:
- गाँव के खाप और तपे बारे पूछने पर दादा बताते हैं कि अमर बलिदानी दादा भूरा और निंघाहिया के जमाने तक तो 'लजवाना' हमारा तपा रहा, उनके बाद से नन्दगढ़ (चुडाली) हमारा तपा है, जिसमें खेड़ी, भैरू खेड़ा, ढिगाना, निडाना, सिंधवी खेड़ा, निडानी, पड़ाना, शामलो, गोंसाई खेड़ा, गतौली, रामकली, जै-जैवन्ती, पाथरी, पाण्डु-पिंडारा, छोटी-बड़ी बराह, सुंदरपुर व् ललितखेड़ा गाँव आते हैं| खाप हमारी गठवाला है, जिसका मुख्यालय उल्हाणा गाँव में और दूसरा प्रमुख व् पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुख्यालय लिसाढ़ गाँव, जिला शामली में है|
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गाँव के पान्नों, ठोलों व् ढ़ूँगों बारे पूछने पर दादा बताते हैं कि इनमे पान्ना सबसे बड़ा होता है, उसके अंदर ठोला आता है और ठोले के अंदर ढूंग होती हैं| हमारे गाँव की यह व्यवस्था समझनी है तो नंबरदारी सिस्टम के तहत समझनी होगी| दादा बताते हैं कि हमारे गाँव में ग्यारह नंबरदार हैं और अमूमन एक ठोले पे एक नंबदार होता है| फिर दादा ने गाँव की नंबरदारी के हिसाब से बताया कि जाटों में 9 नम्बरदार हैं, ब्राह्मिणों व् चमारों में एक-एक| इनके ठोले और ढूंग इस प्रकार हैं:
- घरद्याला ठोला – दादा लछमन से नंबरदारी शुरू हुई|
- उन्ह्यान ठोला – स्वरुप सिंह नम्बरदार परिवार|
ढूंग:
1) भजन, रुलिया, हरपत
2) बालू
3) घड़गे, मुंशी भुगड़ा, प्रह्लाद, स्वरुप सिंह, मुकन्दी
4) भानू, ठोईया, जुगला
5) ज्वाला (बेऔलादा)
- चेतू ठोला – दादा रामफल बांडा नम्बरदारी परिवार
ढूंग:
1) शद्दा: धूपल, शेरा बांगा (सतपाल), मखा, सहीराम (स्वामी रतन देव), दादी घसो आली परिवार
2) कल्लू: नन्नू बाबडिया, बुल्ला
3) मुकन्दी, बोहना
4) जाती - पल्ला
5) तोता (बेऔलादा – चेतु के आधे का हकदारी)
6) बदलू (सेठ के दादा), मोखा (मान्ना के दादा), चुनी (चन्दर – खलड़ीए)
7) झुर्री, जागर (स्कूल दान देने वाले दादा), जहाज, रामचंद
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रघुनाथ ठोला – मन्नी नंबरदार
ढूंग:
1) गंडे: दुन्नी, द्योला, मनफूल, हवा
2) मन्नी: देशा (श्योकरण बोली)
3) भैड़े
4) फ़ाददु
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गड्डू ठोला - शेर सिंह नम्बरदार
ठकुरिये
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भंता ठोला – भरथा नंबरदार (मास्टर रतन सिंह परिवार)
ढूंग:
1) गुलाब
2) ज्ञानी, ह्रदया, लालू
3) मेदा, जयकरण, सुल्तान, नाथू
4) भोले
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कटारु ठोला – इन्दर सिंह नम्बरदार – हरजस परिवार
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मलवा ठोला – रण सिंह - श्योदाल परिवार
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काले ठोला – महा सिंह नंबरदार
ढूंग:
1) कूड़ा: महा सिंह
2) बेल सिंह: पाल्ले, इंद्र (रण सिंह), मीठिया (बलवान-महावीर)
- दादा ने एक नम्बरदारी ब्रह्मिणों में बताई, जिसका परिचय इस प्रकार है:
शोभा नम्बरदार – हरद्वारी परिवार
ढूंग:
1) मोहनलाल
2) कोकोबगडी
3) कोड़ा
- व् ग्यारहवीं नम्बरदारी चमारों यानी रविदासियों में दादा चतरा के परिवार में बताई|
- दादा ने गाँव में कुल 2 पान्ने बताये जिनमें एक सांझरण (मलवा समेत) व् दूसरा लखमीर (चेतु-रघुनाथ-गड्डू-भंता-कटारु समेत) हैं|
- दादा द्वारा निडाना गाँव एवं गठवाला जाटों बारे बताये कुछ ऐतिहासिक किस्से:
- निडाना - किनाना भाईचारा – दादा सैय्या जी (राहतास में दादा मौजी के दादा) की भैंस को किनाना के रांघड़ खोल ले गए (यानी चोरी कर ले गए)| दादा सैय्या जी बाबा का भेष बना के भैंस का भेन्त ले के आये; भैंस रांघड़ के यहां ही बंधी मिली, और आते वक़्त आधी रात को विरोधी का जबड़ा उखाड़ के (यानी सबक सीखा के) भैंस ले आये| रांघड़ वापिस भैंस पे हक जमाने आया तो ब्राह्मण गौरी दत्त (हरद्वारी लेन) को मिल गया| दादा गौरी दत्त ने भैंस के बदले गाँव का टामक उठवाने का लालच दे कि तू भैंस के बदले टामक ले जा, इसकी कीमत में चार-पांच भैंसे आ जाएँगी; रांघड़ को गाँव की कच्ची परस में टामक उठाने को चढ़ा दिया| और बाहर आकर शोर करने लगा कि परस में कोई अनजान परछाई है और शायद कोई चोरी करने आया है| अब टामक ठहरा सारे गाँव की अमानत और शान, इससे पहले कि कोई स्याना बुजुर्ग आके मामले को देखता, लोगों ने इकठ्ठा हो उसको पकड़ा और पीट-पीट के मार दिया| इस पर रांघड़ों ने निडाना में पंचायत रखवाई, और "लोटा नूण डाल के" रांघड़ों ने स्पथ ली कि भाई नूण की तरह पिघल जायेंगे अगर निडाना से भाईचारा तोडा तो| और इस तरह उस दिन के बाद से निडाना से किनाना रियासत का भाईचारा शुरू हुआ| उस जमाने की सिवाना-किनाना व् सेहरडा निडाना के चारों ओर रांघड़ रियासतें होती थी और बीच में अकेला स्वछंद गाँव निडाना|
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रांघड़ों ने कभी नहीं रोका गठवालों की बारातों का धौंसा: दादा बताते हैं कि यूँ तो पहले से ही कभी नहीं रोका गया था, लेकिन कलानौर व् सेहरडा की रियासतें (लेखक के संज्ञान से 1600 ईस्वीं के आसपास) जब गठवाला जाटों ने तोड़ी तो उसके बाद पूरे हरयाणा और उत्तरी भारत में गठवाला जाटों की टौर बोलने लगी| आलम यह था कि दूसरे समाजों-जातियों वाले भी गठवालों का नाम ले के मुस्लिम रांघड़ों की रियासतों-गाँवों के आगे से अपनी बारातों में धौंसें बजाते हुए निकल जाते थे|
रांघड़ मुस्लमान गठवाला जाटों को अब पहले से कहीं ज्यादा मानने लग गए थे| ऐसा ही एक वाकया सुनाते हुए दादा बताते हैं कि बिटाणा से एक जनेत (जनेत की जाति व् गोत्र, जाती व् गोत्र की मर्यादा व् सामाजिक मान को बचाने हेतु छुपा रहा हूँ) भराण (अजायब-भराण, महम के पास) गई थी| तो इस बरात में मुस्लिमों की बैंसी से गुजरते हुए, एक मिरासी ने वहाँ धौंसा बजा दिया| इस पर बैंसी के रांघड़ बोले कि किसकी बारात है| तो एक स्याणे ने परिस्थिति को भांपते हुए कह दिया कि गठवाले जाटों की| तो रांघड़ बोले, 'गठवालों का धौंसा किसने रोका, बढ़े जाने दो|'
लेकिन पीछे किसी नादान घोड़ी वाले ने बोल दिया कि यह उनकी नहीं अपितु फलानों (असली बरात की जाति और गोत्र छुपा रहा हूँ) की है| इस पर रांघड़ बोले कि ऐसा है तो यहां से आता हुआ आईये| और तुरंत रांघड़ों ने पंचायत करके भराण गाँव जहां कि बरात गई थी, वहीँ पहुंच के बैंसी में धौंसा बजाने का सबक सिखाने हेतु निकलने की बोल दी| तो दादा बताते हैं वो बारात वाले फिर वहीँ से आधे फेरे छोड़ के भागे थे| फिर दादा कहते हैं कि ऐसी धाक इतिहास में हमारी रही, शायद इसीलिए हमको "मलिक साहब" कहा जाता है|
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निडाना गाँव की परस में रखे होते थे तुरई-टामक: दादा बताते हैं कि पुराने जमाने में गाँव जब लड़ाइयों के लिए जाता था या अपने लड़ाके "धाड़ों" के खिलाफ अथवा खाप के बुलावे पे लड़ाइयों में भेजता था तो उनको तुरई-टामक बजा के नगाड़ों की गगनभेदी आवाजों के बीच विदा किया जाता था| इसके अलावा गाँव में धाड़ के चढ़ आने पर, गाँव को सूचना देने व् चेताने हेतु भी टामक बजा करता था|
दादा बताते हैं कि लाधू वाले जोहड़ पर एक बहुत पुराना और बड़ा ऊँचा बड़ का पेड़ हुआ करता था, जिस पर ज्योंडा (मचान) बनाई हुई थी| इस पर टामक धर के एक आदमी को बैठा देते थे, और गाँव के किसी भी ओर से चढ़ रही धाड़ देखते ही वो आदमी टामक पे डंडा मार देता था| इस काम के लिए रोज ठीकर निकाली जाया करती थी और जिसके बांटे ठीकर आती, उसी परिवार से एक आदमी यह ड्यूटी करता था|
बिना प्रयोग की अवस्था में टामक गाँव की सबसे पुरानी कच्ची छोटी ईंटों की परस रखा जाता था| और यह वही टामक था जिसको चुराने के चक्कर में किनानिया रांघड़ की जान गई थी|
विशेष: गाँव के इतिहास खोज का कार्य निरंतर प्रगति पर है, जैसे-जैसे नई जानकारियाँ मिलेंगी यहाँ अद्यतन की जाती रहेंगी|
जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर
सशब्द रूपांतरण: पी. के. मलिक
प्रकाशन: निडाना हाइट्स
प्रथम संस्करण: 08/11/2014
प्रकाशक: नि. हा. शो. प. |
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