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!!!......इस वेबसाइट पर जहाँ-कहीं भी "हरियाणा" शब्द चर्चित हुआ है वह आज के आधुनिक हरियाणा के साथ-साथ दिल्ली, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान को इंगित करता है| क्योंकि प्राचीन व् वास्तविक हरियाणा इसी सारे क्षेत्र को मिला कर बनता है, जिसके कि १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के बाद इस क्षेत्र को सजा स्वरूप व् खुद के व्यापारिक व् राजनैतिक हितों हेतु अंग्रेजों ने टुकड़े करके सीमन्तीय रियासतों में मिला दिए थे|........!!!
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लोकगाथाएँ
 
निडाना गाँव के ऐतिहासिक किस्से जो अब स्थानीय लोकगाथाएँ बन चुकी हैं

प्रस्तावना: निडाना गाँव के ऐसे किस्से जो आज किद्वन्ति बन चुके हैं, जिनमें रोमांच भी है, अपने खेड़े के लिए स्वाभिमान और अभिमान भी है, वीरता भी, चतुराई भी, कटुता भी, व्यंग्य और हंसी-ठिठोली भी। लेकिन इनमें ऐसा ख़ास भी बहुत कुछ है जो इनको ऐतिहासिक बनाता है, ऐसा तार-तम्मय जो इनको लोक-कथाओं का दर्ज दिलवाता है।

इनको मैंने बचपन में मेरे दादा-दादी की गोदियों में बैठ सुना था| जितना रोमांच, उत्कर्ष, अचंभित सा कर जाने वाला अहसास तब उनके मुख से सुनते हुए होता था, उससे कहीं ज्यादा आज जब वो दोनों पुण्यात्माएं स्वर्ग-सिधार चुकी हैं, इनको आमजन के लिए लिखते हुए हो रहा है। तन-मन के तार मेरी उँगलियों से भी तेज दौड़ना चाहते हैं और पलक-झपकते जितने क्षण में इनको लेखनी में तब्दील कर देना चाहते हैं। इनको अगर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचारित नहीं किया जाए तो गाँव की उम्र-पहचान-परिभाषा सब घट जाया करती हैं, धूमिल हो जाया करती हैं, गाँव मरण-सैय्या पे सोये समान हो जाता है। फिर यह तो एक नैतिकता के आधार पर भी मुझे करने की प्रेरणा मेरे दादा-दादी से ही मिलती है, वही प्रेरणा जिसके तहत उन्होंने मुझे ये किस्से सुनाये थे।

वो प्रेरणा कहती है कि यह खजाना मेरा नहीं, बल्कि मेरे पास तो मेरे पुरखों की वो धरोहर है जो रिले-रेस की उस बैटन की तरह होती है जो दौड़ का अपना हिस्सा पूरा होने पर आगे पास कर दी जाती है, तो मैं भी आज इसको आगे बढाते हुए, इन किस्सों को मेरे गाँव की आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए लिखने जा रहा हूँ।

इसमें और भी ज्यादा ख़ुशी इस बात की हो रही है कि अब इन किस्सों को सिर्फ मेरे गाँव के लोग ही नहीं अपितु इन्टरनेट पर जहां तक यह लेख जायेगा वहाँ तक जन-जन पढ़ेगा। जो धरोहर मेरे दादा-दादी संचार के सिमिति दायरे होते हुए मेरे या मेरे भाई-बहनों तक पहुंचा सके वो आज एक विशाल जन-समूह तक पहुचेंगे।

आज उन्हीं की जुबानी इनको यूँ-का-यूँ इस लेख में उतारूंगा| कहते हैं यही बातें तो एक गाँव के इतिहास-एकाकीपन-सुसंगठन को परिभाषित करती हैं। इसलिए आज शुरू कर रहा हूँ गाँव के इतिहास के वो पन्ने जो आज गाँव की लोक-कथाएं बन चुके हैं|

दादा-दादी द्वारा इन किस्सों को सुनाते वक्त लगाई सहिंता: किस्से लिखना शुरू करने से पहले कुछ ऐसे निर्देश जो मेरे दादा-दादी ने ये किस्से-कथाएं सुनाते वक्त मुझे निर्देशित किये थे वो बताना बहुत जरूरी है। इन कथाओं में कुछ ऐसे पहलु हैं जो उन्होंने सार्वजानिक स्थान पर लिखने/बताने के लिए कुछ सहिंताएं लगा के बताने को कहा था। क्योंकि इन किस्सों में कई बिंदु ऐसे हैं जिनमें कि वास्तविक पात्रों के नाम छुपाने जरूरी हैं, हालाँकि एक निडाना वाले के लिए एक निडाना वाले को बताते वक्त तो छुपाने जरूरी नहीं परन्तु अगर निडाना से बाहर भी अगर कोई उनको पढ़ेगा (जैसे कि यहाँ इन्टरनेट पर पढने वाले दोनों तरह के होंगे यानी निडाना के भी और निडाना से बाहर के भी) तो सामाजिक परिवेश को समझ कर ही इनको चर्चित किया जाना चाहिए|

उन्होंने यह भी कहा कि हालाँकि यह किस्से एक गाँव के आम किस्सों की तरह होते हैं और हर गाँव में ऐसे किस्से-कथाएं होती हैं जो सिर्फ उस गाँव के ही गौरव-अभिमान-स्वाभिमान
और पहचान से जुड़ी होती हैं। जो उस गाँव की चेतना में प्राण संचारित करती हैं, इसलिए उन्होंने मुझे सख्त निर्देश दिए थे कि इनको सिर्फ अपने गाँव पर गर्व या सहानुभूति से जोड़ के देखना और कभी भी किसी के आगे इर्ष्य-द्वेष के चलते मत कहना।इसलिए इन किस्सों को पढने वाला यहाँ से आगे बढ़ने से पहले यह जरूर समझ ले कि यह किस्से किस भावना व् उद्देश्य से लिखे जा रहे हैं अथवा लिखे गए हैं।

और अगर इस लेख को कोई निडाना से बाहर का इंसान पढ़ रहा है तो वो इस लेख को एक प्रेरणा की तरह ले और उनके अपने गाँव-गली-मुहल्ले-शहर के ऐसे ही किस्से याद करते हुए पढ़े तो स्वयं को लेख से ज्यादा जुड़ा हुआ व् पढने में आनंदायक महसूस करेगा।

हाँ अगर कोई इसको लेखक की अपने गाँव बारे शेखी बघारने वाली मंशा से पढ़ेगा तो वो निसंदेह इस लेख का आनंद नहीं उठा पायेगा, इसलिए अगर पाठक स्वयं को इस मंशा से रिक्त रखते हुए इस लेख को पढने में असमर्थ है तो वह यहीं से लौट जाए, आगे का आनंद व् विस्मय दोनों ही निसंदेह आपके/उसके लिए नहीं है|

लोककथा 1:- किठाना गाँव वाले आज भी निडाना में रिश्ता नहीं करते|


अतिश्योक्ति - ज्यादा खाने से जुड़ा किस्सा

गाथा क्यों बनी: गाँव के स्वाभिमान व् हास्य से जुड़ी होने के कारण

व्याख्या: बात तब की है जब 1868 में ललित-खेड़ा निडाना से अलग हो नया-नया गाँव बना था, तो किठाना गाँव (जिला कैथल, हरियाणा) में एक साथ दो लड़कों के रिश्ते हुए, एक निडाना से और दूसरा ललित खेड़ा से। ललित खेड़ा की बारात पहले जानी थी और बाद में निडाना की। क्योंकि दोनों गाँव के बड़ेरे एक रहे हैं और ललित खेड़ा की निकासी निडाना की होने के कारण दोनों गाँव आपस में निडाना को बड़ा व् ललित खेड़ा को छोटा गाँव बोलते हैं|

तो किस्सा ये हुआ कि छोटे गाँव की बारात ने आगे जा के कम खाना खाया तो किठाना वालों ने बरात के मखौल (हाँसी उड़ा ली) कर लिए और बारात की कम खाने की वजह से बारात की बेइज्जती हो गई।

तो छोटे गाँव की बारात यह कह के वापिस लौट आई कि "दो दिन बाद बड़े गाँव (निडाना) की बारात आएगी, थाह्मे उसका आग्गा ले लियो।" वापिस आने पर छोटे गाँव की बारात का किठाना में दिया गया चेतावनी के लहजे वाला संदेशा निडाना आया|

क्योंकि छोटा गाँव बड़े गाँव के भरोसे धोंस जमा के आया था तो अब बात पूरे गाँव पे आ गई। तो गाँव वालों ने बारात के लिए छंटे और माने हुए खाने वालों को बरात का न्योंदा दिया और निडाना की बारात किठाना पहुंची|

उस जमाने में पत्तल में खाने परोसे जाते थे और जैसे गुरुद्वारों में धरती पर बैठ लंगर खाए जाते हैं, ऐसे ही बरात जिमाई जाती थी| बरात का भोज शुरू हुआ तो निडानियों नें सोची समझी, रणनीति के तहत सबसे ज्यादा खाने वाले आगे वाली पंक्ति में बैठा दिए। अब परोसने वाले जो भी खाना लायें वो आगे वाली पंक्ति वाले ही चट कर जाएँ। जितना भी घी-बूरा (मीठा)- मिठाई या रोटी-सब्जी आती आगे वाली पंक्ति वाले चट कर जाएँ, पीछे वाली पंक्ति तक कुछ जाने ही ना दें। और ऐसे सारा खाना खत्म हो गया।

इस पर लड़की वालो ने हाथ जोड़ लिए और बोले कि "चौधरियो म्हारे तैं गलती हो गई माफ़ी द्यो"| और वो दिन है और आज का दिन, किठाना वालों ने कसम खा ली कि आज के बाद निडाना में ही रिश्ता नहीं करेंगे। और आज भी निडाना और किठाना में रिश्ते नहीं होते| पुराने लोग भी निराले ही होते थे|

विशेष: यह किस्सा किसी को छोटा या बड़ा दिखाने के लिए नहीं लिखा है, बल्कि यह दर्शाने के लिए लिखा है कि पुराने लोग कितने मखौलिये और सहनशील होते थे कि बैठे-बिठाए किस्से बन जाया करते थे और यह तो किस्सा ऐसा बना कि 140 साल के करीब होने को आये हैं पर आज भी ज्यों का त्यों चल रहा है|

By Sandeep Malik received on 30/08/13

लोककथा 2:- स्वर्गीय चौधरी निहाल सिंह की मृत्यु का किस्सा


अतिश्योक्ति - ना मरया रे सींक-पाथरी, ना मर या रे आहुलाणें-मदीणें, जा मरया रे बेटा गैभाँ के निडाणे।

गाथा क्यों बनी: आपकी मृत्यु को लेकर आपकी माता की अतिश्योक्ति वाली वो टिप्पणी जिसमें निडाना नगरी का जिक्र आया

व्याख्या: सफीदों के पास जागसी गाँव के नामी डाकू स्वर्गीय चौधरी निहाल सिंह (आम प्रचलन में आपको "निहाला जगसी आळा" बोलते थे) की मृत्यु का किस्सा है यह! आपकी वीरता और स्वाभिमान इसी बात से झलकता है कि जब आपकी मृत्यु हुई तो आपकी माँ ने कहा था कि: "ना मरया रे सींक-पाथरी, ना मर या रे आहुलाणें-मदीणें, जा मरया रे बेटा गैभाँ के निडाणे।"

और उनकी माता जी के ये बोल आज निडाना गाँव के लिए एक लोक्कोक्ति बन चुके हैं। इस किस्से में दो मुख्य बातें जानने की ये हैं कि एक तो उनकी मृत्यु निडाना में कैसे हुई, दूसरा उनकी माता के मुख से ये शब्द क्यों निकले?

चौधरी निहाल सिंह की मृत्यु का किस्सा: बात करीब पचास साल पुरानी है जब गावों में धाड़ पड़ जाया करती थी या डाली जाती थी। धाड़ें घोड़ों से सजी स्थानीय बागियों की वो फ़ौज हुआ करती थी जिसमें पचास से ले सौ-दो सौ-पांच सौ तक घुड़सवार होते थे। ये धाड़ें मुख्यत दो तरह की होती थी, एक वो जो अंग्रेजों और मुस्लिमों को लूटने-मारने के लिए बनाई जाती थी और दूसरी वो जो लूट-मार करके कमाया करती थी। निहाल सिंह का सीधा-सीधा किसी धाड़ से कोई वास्ता नहीं था या था इसपे आज के दिन स्थिति स्पष्ट नहीं, परन्तु वीरता-विलक्षणता और चतुराई में आप बड़ी-बड़ी धादों के सरदारों पर भी भरी पड़ते थे और कई धाड़ों की निगाहों तले से धाड़ों द्वारा अंग्रेजों-मुस्लिमों का लूटा हुआ खजाना निकाल ले जाने के लिए मशहूर थे।

किसी धाड़ या समकक्ष समूह से सीधे तौर से ना जुड़े होने की वजह से और संगठन ना बनाने की वजह से आपको किसी धाड़ ने मान्यता नहीं दी वरन आप उनकी आँख की किरकिरी बन गए थे।

लूटे हुए माल का आप क्या करते थे इसपे कई मत हैं, कोई कहता है कि उसको गरीबों में बाँट देते थे तो कोई कहता कि सिर्फ जरूरतमंदों को देते थे, परन्तु इतना निश्चित है कि उस धन का व्यय होता भलाई की कार्यों में था|

अब चूंकि आप बहुतों की आँख की किरकिरी बन चुके थे इसलिए आपकी मृत्यु के षड्यंत्र चहुँ और से हो रहे थे और उसकी पृष्ठभूमि जा के बनी निडाना गाँव की धरती|

मेरी दादी ने मुझे आपका किस्सा बताते हुए बताया था कि आप निडाना गाँव में एक बारात में आये हुए थे और उसी बारात में पीछे से ही आपको मारने की साजिस लिए भी एक गिरोह पहचान छुपाकर घुसा चला आया था, जिसके जिम्मे आपको मारने का बीड़ा था| क्योंकि आप बेहद ताकतवर व् निपुण लड़ाके और योद्धा थे इसलिए कोई भी आपसे सम्मुख हो मोर्चा नहीं ले पाता था इसलिए आपको रात के समय सोते हुए मारने की साजिस रची, जिसका पटाक्षेप कि आपकी मृत्यु के बाद हुआ और बाराती खुद हैरान हुए कि इस बारात में ऐसा बड़ा खेल भी चला आ रहा था|

तो आपपे निशाना लगाए बैठे लोगों ने निर्धारित किया कि आपके एक नजदीकी (जिसका कि नाम मेरी दादी ने नहीं बताया, शायद उनको याद नहीं होगा) उसको पठाया गया और निर्धारित हुआ कि जिस खाट पर निहाला सोयेगा, वह नजदीकी उस खाट पांद पर चुपके से आपकी जूतियां रखे देगा और उनको इशारा कर देगा कि अब आप गहरी-निंद्रा में सो गए हो|

और क्योंकि आप पर पीछे से ही घात लगाकर आये लोग अपने साथ हल की फाल को लुहार से तेज धार लगवा कर लाये थे (जिसकी पुष्टि कि बाद में लुहारों ने करी थी कि यह फाली ताजा-ताजा धार लगाई हुई है) उस नजदीकी का इशारा पाते ही इस बात का इंतज़ार करने लगे कि जो रहे-सहे बाराती हैं वो भी सो जाएँ (वैसे आप खुद बहुत देर से सोते थे, लेकिन जब होनी सर पे नाच रही हो तो किसी का काबू नहीं चलता)। तो जब सारी बारात सो गई तो उन्होंने जिस बन्दे को आपको मारने के लिए पठा रखा था उसने फाली उठाई और आपकी खाट (जिसकी पांदों पर कि जूतियां रख दी गई थी) की तरफ बढ़ा और बिना आपका चेहरा तक एक बार फिर से देख के सुनिश्चित करने के, आपके सीने व् पेट में दो बार पूरी की पूरी फाली उतार दी|

और आप मरते हुए यही कह पाये कि, "निहाले को मारने के लिए कुत्तों ने धोखे का ही रास्ता प्रणाया, काश! कोई माँ का लाल मुझे ललकार के मार पाता; एक यही अफ़सोस ले के धरती से जा रहा हूँ|"

इस पर जब यह सूचना आपकी माता जी तक पहुंची तो उनके मुख से यह पंक्तियाँ कर्कश ही फूट पड़ी: "ना मरया रे सींक-पाथरी, ना मर या रे आहुलाणें-मदीणें, जा मरया रे बेटा गैभाँ के निडाणे।"

अब इन पंक्तियों की व्याख्या: सींक-पाथरी जिला पानीपत में "मलिक" जाटों के बड़े गाँव हैं और "अहुलाना-मदीना" सोनीपत जिले में; जो कि अपनी संख्या, बाहुबल और उद्द्ण्डता के लिए मसहूर थे, जबकि निडाना गाँव एक "गैभ" यानी एक जगह बस कर खेतीबाड़ी से गुजर-बसर करने और पहले किसी पर हमला ना करने वाला गाँव था और आज भी है (हालाँकि कि अगर किसी ने पहले हमला किया तो उसको जवाब भी उतने ही तुरंत और जायज दिए हैं निडाना ने, परन्तु पहले किसी को नहीं सताया, इसीलिए "गैभ" कहलाया)| इसलिए उनकी माता श्री ने कहा कि उस न्यडाणे में जा प्राण त्यागे रे लाल जो काली गौ को भी कष्ट ना होने दे, मुझे यकीन नहीं होता|

और तभी से आजतक यह कहावत निडाना को लेकर मसहूर है|

लोककथा 3:- धाड़ द्वारा निडाना का पशुधन चोरी कर ले जाना

अतिश्योक्ति - थारै बिना थारी माँ न्यूं रोवैंगी, ज्युकर निडाना म्ह आज बिना माँ के काटड़ू-बाछड़ू रंभाण लाग रहे सैं!

गाथा क्यों बनी:
सम्पूर्ण गाँव द्वारा गाँव के सम्मान हेतु हुए युद्ध के कारण|

व्याख्या: सम्पूर्ण किस्सा यहां पर क्लिक करके पढ़ें

निवेदन: हम निडाना से सम्बन्ध रखने वाले हर जाति-धर्म-लिंग-समुदाय के शख्स (महिला-पुरुष दोनों) से निवेदन करते हैं कि अगर आप भी अपने गाँव के किसी भी ऐसी ही विलक्षण ऐतिहासिक गाथा-लोकगाथा-कथा-किदवन्ति के बारे में जानते हैं तो हमें जरूर बताएं| अपने गाँव की हर ऐसी कहानी प्रदर्शित करने से ही हमारा निडाना हाइट्स बनाने का उद्देश्य सार्थक होगा| आप हमें इस पते पर मेल कर सकते हैं: admin@nidanaheights.com आप चाहें तो उस इंसान की फोटो, विडियो भी हमें भेज सकते हैं|



जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  

लेखक: पी. के. मलिक

दिनांक: 05/09/2014

हवाले से:
  • संदीप मलिक
  • फूल कुमार मलिक
  • NH सलाहकार मंडल

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