1. आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का। |
2. जवाब दियो म्यरे, धीरज तें |
3. फतूर मचा राख्या |
कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का,
आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का।
कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही...
हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही।
हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्यां कानी तैं टूट रही-
भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही॥
चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का-
आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का॥
सारे पड़ौसी बाळकां खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे-
दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे।
बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे-
मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे॥
एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का-
आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का॥
दोनूं बाळक खील-खेलणां का करकै विश्वास गये-
मां धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये।
मां बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए-
फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए।
तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का-
आंख्यां कै मांह आंसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामां सौदा ना थ्याया-
भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया!
देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया-
छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया।
कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का।
आंख्यां कै मांह आंसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
द्यनांक: 15/11/12
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मैं थारा वंशज सूं दादा, जवाब दियो म्यरे, धीरज तें,
नरम लक्ष्य (soft target) क्यूँ बणी खाप जो लोकतंत्र रही सदियाँ तें?
दाणन्द का स्य्धांत आर्यसमाज, मनै ब्यरासत म्ह थारी पाया,
जडै भी आर्यों के मेळए भरे, सबतें अगाड़ी मन्नें भरया हुम्बाया|
ज्यन्दगी के च्यार पड़ाव, 25-25 साल्ले थाह्म-नैं-ए यू पढवाया,
फेर 16 साल म्ह ब्याह करण का, यू फर्मुल्ला क्याँ नैं सुझाया?
इह्सा के घोळ बेठ ग्या थारे भीतर म्ह, डरे थम क्याँ तें?
मैं थारा वंशज सूं दादा, जवाब दियो म्यरे, धीरज तें,
चाऊमीन के इह्सा, घी-दूध तें भी बाध्धू होग्या?
अर कूण खा चाऊमीन, मैडल हमनें द्य्वाग्या?
दूध के बालल्ट तै थारे लाल्लां नैं, ढोल्लाँ ओज दिए,
फेर भी कहो, लोच्छर बाहर के खाणे नैं खो दिए?
आशिकी टपकै बाहरले खाणे म्ह, फेर हीर-रांझे आये कड़े तें?
मैं थारा वंशज सूं दादा, जवाब दियो म्यरे, धीरज तें,
गाम-गोत की स्यक्षा पोहंचे धुर लग, इसके जाब्ते के थारे?
लोकतंत्र थारा ईतणा लचीला, बोतल ज्यूँ ब्यना डाट की रे|
भों कोए स्यन्गर ले थारे पै, स्याणा हो चाहे कुतरू काहल का रे,
चुल्हे आळी चिमनी थमनें, खुल्ली छोड राख्खी ब्यना छतरी के?
के साहनी-के मीडिया, बूँद सी टपका दें-घर भर ज्या धुम्में तें|
मैं थारा वंशज सूं दादा, जवाब दियो म्यरे, धीरज तें,
या दुनियां खसमां नैं खाणी, क्यूँ खसम इसके थम हो रे?
मूर्ती-स्मारक थामनें बणाए नीह, फेर भी सारे थारे स्यर हो रे|
सारे बणा रे ब्यन होयें भी, थामें होंदें-होंदें भी क्यूँ ब्यखो रे?
औरां के लिए बणा भतेरे, इब आपणयाँ की सोधी ले ल्यो रे|
के बतावांगे आगै थारे नातियाँ नैं, अक म्हारे बड्डे थे कूण-कड़े तें?
मैं थारा वंशज सूं दादा, जवाब दियो म्यरे, धीरज तें,
बलात्कारी हो चहे पेट म्ह मारणिया, दुष्ट तै दुष्ट हो सै,
कलानौर की बोर काढणियो, या बोर एक और काढणी होरी सै|
बीर सस्कै थारे होंदें, बताओ या कुणसी धाड़ आण पड़ी सै?
फुल्ले-भगत दुखी हो टंडवाळऐ कोळा, यू गड्या कुणसी खूंट सै?
खापलैंड की रूह कांपती, याह लगी ब्यछोह कुणसी अळसेट तें?
मैं थारा वंशज सूं दादा, जवाब दियो म्यरे, धीरज तें,
नरम लक्ष्य क्यूँ बणी खाप जो लोकतंत्र रही सदियाँ तें?
लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक
द्यनांक: 03/12/12
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पहले का गुस्सा तो थ्म्या ना, दूज्जा गैंग रेप दिल्ली म्ह करगे|
समाज म्हारे का पतन देखो, इसके दोषी सें म्हारे बरगे||
के होग्या म्हारे समाज म्ह, ईब तह म्ह जाणा जरूरी देखो|
दोष व्यवस्था के म्ह सै, ओटणा शरीफां की मजबूरी देखो|
उतां के कानां पै जूँ ना रेंगी, कुछां की छाती पै सांप गुजरगे|
गैंग रेप की या मानसिकता, क्यूँ माणस की बढ़ती जावै रै||
क्राईम ग्राफ म्हारे भारत की, क्यूँ या रोजाना चढ़ती जावै रै|
एक नेता दूसरे कै दोष लगा, समझै नैया पार उतरगे||
एक द्य्न म्ह पैदा होई, या समस्या नहीं हो सकती सुणियो|
चारों ओर बाढ़ आगी, नहीं महिला और ढो सकती सुणियो||
कई क्रिमिनल नेता बणगे, शरीफ बदमाशां तैं डरगे|
पेट म्ह छांट कें मारते, छोरी या दूषित मानसिकता म्हारी||
महिला सॉफ्ट-टारगेट आज या, पूरे जगत म्ह बणनी जारी|
रणबीर सिंह यें जख्म कद, कानूनी पट्टियाँ तैं भरगे||
लेख्क्क: डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया
द्यनांक: 27/12/2012
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4. जाल्लम जरूर राम्भैगा |
5. बात पते की |
6. कमेरा |
याद रहैगा थाहरा बलिदान दामिनी, भारत देश जागैगा|
थाहरी कुर्बानी रंग ल्यावैगी, समाज हिसाब पूरा मांगैगा||
सिंघापुर म्ह ले जा कें भी हम थह्मनें बचा नीह पाए,
थाहरी इस कुर्बानी नैं दामिनी, आज यें सवाल घणे ठाए|
गैंग-रेप की काळस का यो अँधेरा भारत देश तें भागैगा,
फांसी तोड़े जां वें जाल्लम, इसपै हांगा पूरा लागैगा|
दामिनी पूरा देश थाहरी साथ यो पूरी-तरियां खडया हुया,
जुलुस-विरोध प्रदर्शन कर, समाज सारा अडया हुया|
महिला-संघर्ष की थह्म दामिनी, आज एक प्रतीक लिकड़गी,
दुनियां म्ह थाहरी कुर्बानी की हर कूणयां लग संदेश ढीगरगी|
लम्बा संघर्ष बदलण का सोच-समझ आगै बढ़ ज्यांगे,
मंजिल दूर सही दामिनी, हम रही सही पै चढ़ ज्यांगे|
इसमें शक नहीं बच रह्या, कोर्ट जालिमों नैं फांसी टान्गैगा,
कह रणबीर सिंह नए साल म जाल्लम जरूर राम्भैगा|
लेख्क्क: डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया
द्यनांक: 30/12/2012 |
पीस्से नै पीस्सा खींच रह्या, यो मैगनेट का काम करै|
खुली बाजार व्यवस्था इसमें, पीस्से आळआ नाम करै||
डॉक्टर बिकै कमिशन खावै, मरीज जाओ भाड़ म्ह,
पुजारी बिकै साहे काढे, हजार रूपये की झाड़ मै|
नेता बिकै अफसर बिकता, यो अरबां के जुगाड़ मै,
जज भी फ़िसलै देखो, कुर्सी न्याय की बदनाम करै|
मुनाफे खातर मालिक बिकै, पूँजी पूँजी आगै गोड्डे टेकै,
प्रदूषण फ़ैलावै दुनिया म, कति ना आग्गा-पाच्छा देखै|
ईमान बिकै सरे-बाजार, दलाल खूब परोंठे सेकें,
बाप बेचै बेटी चाहे वा फांसी खा मरो उसकै लेखै|
जो बिकने तैं नाटे उसका गोळी काम तमाम करै,
लाखां हजारां जो बिके नहीं, म्हारे देश की श्यान हुये|
भगत सिंह बरगे भोत घणे मुश्किल इम्तिहान हुये,
महिला पाछै नहीं रही दुर्गा भाभी के गुणगान हुये|
कदम-कदम पै इनके घणे मुश्किल इम्तिहान हुये,
बिकाऊ नै इतिहास भी बुरी तरियां गुमनाम करै|
आज भी सही-सच्चे माणस, भारत म्ह टोहे पा-ज्याँ रै,
बिके नहीं ना आगै बिकें, लोग किमें-ए बोली ला-ज्याँ रै|
लोग जिब साथ देवैं तो दुनियां म इतिहास बण ज्या रै,
सोच्चो किमें करने की कदे सारै काले बादल छा-ज्याँ रै|
नाश म भी खोज आस की रणबीर सुबो-शाम करै||
लेख्क्क: डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया
द्यनांक: 07/02/2013
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मेरी कोए न सुनता आज छाया सारै यो लुटेरा|
भक्षक बनकै रक्षक देखो देरे किसान कै घेरा||
ट्रेक्टर की बाही मारै ट्यूबवैल का रेट सतावै,
थ्रेशर की कढ़ाई मारै भा फसल का ना थ्यावै|
फल सब्जी ढूध सीत सब ढोलां मैं घल ज्यावै,
माटी गेल्याँ माटी होकै बी सुख का साँस ना आवै||
बैंक मैं सारी धरती जाली दीख्या चारों कूट अँधेरा||
निहाले पै रमलू तीन रूपया सैकड़े पै ल्यावै,
वो साँझ नै रमलू धोरे दारू पीवन नै आवै|
निहाला कर्ज की दाब मैं बदफेली करना चाहवै,
विरोध करया तो रोज पीस्याँ की दाब लगावै||
बैंक अल्यां की जीप का बी रोजाना लग्या फेरा||
बेटा बिन ब्याह हाँडै सै घर मैं बैठी बेटी कंवारी,
रमली रमलू नयों बतलाये मुशीबत कट्ठी होगी सारी|
खाद बीज नकली मिलते होगी ख़त्म सब्सिडी म्हारी,
माँ टी बी की बीमार होगी बाबू कै दमे की बीमारी||
रौशनी कितै दीखती कोन्या घर मैं टोटे का डेरा||
माँ अर बाबू म्हारे नै यो जहर धुर की नींद सवाग्या,
माहरे घर का जो हाल हुआ वो सबके साहमी आग्या|
जहर क्यूं खाया उनने यो सवाल कचौट कै खाग्या,
म्हारी कष्ट कमाई उप्पर कोए दूजा दा क्यों लाग्या||
कर्जा बढ़ता गया म्हारा मरग्या रणबीर सिंह कमेरा||
लेख्क्क: डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया
द्यनांक: 14/06/13 |
7. "धारा उपर तैर रहे हैं सब खादर के गाँव" |
8. "पिता सरीखे गाँव" |
9. वृद्धा-पुराण |
टूटे छप्पर छितरी छानें सब आँखों से ओझल,
जहाँ झुग्गियों के कूबड़ थे अब जल, केवल जल|
धँसी कगारें मुश्किल टिकने हिम्मत के भी पाँव||
छुटकी गोदी सिर पर गठरी सटा शाख से गात,
साँपों के सँग रात कटेगी शायद ही हो प्रात|
क्षीर-सिंधु में वास मिला है तारों की है छाँव||
मौसम की खबरें सुन लेंगे टी वी से कुछ लोग,
आश्वासन का नेता जी भी चढ़ा गए हैं भोग|
निविदा अख़बारों को दी है बन जाएगी नाव||
घास-फूस का टप्पर शायद बन भी जाए और,
किंतु कहाँ से लौटेंगे वे मरे, बहे जो ढोर|
और कहाँ से दे पाएंगे वे साहुकार के दाँव||
लेख्क्क: प्रोफेसर राजेन्द्र गौतम
द्यनांक: 18/06/2013
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तुम भी कितने बदल गए
ओ, पिता सरीखे गाँव।
परम्पराओं-सा बरगद का
कटा हुआ यह तन
बो देता है रोम-रोम में
बेचैनी सिहरन
तभी तुम्हारी ओर उठे ये
ठिठके रहते पाँव।
जिसकी वत्सलता में डूबे
कभी-कभी संत्रास
पच्छिम वाले उस पोखर में
सड़ती है अब लाश
किसमें छोड़ूँ सपनों वाली
कागज की यह नाव।
इस नक्शे से मिटा दिया है
किसने मेरा घर
बेखटके क्यों घूम रहा है
एक बनैला डर
मंदिर वाले पीपल की भी
घायल है अब छाँव।
लेख्क्क: प्रोफेसर राजेन्द्र गौतम
द्यनांक: 14/07/2013 |
‘मझले की चिट्ठी आई है
ओ मितरी की मां
परदेसों में जाकर भी वह
मुझ को कब भूला
पर बच्चों की नहीं छुट्टियाँ
आना मुश्किल है
वह तो मुझे बुला ही लेता
अपने क्वाटर पर
अरी सोच कब लगता मेरा
दिल्ली में दिल है
भेजेगा मेरी खाँसी की
जल्दी यहीं दवा।’
‘मेरे बड़के का भी खत री
परसों ही आया
तू ही कह किसके होते हैं
इतने अच्छे लाल
उसे शहर में मोटर बंगला
सारे ठाठ मिले
गाँव नहीं पर अब तक भूला
आएगा इस साल
टूटा छप्पर करवा देगा
अबकी बार नया।’
‘एक बात पर मितरी की माँ
समझ नहीं आती
क्यों सब बड़के, छुटके, मझले
पहुँचे देस-बिदेस
लठिया, खटिया, राख, चिलम्ची
अपने नाम लिखे,
चिट्ठी-पत्री-तार घूमते
ले घर-घर ‘संदेस’
यहाँ मोतियाबिंद बचा
या गठिया और दमा।’
लेख्क्क: प्रोफेसर राजेन्द्र गौतम
द्यनांक: 14/07/2013
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जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर
छाप: न्यडाणा हाइट्स
छाप्पणिया: न्य. हा. शो. प.
ह्वाल्ला:
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