कात्यक साहित्य/दोहे:
कात्यक की रुत आ गई
कात्यक मै काई छँटी, निर्मल होगे ताल,
कंठारै गोरी खड़ी, जल मैं दमकैं गाल
कट्या बाजरा काल्ह था, आज कटैगी ज्वार,
उड़द-मूँग-त्यल पाक गे, हर्या-भर्या सै ग्वार
मैं तो इस क्यारी चुगूँ, तूँ उसकी कर ख्यास,
नणदी तेरे रूप-सी, सुधरी खिली कपास
पके धान के खेत नै, प्यछवा रही दुलार,
स्योनै की क्यारी भरी, धरती करै सिंगार
बाँध सणी के घूंघरू , धर छाती बम्भूल,
कात्यक की रुत आ गई, दुख-दरदाँ नैं भूल
दिन ढलदें उडकै चली, जब सारस की डार,
धान्नाँ आलै खेत मैं, उट्ठैं थी झनकार
मीठी कचरी फल रही, थलियां आलै खेत,
मीठी ठ्यारी आ गई, ठंडी-ठंडी रेत
मनै दिवाली खूब गी, दीव्याँ की रुजनास,
हीड़ो- कप्पड़ बाल़, कर गाल़ा मैं परकास
खील-पतासे थाल भर, लिया गोरधन पूज,
माँ-जाया जुग-जुग जियो, परसूँ भैया दूज
सारी छोरी गाल़ की , जावैं कात्यक न्हाण,
भजन राम के गा रही, सुख राखैं भगवान
चोगरदै गूँजण लगे, 'दे' ठावण के गीत,
कात्यक की इस ग्यास नै, सारे अपणे मीत
बीत्या कात्यक मास जा, लगी कूँज कुरलाण,
बाल्यम बसे बिदेस मैं, कूण बचावै ज्यान
खेताँ मैं म्हारे राम जी, खेताँ मैं भगवान,
खेताँ मैं सै द्वारका गढ़-गंगा का न्हाण
कुछ दिन मैं कोल्हू चालैं गुड़गोई के ठाठ,
भेली पै भेली बणैं, बजैं ताखड़ी-बाट
लेखक: प्रोफेसर राजेंद्र गौतम (26/10/2013)
कात्यक के लोकगीत:
सींटणे: दे-उठणी ग्यास कै आन्दे-ए ब्याह के साह्याँ म्ह फेरयाँ पै जणेतियाँ तान्हीं दिए जाण आळए किमें सींटणे:
- हमनै बलाए लांबे-लांबे,
छोटे-छोटे आये री बछेरे!
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बाज्या-ए-नंगाडा फलाणे का, म्हारै बयाह्वण आये,
आपणी बेबे नै छोड़ कें म्हारै ब्याहवण आये!
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बड़ा पढ़या ओ दादा बड़ा पढ़या,
मार फलाह्री गधे चढ़या!
-
फलाणे तेरी रे बेबे ब्याहिये,
फेरां पै फूल बखेरिये!
-
हमनै बलाए भूरे-भूरे,
काले-काले आए री पस्सेरे ठठ्ठे आये री पस्सेरे बछेरे!!
-
के मौसा जी थामे गाम गए थे, के ब्हाओं थे गाड्डी हो,
बन्दडा सुथरा, पुराणा शेहरा, डूब मरे थारे भाती हो!
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म्हारी बन्दड़ी इस्सी खड़ी जाणू महल्या म्ह राणी खड़ी,
थाहरा बन्दडा ईसा खड्या जाणू कुर्डीयाँ म्ह गधा खड्या!
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खोल ऊतणी के कांगणा,
खोल बेशां की कांगणा!
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खिंडगी काक्कर-खिंडगे रौड़,
खिंडगी जणेतियो थारी मरोड़!
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चुग ले काक्कर-चुग ले रोड़,
चुग ले मौसा तेरी मरोड़!
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धोळी ह्वेली म्ह मोग ए मोग,
बन्दडे की बेबे के लोग-ए-लोग!
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धोळी ह्वेली मोग बन्या,
बन्दडे की बेबे लोग बना!
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पटडी ए पटड़ी मुस्सी जा, बन्दडे की बेबे रूस्सी जा,
कान पकड़ कै लयावांगे, म्हारे वीर कै ब्याह्वांगे!
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आधी रोटी खांड बन्या,
सारे जनेती रांड बना!
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फलाणे बेबे नै समझा ले हो, काब्बळइ चाल्दी,
साड्डे लाम्बे-लाम्बे तूत, तूतां पै चढ़ी!
कात्यक न्हाण का सबतें बड्डा लोकगीत:
राम अर लछमन दशरथ के बेटे, दोनूं बणखंड जां,
हे री कोए राम मिले भगवान!
एक बण चाल्ले दो बण चाल्ले,
तिज्जै बण लग आई प्यास,
हे री कोए......
छोटे से लड़के गऊ चरावैं,
पाणी पिलाओ नन्दलाल,
हे री कोए......
ना कोए कुआँ, ना कोए जोहड़,
ना कोए सरवर-ताल,
हे री कोए......
ना कोए लोटा, ना कोए बाल्टी,
कैसे पिलावैं नन्दलाल,
हे री कोए......
सीता के बागाँ तैं उठी बदळीया,
बरस रही झड़ लाय,
हे री कोए......
भर गए कुँए, भर गए जोहड़,
भर गए सरवर-ताल,
हे री कोए......
किसके बेटे, किसके पोते,
कौण तुम्हारी मात,
हे री कोए......
पिता अपणे का नाम ना जाणां,
सीता हमारी मात,
हे री कोए......
ले चलो रै लडको उन गळीयाँ,
जिन गळीयाँ तुम्हारी मात,
हे री कोए......
सीता खड़ी-खड़ी केश सुखावै,
हरे बिरछ की ओट,
हे री कोए......
ढक ले री माता केश अपणों नैं,
बाहर खड़े श्री भगवान,
हे री कोए......
इसे भगवान का मुख ना देखूं,
जिसनें दिया बणवास,
हे री कोए......
इसे पति का मुखड़ा ना देखूँ,
धरती म्ह जाऊं समाय,
हे री कोए......
पाट गई धरती, समां गई सीता,
खड़े लखावैं श्री राम,
हे री कोए......
समांदी-समांदी का छोटा पकड़ा,
केशों की बण गई डाभ,
हे री कोए......
चाँद-सूरज के गहण होवैंगे'
जय्ब चाहिएगी डाभ,
हे री कोए......
कात्यक में किसान के दर्द और हालात अंकित करती कवी ज्ञानीराम जी की एक लोक-रागणी:
कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का -
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही -
हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही ।
हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही -
भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही ॥
चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का -
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥
सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे -
दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे ।
बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे -
मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे ॥
एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का -
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥
दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये -
माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये ।
माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए -
फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए ।
तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का -
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥
ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया -
भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया !
देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया -
छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया ।
कहै ज्ञानीराम थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का ।
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥
कात्यक कविता:
"हीड़ो रै हीड़ो"
हीड़ो रै हीड़ो, आज ग्यरड़ी तड़कै द्यवाळी हीड़ो रै हीड़ो|
गाम जळआवै गादड़ की पीढ़ी, रोशनाई चढो रे चढो||
पंढे-बास्सण ले-ल्यो नए, घर के भाग खुल ज्यां ठये,
तिजोरियां पै चुग्गे बळएं, लछमी खूब-ए-खूब फळऐ|
पयत्राळ-मोरी पै जो धरें, घर के भाग फिरें-ऐ-फिरें,
धनभाग कुम्हार तेरा चाक हो, जिसपै यें ख़ुशी घड़ें||
माट्टी च्यकणी जोहड़-डहरां की, बीनो-रै-बीनो,
हीड़ो रै हीड़ो, आज ग्यरड़ी तड़कै द्यवाळी हीड़ो रै हीड़ो|
गाम जळआवै गादड़ की पीढ़ी, रोशनाई चढो रे चढो||
या गांडळी मरदो त्यरे ना की, बेदु आळी पाळ बंटी,
रोज चंदे मोरां के चुगे, जिनतें इसकी ग्याँठ बुणी|
टंकार-घुंघरू बळधां के, गेल जूटी थी दो-च्यार सणी,
जोहड़ नुहाऊं गात चमकाऊं, के रूंडी-खुंडी के रोजणी||
तेल लाऊं सीन्गां कै, गांडळी मोर-फुल्लां की गळ म्ह बिणी,
गामी झोटे-खाग्गड़ के घेट भी, कान्नां लग जां ल्य्दो-ल्य्दो|||
हीड़ो रै हीड़ो, आज ग्यरड़ी तड़कै द्यवाळी हीड़ो रै हीड़ो|
गाम जळआवै गादड़ की पीढ़ी, रोशनाई चढो रे चढो||
द्यवाळी का दयन बताया, खेतां तें पहला गंडा पाड़ण का,
समाई का फळ यू गंडे की म्यठास म्ह लबड़-लबड़ सुर्डाणे का|
सांझी दशेरे नै जो बुहाई, भाई गेल्याँ उसनै उलटी मोड़ण का,
कायत्ग के गीतां की गूँज म्ह, दशरथ के पूताँ नैं टोह्वण का||
हे-माँ-मेरी, हे-माँ-मेरी, हे-जी मन्नै राम म्यले स्यमाणे गूंजो-हे-गूंजो,
हीड़ो रै हीड़ो, आज ग्यरड़ी तड़कै द्यवाळी हीड़ो रै हीड़ो|
गाम जळआवै गादड़ की पीढ़ी, रोशनाई चढो रे चढो||
गाळआं चढु अल्ल्हड़ भरूँ, टोळआं के टोळआं म्ह,
हीड़ो आळी ज्योत चढ़ी बळऐ, ज्यन्दगी धक्कम पेल म्ह|
जो च्य्ढ़ ज्या पार उतर ज्या, दुनियादारी की रोळ म्ह,
हीड़ो-रै-हीड़ो जो गाळ म गूंजी, जा मिली नभछोर म्ह||
फुल्ले-भगत नैं छोड्डी फुलझड़ी, खूब चसो-रे-चसो,
हीड़ो रै हीड़ो, आज ग्यरड़ी तड़कै द्यवाळी हीड़ो रै हीड़ो|
गाम जळआवै गादड़ की पीढ़ी, रोशनाई चढो रे चढो||
लेखक: फूल कुमार (25/10/2012)