शक्कर पारे गिरी छुआरे लाङङू और सुहाली घी की
घर- घर ते ये चालू होरी लाङ कौथली बेटी धी की
सारा कुनबा राजी हो रया बांट देखरे सब मीं के सी
सुखी तीज मनाऊ कयूकर मीं का मौका साढ ले गया
हे परदेशी गेल मेरे बांध कयू ना हाङ ले गया।
मौज- मस्ती से भरपूर सावन महीने की अमावस के तीसरे दिन अपनी मस्ती लुटाता हुआ 'तीज' का त्योहार आता है। हरयाणा को सांस्कृतिक पहचान देने वाले त्यौहारों में से 'तीज' पर्व सबसे महत्वपूर्ण व मुख्य है। हरयाणावासी इस त्योहार का बङी धूम-धाम व दिल खोलकर स्वागत करते है। बच्चो मे, महिलाओ मे, बुजूर्गों में और सबसे अधिक किसानों में इस पर्व का चाह बहोत पहले ही चढ जाता है। चैत और बैसाख में गेंहू की कटाई के बाद लोग सावन के महीने का बेसब्री से इंतजार करते है, क्योकि इसी महीने से त्योहारों की व हरयाली की शुरुआत होती है। इस सावन के महीने में धूल, गर्द, मिट्टी सब दब जाती है, हवा शुद्ध हो जाती है, पेङो पर नये- नये पत्ते फूटने लगते है। हाली के लिए बङी राहत लेकर आता है, यह रंगीला, हरया- भरया त्योहार, जिसमें किसान जीरी, ज्वार, उङध, मूंग, बाजरा, मक्की, हरङ आदि सब उगाता है। हाली के जीवन में अन ही उसका धन है। जमींदार इसी महीने में फलता फूलता है। खेती की शुरुआत इसी पर्व, इसी त्योहार से होती है। कहावत कतई सही है:- " आगी तीज अर बोगी बीज।" सब क्या ए का बीज बोके जा है या तीज। मौसम में इतनी ताज़गी आजा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि नाह- धोहकर सिंगार करके हरयाली खुद-ब-खुद हमारे सामने खङी हो। हरयाली की प्रतीक हमारी सबकी चहेती यह तीज। पहले हमारे घर की लडकिया, बहुएं कुएं, जोहङ, खेतों आदि से चिकनी मिट्टी लेकर आती थी, उस मिट्टी मे गोबर मिलाकर, पहले कच्चे घरों मे पूरा चूल्हा, साल लीपकर खाना बनाती थी। ऐसे उस स्थान को पवित्र स्थान माना जाता था, जहाँ फिर सरसों के तेल में सुहाली, पूङे, गुलगुले, खुरमें आदि मिठाइयां बनाई जाती थी। घर की औरते नहा- धोकर इन्ही का प्रसाद दादा खेङा, दादा भैया, थान पर चढाती है। पहले सांवन आते ही महिलाए सैवंईया/ जवें तोङने लगती थी। इसी महीनें में औरतें आम का, निंबू का, लगभग हर अचार ङालती है।जो कि मां अपनी बेटी की कोथली में पीपे भर-भर के दिया करती। मां अपनी बेटी की कोथली के लिए तैयारियां बहुत पहले से ही शुरु कर देती जिसमें बढ़िया से बढिया सूँट वो उसकी ननंद, साँस और अपनी लडकी के लिए रखती है। तीज के त्योहार पर नयी- नवेली बहू का ससुराल से सिंधारा आता है। शादी- शुदा महिलाएँ अपने भाईयों का इंतजार करती है, मिलने के लिए व्याकुल हो उठती है। कोथली में भाई अपनी बहन के लिए मेंहदी, हरी चूड़ियाँ, मिठठी सुहाली, गिरी छुआरे, घेवर आदि सब लेकर जाता है। मेँहदी, हरी चूङियाँ हाथो की शोभा बढाते है, मेँहदी से रचे हाथों में हरी चूङियाँ बहोत सजती थी। यह त्योहार केवल विवाहित स्त्रियों के लिए सिमित नहीं है बल्कि कुवांरी लङकिया भी मनचाहा वर पाने के लिए प्रार्थना और उपवास करती है।
पहले जमाने मे लङकिया काँतरा की मिंढ़ि करवाया करती, उनका बालों में जाल बनवाया करती। हमारे बड़े- बूढ़े रस्सी बनाने के लिए पहले सण को खेतो की जमीन में दबाते थे, फिर उसको काटकर जोहड़ में 1/2 महीने तक दबाते, फिर उसको निकालकर उसका सण उतारते और फिर बेढ (रस्सी) बाँटते। जिसकी फिर दरख्त यानि पेड़ पर पींग, पींझोली ड़ाली जाती थी। घर की औरते सुबह नाह- धोकर मरकनी जूती, कंद का दामण, धोला कुर्ता और घोटया वाली चूदँड़ी, जिसमें सभी प्रकार के गहने जैसे कि:- कड़ी छलकड़े, पाति- धाति, नयोरी, गलसरी, कंठी, मटर-माला, झाँझण, रमझोल, हार, झालरा, ड़ांड़े, सार, बोरला, छन पजेबी, हथफूल, कड़ूले आदि सब सज- सँवरकर इकट्ठी होकर बागों में झूले झूलने जाया करती। मर्द माणस भी सुबह नाह- धोकर खंडका, धोती कुर्ता, चादरा, जूती अर कांधे पर लठ तैयार हो जाया करता। पहले महिलाए रात को मेँहदी को मुठ्ठी में बदं करके सो जाया करती और सुबह हाथों में गंड़या आली मेँहदी उनके हाथों मे रची पाया करती। सारी औरते इकट्ठा होकर गीत गाती थी, झूला झूलती थी और मर्द माणस झोटा दिया करते। कच्चे नीम की निंबोली सांवन जल्दी आइयो रे।
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विशेष: लेखक एक शोध पत्र इस तस्वीर वाली "अंतर्राष्ट्रीय तीज मेला 2020 कांफ्रेंस" में लेखक द्वारा प्रस्तुत किया गया था|
हरयाणा का यह लोकगीत तीज के दिन हर औरत की जुबान पर रहता है। झूला झूलते वक्त सभी औरते अपनी- अपनी बेरी का इंतजार करती और कहते थे कि जब पेड़ का पत्ता यानि अपनी साँस की नाक तोड़ के ला।
खट्टी- मिठठी तकरार के ये लोकगीत त्योहार में चार- चाँद लगा देते। हाली वही हमेशा की तरह हर सुबह 4 बजे उठता, बैल जोड़ता, खेत मे जाता, खेत बांधा, कांदे साटा राखता फिर लौटते वक अपने पशुओ के लिए गाड़ी भर के हरा- भरा घास- फूंस के भरोटे लेकर आता। यह त्योहार सबके चेहरे पर हर्षोल्लास की लहर लेकर आता है और जाते- जाते सभी के उपर उसी खुशी की छाप छोड़ जाता है।
तीज मे मौसम मस्त मोला, बेफिक्र, अलहड़ बालक की तरह अंगड़ाई लेता रहता है, कभी चारों ओर काली घटा छा जाती है, कभी तेज बारिश, कभी धूप इस तरह मौसम अपना रंग बदलता रहता है।
एकदम सही कहावत है- साढ़ सुकया, सामण हरया।
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