"या तो इन पशुओं को वापिस छोड़ आओ, वरना जैसे ये पशु-माएं अपने बच्चों की विरह में रम्भा रही हैं, तुम्हारी माताएं भी तुम्हारे बिना वैसे ही रम्भाएंगी (रोयेंगी)"
हरियाणवी संस्कृति का वो किस्सा जिसमें वीरता, गौरव व् लोकतांत्रिकता भरी है| "धाड़" हरियाणा की ऐसी संस्कृति जिसमें रहस्य, रोमांच, जासूसी, धूर्तता, भयावहता, लोकतांत्रिकता, मानवता व् वह सब कुछ होता था जो एक समृद्ध संस्कृति कहलाता है|
पुराने जमाने में हरियाणा यानि खापलैंड
(आज का हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरी राजस्थान व् उत्तराखंड) में दो तरह के गाँव यानी
"गैभ" गाँव और
"ऐब" गाँव हुआ करते थे|
"गैभ" गाँव वो होते थे जो अमूमन ईमानदारी से खेती करके, एक ठिकाने पर टिक के कमाते थे और बसते थे, और किसी अकस्मात मुसीबत से बचने हेतु जाटों व् दलित जातियों के पहलवानों से सुसज्जित लड़ाकू दस्ते रखते थे, जो कि मुख्यत: गाँव की सुरक्षा व् खापों के बुलावे पर खापों की लड़ाइयों के लिए जाया करते थे; जैसे कि हरियाणा के जींद जिले का निडाना गाँव; जिसके बारे कि यह किस्सा है|
और जैसा कि नाम से पता चलता "ऐब" यानी "ऐबी" यानी बदमाश गाँव, यह ऐसे गाँव होते थे जो कि 50 से 500 घोड़ों के लश्कर रखा करते थे और रात के अंधेरों में या मौके की ताक के अनुसार "गैभ" गाँवों पर हमले बोलकर वहाँ से जेवर-रुपया-अनाज व् पशुधन जो हाथ लगता लूट लाते थे| और यही इनके रोजगार का मुख्य जरिया हुआ करता था|
ये धाड़ें जिधर से भी निकला करती थी, घोड़ों की पदचापों से, रेत भरे ग़मों (कच्चे रास्ते) से उठती धूल के गुभार गगन चूमा करते थे और घोड़ों के हिनहिनाने की आवाजें दूर से महाकाल के आने का ऐसा ही दृश्य प्रस्तुत किया करती थी जैसा कि "Gladiator" फिल्म में मैक्सिमस के घर को तबाह करने जाते दस्ते की भयावह पदचाप व् वातावरण|
ऐसा ही एक वाक्या एक बार निडाना व् एक ऐबी गाँव के बीच हुआ था (आज इन दोनों गाँवों के सुरक्षा व् सद्भाव को मद्देनजर रखते हुए इस गाँव के नाम को मैं गोपनीय रखना चाहूंगा, लेकिन इतनी सत्यता जरूर है कि आज भी उस गाँव और निडाना के बीच वैवाहिक रिश्ते नहीं होते|)|
आज से कोई साठ साल के करीब पुरानी बात है कि इस ऐबी गाँव ने निडाना गाँव पर धाड़ डाल दी, धाड़ डालने का मतलब अपने घोड़ों के लाव-लस्कर के साथ गाँव को लूटने के लिए हमला किया| और हमला शाम के वक्त का था, जब गाँव के गौरों (तालाबों के किनारों पशुओं के बैठने की जगह) पर गाँव का अधिकतर पशुधन ले पाली (चरवाहे) बैठे थे| हमला हुआ तो धाड़ इतनी बड़ी थी कि पाली अपने पशुधन की रक्षा नहीं कर सके, और धाड़ अधिकतर दुधारू पशुओं को हाँक ले गई, लेकिन उन पशुओं के बच्चे यानी काटड़ू-बाछड़ू गाँव के दरवाजे-दहलीजों में बंधे हुए थे इसलिए वो सिर्फ उनकी माँओं को ले जा पाये| |
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धाड़ लगाने को बढ़ते घुड़सवारों का वृत्तचित्रात्मक चित्रण |
इधर जब शाम को दूध दोहने का वक्त हुआ तो सारे बाछड़ू-काटड़ू भूख से रम्भाने लगे और उधर उस ऐबी गाँव में उनके बच्चों के बिना उनकी माएँ भी रम्भाने लगी| तो उन पशुओं की यह हालत देख कर उस गाँव में जितनी भी निडाना गाँव की बेटियां ब्याह रखी थी उनसे रहा नहीं गया और अपने-अपने पतियों व् ससुरालियों से निडाना के पशुधन को वापिस करवाने की गुहार लगाई| परन्तु वो लोग नहीं माने तो उन बेटियों ने कहा कि,
"या तो इन पशुओं को वापिस छोड़ आओ, वरना जैसे ये पशु-माएं अपने बच्चों के बिना रम्भा रही हैं, ऐसे ही तुम्हारी माएं तुम्हारे बिना रम्भाएंगी (यानी रोयेंगी), क्योंकि निडानिए चढ़े आते होंगे अपने पशुधन को छुड़ाने|" लेकिन उन लोगों ने अपनी पत्नियों यानी निडाना की बेटियों की नहीं सुनी|
उधर इस अचानक हमले से और अपने पशुधन के ऐसे लूट लिए जाने से निडाना गाँव पशोपेश में था, गाँव का पहलवानी दस्ता ऐबी गाँव पर हमला करने को उतारू हुआ जा रहा था, पंचायत-पे-पंचायतें, मंत्रणाओं पर मंत्रणाएँ और संदेशों के आदान प्रदान हो रहे थे; लेकिन पंचायत ने पहलवानी दस्ते को आखिरी तैयारी के आदेश दे दिए थे और जैसे ही आखिरी संदेशवाहक मान-मनुहार की कोशिश हेतु ऐबी गाँव से नकारात्मक सन्देशा लाया तो निडाना ने ऐबी गाँव पर हमला करने की ठान ली|
और
"जय दादा नगर खेड़ा" का उद्घोष कर पहलवानी दस्ता हो घोड़ों पर सवार, चला अपने पशुधन को ऐबी गाँव से वापिस लाने| मेरी दादी बताती थ कि पोता हमला इतना जबरदस्त हुआ कि ऐबी गाँव में जो बात हमारे गाँव की बेटियों ने उनके पतियों को समझाई थी वो घटी, यानी कोई-कोई घर ही उस गाँव का ऐसा बचा था जहां निडानियों के हमले की वजह से वहाँ की माएं अपने बेटों की मृत्यु व् विरह में ऐसे ही ना रम्भाई हों जैसे कि वहाँ हमारा पशुधन रम्भाया था|
तब दोनों गाँवों की पंचायतों पर पंचायतों के दौर चले और अंतत: गलती उस गाँव की पाई गई, जिससे कि खुंदक खाकर उस पूरे गाँव ने प्रतिज्ञा कर ली कि आज के बाद ना निडाना में बेटी देंगे और ना निडाना से बेटी लेंगे, यानी निडाना से भविष्य में दूध-खून के रिश्ते बंद| और वहीँ पंचायत में कह गए कि निडाना में जो भी हमारे गाँव की बेटी हो वह चाहे तो अभी हमारे साथ वापिस चले, हम इस गाँव में ब्याही हमारी बेटियों को आज से तलाकशुदा अथवा विधवा मानते हैं और अपनी बेटियों से गुहार लगाते हैं कि वह वापिस अपने पीहर लौटें| वापिस लौटने पर हमारी बेटियों का वही अधिकार, मान-सम्मान होगा जो जाटों की खाप-सहिंता के अनुसार मान्य है, यानी तलाक के बाद पीहर में एक बेटी के जो प्रॉपर्टी व् गुजारे-भत्ते के अधिकार होते हैं वो सारे इन बेटियों को मिलेंगे|
इस फैसले से और दोनों गाँव में बने इस तनाव से कुछ लौट गई बाकी जो रह गई वो फिर कभी अपने पीहर नहीं जा पाई और उनके बच्चों के भात भरने भी ऐबी गाँव वाले कभी नहीं आये| उनके देवर-जेठ की ससुराल यानी देवरानी-जेठानी के मायकों से मामा बुलवा उनके भात की रश्में पूरी की जाती रही|
और ऐसे ही निडाना गाँव की बेटियों के मामले में हुआ जो उधर रह गई वो फिर कभी निडाना नहीं आई और जो आई उनको वही अधिकार मिले जो जाटों की खाप-सहिंता अनुसार मान्य होते आये|
और पाठको वो दिन है और आज का दिन, उस गाँव और निडाना के बीच वैवाहिक रिश्ते नहीं होते|
निडाना और धाड़ का जिक्र हो और दादा चौधरी प्रह्लाद का जिक्र ना हो तो बात अधूरी रहती है| दो पंक्तियों में उनसे जुड़े एक वाकये का परिचय देते हुए बाकी बात नीचे कविता में रखूँगा| गाथा यह है कि इन दादा ने 100 घोड़ों से सजी धाड़ को अपनी अदम्य साहसिकता के दम पर काली आधी रात में कैसे अकेले वापिस मोड़ दिया था| उनकी शौर्यता का आनंद इस कविता को पढ़ते हुए उठाइये:
‘सांझ का सीळआ, गाम-गमीणयाँ’
(दादा चौधरी प्रहलाद सिंह के जौहर को समर्पित)
सांझ का सीळआ, गाम-गमीणयाँ धमक चढ़ी जा हो,
दूर समांणयाँ धाड़ ठहर रही, कोडबै गाम ब्यछोय्याँ हो|
डांगर-ढोर, टूम-ठेकरी, हाथ लगै जो - साह्मर ल्याणा,
खून्नी जाळ बछ्या गाम पै, करड़ाई का धिंगताणा|
बादळ गरजें-बिजळी कड्कें काळी घटा घुमराई हो,
गादड़-रोवें कुत्ते-कुवावें, किसकी चढ़ी करड़ाई हो|
फेर दुज्जे पहर रात की धाड़ नै तैयारी ठाई हो,
न्यडाणे नै उजाड़-ल्यावा, बैरी नै न्यू प्रणाई हो|
धाड़ चढ़ती आवे बेटा, सीन्घां माटी ठाई रे,
भावड-आळए गमे म लखा मौत नाचती आई रे|
खड्या खेत म्ह प्रहलाद सोच रह्या, गाम-चढ़ाई होगी हो,
घाग लूटण चढ़ आया सै, सूते गाम का के राह हो|
इन ब्य्चारा डूबे प्रहलाद कै माथे त्योड़ी छाई,
कै मरणा कै मारणा, ना हो ज्या गाम-दुहाई|
सुनसाण स्म्यान्याँ फेर प्रहलाद नैं चौगरदे नजर दुड़ाई,
दूर लग ना बीज माणस का, अर करड़ाई भभांदी आई|
ले नाम न्यडाणा नगरी का, प्रहलाद नै भाला ठाया,
जा बड्या-भोज्ड़ा म्ह को, गमे की राह पै नजर टकायां|
धाड़ चढ़ रही-धूळ उड़ रही, सरण दे सी भाला सरणाया,
काळ बना लिया अगड़ी-घोड़े को, धाड़ नै धक्का खाया|
डेठ टूट गया-होंसला छूट गया, काळ पै काळ चढ़ आया,
«न्यडाणा सै थारी बाट म्ह-बैठा गमे की साथ म» धाड़ नै यू फ़रमाया|
बेरा कोन्या कितणे सें, या सोच धाड़ उलटे-पायां भोड़ी,
छैल-छबिल्ले सुरमे दादा, थाहमनैं ऐकले नैं धाड़ मोड़ी|
घाघाँ की कड़ तोड़ी, बड़े-बीर का मान षहमाया|
धन-धन हो जामण आळी तन्नैं गाम-रुखाळआ जाया|
तेरे न्यडाणा फेर आइये हो दादा, रंग-चा न्यू-ए लायाँ,
गा गाथा त्हारी फुल्ले-भगत की गद-गद होगी काया|
उद्घोषणा: हरियाणा की धरती पर हर गाँव के साथ ऐसे-ऐसे एक-दो-एक-दो किस्से तो काम-से-काम जुड़े पड़े हैं, कि जिनको कोई लिखने बैठे तो बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे जाएँ| उसी ग्रंथनुमा संस्कृति का एक छोटा सा अध्याय थी यह प्रस्तुति| प्रस्तुत कहानी सत्य घटना पर आधारित है व् यहां सिर्फ हरियाणवी संस्कृति की झलक हेतु प्रस्तुत की गई है|
जय दादा नगर खेड़ा – मेरे गाँव मेरे देश की यादों को समर्पित!