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व्यक्तिगत विकास
 
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भ्रामक धारणाएं
!!!......एक बच्चा जन्म के वक्त बच्चा नहीं होता, तथापि यह तो उसको विरासत में मिलने वाले माहौल व् परिवेश से निर्धारित होता है| एक बच्चे को माता-पिता जितनी समझ जन्म से होती है| अत: माता-पिता उसको उस स्तर का मान के उसका विकास करें|......!!!
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हरियाणवी समाज में व्याप्त भ्रामक धारणाएं

हरियाणवी समाज में फैली अथवा फैलाई गई ऐसी भ्रामक धारणाएं, चलन व् पद्तियां जो समुदाय विशेषों को समुदाय विशेषों द्वारा भटकाए, भरमाये व् बहकाये रखने के लिए चलाई गई; जो कि अगर आज भी ठीक नहीं की गई तो इनके निशाने पे जो समाज हैं वो शायद ही कभी आगे निकल अपनी असली क्षमता को पहचान पाएं|
भ्रामक धारणा 1:


"सच्च्चा वीर वही होता है जो दूसरे वीर की गाथा सुन सके|"

जबकि होना क्या चाहिए था: "सच्चा वीर वही होता है जो दूसरे वीर की गाथा तो सुने ही सुने साथ ही उसके अपने वीर की गाई गई, यह भी सुनिश्चित करे|"

व्याख्या: धूर्त व् पक्षपाती इतिहास लेखकों की अपने मनघड़ंत वीरों को सच्ची वीर जातियों में मान्यता दिलवाने हेतु ऐसे वाक्यों/जुमलों का सहारा लिया जाता रहा है| और इसका सबसे बड़े शिकार रहे हैं जाट| किसी भी जाट को यह कह के देख लो कि आपके तो किसी वीर को कोई गा ही नहीं रहा, तो वीरता का सच्चा प्रशंसक जाट यही कहेगा कि जिसकी गा रहा है वो भी तो वीर ही है; हमारी नहीं गा रहा तो उससे क्या होता है|

होता है जाट जी, आपकी नहीं गा रहा तो इससे बहुत कुछ होता है| काल बीतने के साथ और इनसे यह अनुरोध या विरोध ना करने से कि हमारों को भी गाओ, नंबर एक तो यही होता है कि इससे नकली वीर शूरवीर असली बनते/थपते जाते हैं| नंबर दो आपके असली शूरवीर इतिहास के अँधेरे कौनों में धका दिए जाते हैं| नंबर तीन आपकी जुल्म और झूठ के खिलाफ आवाज उठाने की शक्ति शीर्ण होती जाती है| नंबर चार आप पिछड़े से अति पिछड़े बनते चले जाते हो| नंबर पांच आपक दान दिया हुआ पैसा, आपकी वीरता/शौर्य के प्रचार में ना लगने की बजाये यह दूसरों की गाने में लगता है|

और इसका दुष्परिणाम सामने है, कि बीसवीं सदी में जब तक सेठ छाजूराम जी ने सही जगह दान लगवा के कलिका रंजन कानूनगो जी से "जाट इतिहास" नहीं लिखवाया उससे पहले तक अंग्रेजों को छोड़ जाटों के इतिहास को सही-सही बताने वाला कोई-कोई था| इसलिए तमाम ऐसे जाटों और ना सिफ जाटों (जाट तो यहां उदाहरण के तौर पर लिया गया) अपितु तमाम जातियों को दान हेतु अपने अतिरिक्त धन को किसी को भी देने से पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उस दान का 20--30-50 अथवा जरूरत हो तो 100-का-100 प्रतिशत धन आपके इतिहास को लिखने, आपके महापुरुषों को गाने में लगे| और ऐसे मामले में जरूरी हो तो जिसको दान दिया जा रहा है वो पात्र भी बेशक बदल डालो|

फूल मलिक - 15/12/2014



भ्रामक धारणा 3:


"फंडियों के काम फंडों के, सो हमें इनसे क्या लेना?"

जबकि होना क्या चाहिए था: "फंडियों के फंडे जाने बिना आप देश पर राज नहीं कर सकते, इसलिए इनसे राज लेना है तो इनके फंडे जानने ही होंगे|"

व्याख्या: आपको तो इनसे कुछ नहीं लेना, लेकिन इनको तो आपसे बहुत कुछ लेना है| आपका धन लेना है, आपकी बुद्धि हरनी है, आपका बल क्षीण करना है और आपको पिछलग्गू बनाना है| और आपकी खुद की घड़ी यह धारणा कि "हमें इनसे क्या लेना!" ही इनका सुरक्षा कवच व् कमाई का जरिया है| क्योंकि आप तो "हमें क्या लेना" की धारणा में बैठे रहते हो और यह समाज को अपने गौरख धंधों-पाखंडों और फंडों का अड्डा बना देते हैं, बनाते आये हैं और आज तो और भी ज्यादा बना रहे हैं|

"हमें क्या लेना वाली" धारणा, बिल्ली और कबूतर वाले उस कबूतर की सोच जैसी है जो बिल्ली को देख के आँखें मूँद लेता है और सोचता है कि मैं तो बिल्ली को दिखता ही नहीं| परन्तु बिल्ली तो अपना पंजा मारेगी ही मारेगी, कबूतर आँख मींचे या ना मींचें| बल्कि यदि नहीं मींचेगा तो बिल्ली के प्रहार से बचने हेतु पंख फड़फड़ाने की कोशिश तो कर सकेगा, आँखें मींच लेने से तो वो भी आशा खत्म| इसलिए इन पंजों से बचना है तो यह धारणा छोड़िये और यकीन मानिए इनको तलहटी से जानने के बाद आपका इनसे और भी जयादा दूर जाने का मन करेगा अथवा इनके सामाजिक-राजनैतिक दांव-पेंच समझ आ जायेंगे|

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस कहावत के जरिये इनकी इनके सिर्फ बुरे काम ढंकने की मंशा रहती है और इस कहावत को चालु रहने में यह यूँ ही अपना भला देखते हैं| इसका एक पहलु यह भी है कि इस दीवार की आड़ में यह इंसान को उसके अपने तत्व के बारे में जानने के अधिकार से भी अनभिज्ञ बने रहने देना चाहते हैं| तत्व यानी आपका तीन प्रकार का स्वभाव गुण, जैसे सत्वगुण, राजसगुण और तामसगुण|

इसलिए ऐसे मत सोचियेगा कि इनके फंडे सीख और जान लिए तो आप दूषित हो जायेंगे या इनकी तरह ही करने लग जायेंगे| बल्कि अगर आप सात्विक गुण के निकले तो आप धर्मगुरु बन जाओगे, राजस गुण के निकले तो राज करोगे और अगर मान लो एक पल को तामस गुण के भी निकले तो कम से कम या तो उससे निकलने के उपाय और प्रयास करोगे अन्यथा इनके जैसे फंडे रच के घर की दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तो कर सकोगे|

फूल मलिक - 24/12/2014



भ्रामक धारणा 5:


"दान कहके नहीं दिया जाता अर्थात गुप्त दान सबसे उत्तम दान!"

जबकि होना क्या चाहिए था: "दान ना सिर्फ कह के देना चाहिए अपितु यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि आपका दान कहाँ लगाया गया|"

व्याख्या: नेकी कर कुँए में डाल| यह सोच गलत है, akhir neki hi to kamaane aata hai insaan is duniya mein, swarg milne ka lalach de ke hi to usse neki karne ko bola jata hai, yah kahawat aur kuchh nahin, fandon dvara baith ke khaane ka jariya hai ki aap jaise neki karne waale usko kar-kar-ke kuen me daalte rahen aur uspe yah thaali baithe dhakaarte rahen, so change karo in kahawaton ko ya fir remove hi kar do life se..... yhaan aulaad paalne kee neki bhi isliye ki jaati hai taaki wo budhaape ka sahara bane... to aur to nekiyon ki baat chhod hi do bandhu. in fact world mein neki karne ka recording register sabke liye hona chahiye, taaki har kisi ki neki usmen recorded rahe, warna duniya mein log kisi ki neki ko apni bata ke dukaane chalaate bhi dekhe hain! bhoola burai ko jana chahiye, bhala neki bhi koi bhoolne ki cheej hai| haan bhalai karne pe bhi jab kuchh haath naa lage, tab sirf santwana dene ki cheej hai yah kahawat ki "neki kar kuen me daal"

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Description

भ्रामक धारणा 2:

अंग्रेजी पढ़ के क्या अंग्रेज बनना है!

जबकि होना क्या चाहिए था: अंग्रेजी पढ़ के वैश्वीकरण को समझो, भारतीय सविंधान व् कानून को जानो| हिंदी और हरियाणवी को अपनी संस्कृति और सभ्यता के सृजन हेतु सहज के रखो|

व्याख्या: भाषा ऐसी कला होती है जिसको धर्म-जाति-सम्प्रदाय-संस्कृति-देशभक्ति से कभी जोड़ा ही नहीं जा सकता| बस इतना जरूर करना होता है कि अपनी स्थानीय बोली, राजकीय व् राष्ट्रीय भाषा के सम्मान को किसी भी अन्य देशज बोली-भाषा अथवा विदेशी भाषा से ठेस ना पहुंचे| भाषा तो रोजगार का, सामाजिक-राजनैतिक-धार्मिक बंधनों को प्रगाढ़ बनाने का, अपनी क्षमताओं को उभारने, निखारने और बढ़ाने का माध्यम होती है|

और इसका सबसे सटीक उदाहरण खुद अंग्रेज हमारे सामने हैं| ब्रिटिश राज के दौरान उन्होंने हिंदी सीखी, तो वह इसलिए नहीं कि इससे उनका धर्म भ्रष्ट होना था अथवा देशभक्ति मिट जानी थी, अपितु इसलिए कि उनको भारत में राज और व्यापार दोनों करने थे| और अगर कोई यह कहता हो कि एक बार विदेशी भाषा सीख ली तो अपनी तो भूलते ही भूलते हैं साथ ही देशभक्ति व् संस्कृति भी प्रभावित होती है; तो अंग्रेज तो हम पर 250 साल राज करके गए, उनकी तो ना देशभक्ति में फर्क आया और ना ही संस्कृति में| बल्कि हमारी भाषा सीख के हमें और भी अच्छे से लूट सके, अपना कारोबार-व्यापार फैला सके|

इसलिए किसी भी भाषा को सीखना कभी भी नुकसानदायक नहीं होता है| अपितु ऐसी भ्रामक बातें फैला कर इंसान को उन बातों-भेदों-अधिकारों से वंचित रखने की साजिश की जाती है जिनको आप जान जाओ तो दूसरे जो आपका हक मारे बैठे हैं उनकी पोल-पट्टी खुल जाए या ऐसा करने वालों के धर्म-कर्म छिन्न-भिन्न हो जाएँ| और इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद हमारा इतिहास है| अगर संस्कृत पढ़ना किसी वर्ण विशेष ने अपने अधिकारों विशेष तक सिमित ना किया होता और सबको पढ़ने दिया होता तो उस जमाने में ना तो कोई महात्मा बुद्ध होता और ना ही कोई बुद्ध धर्म होता, ना महात्मा बुद्ध को धर्म के लिए आम-लोक भाषा को प्रयोग कर नई लेखन-पद्द्ति जन्मनी पड़ती|

इसलिए भाषा के मामले में यह भी बात लागू होती है कि अगर आप अपनी भाषा को छुपाओगे तो लोग अपनी अलग से भाषा बना लेंगे और आप अलग कर दिए जाओगे; ठीक वैसे ही जैसे महात्मा बुद्ध ने एक जमाने में संस्कृत को अपने तक सिमित रखने वालों को कर दिया था| इसलिए हर हरियाणवी को हरियाणवी अपनी मातृभाषा के तौर पर, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा के तौर पर और अंग्रेजी हमारी सवैंधानिक व् अंतराष्ट्रीय भाषा के तौर जरूर सीखनी चाहिए|

फूल मलिक - 16/12/2014



भ्रामक धारणा 4:


"वो दूसरों को चांडाल, लुटेरे, शुद्र, दस्यु तो कभी दानव कहते हैं, जबकि खुद को देव-देवता; इसलिए यह बड़े खराब हैं|"

जबकि होना क्या चाहिए था: "क्यों 'वो' को कोसते हो, इनका क्या अपराध? दूसरों को अपने से निम्न बोलना बोलना-लिखना-ठहराना मानव का स्वार्थी व् आत्मकेंद्रित स्वभाव है| आपको खुद को भगवान बोलना है तो अपनी लेखनी से लिखो भाई|"

व्याख्या: ऐसे लोगों को यह चीज समझनी चाहिए जो यह कहते हैं कि देखो 'वो' ने हमको चांडाल-लुटेरे-असुर-दास-दस्यु-दानव-शुद्र लिखा और खुद को देव-देवता-भगवान लिखा, कि अरे भले मानुषों भला कौन होगा जो खुद को दानव बोलेगा, सब ही तो देव-देवता कहलवाना चाहते हैं, तो अगर 'वो' खुद को देव-देवता बोलते हैं तो यह उनका हक़ है| आखिर एक कंपनी में किसी को प्रमोशन चाहिए हो तो वह कॉम्पिटिटर की प्रशंसा करके प्रमोशन पाता है अथवा उसकी टांग खींच के? यही सामाजिक रूतबा और ओहदा पाने का सिद्धांत है|

इसलिए इसने-उसने-इन्होनें दूसरों के बारे क्या बोला, क्या लिखा, इसमें ऊर्जा व्यय करने की अपेक्षा स्वंय को लिखो| एक बार गलत लिखोगे, दो बार गलत लिखोगे परन्तु तीसरी बार तो स्वंय को ठीक लिखना सीख ही जाओगे| और फिर हो जाने दो पब्लिक में कम्पटीशन कि आपके लिखे को लोग ज्यादा पढ़ते हैं या आपको निम्न लिखने वाले को| सो इस मामले अगर सही में कोई चीज ठीक करनी है तो यह आपको निम्न लिखने वालों की मोनोपली को तोड़ो| खुद कलम उठाओ और खुद को लिखना शुरू करो| देवता चाहो तो देवता लिखो, रॉयल चाहो तो रॉयल लिखो, भगवान चाहो तो भगवान लिखो, परन्तु ढूंढो अपने आपको भगवान कहने के वो सारे कारण और संसाधन जिनकी वजह से आप अपना देवत्व लिख सको|

उदाहरार्थ मैं एक किसान का बेटा हूँ, मेरे खेत में उगे हुए से हर साधू-शंकराचार्य से ले व्यापारी-अफसर तक का पेट भरता है| मेरे खेत में उगे हुए से कपडा बनता है जिससे सबका तन ढंपता है| मेरी गाय-भैंस जब दूध देती है तो सबकी चाय का रंग काले से भूरा होता है| क्या है किसी और में या मेरे को निम्न लिखने वाले में यह चमत्कार करने की कूबत? हांजी यही तो चमत्कार है एक किसान का, बस करना सिर्फ इतना है कि इन चमत्कारों की आपकी विद्या और संसाधनों पर अपनी लेखनी से वो वाली मजबूत पकड़ बनाओ कि आपको निम्न लिखने वालों की आँखें चुंधिया जाएँ, और उनको आपमें छुपा भगवान दिखे, दस्यु या शैतान नहीं|

कोई 'वो' आपको चमत्कार करके दिखाए तो उसके उत्तर में लिखो कि मैंने धरती में ऐसा चमत्कार किया कि एक गेहूं का दाना मिटटी में दबाया और कुछ समय बाद उससे सौ गेहूं के दाने बनके निकले| क्या है आपको निम्न लिखने वाले के किसी चमत्कार में इतनी ताकत जो एक गेहूं के दाने के सौ गेहूं के दाने बना सके? और अगर कोई हिला-हिला आन कहे कि है, तो हो जाने दो कम्पटीशन, और कुछ नहीं तो खट के खाना तो सीख जायेगा वो| इसलिए अपनी कृषि विधा के चमत्कारों से इनके चमत्कारों को टक्कर देनी शुरू करो|

और घबराना मत ऐसा करते हुए, क्योंकि जो इनको इनका आयना दिखाता है उसी को यह अपना अवतार तक बना लेते हैं| नहीं बना लेते हों तो याद करो गौतम बुद्ध को| दूसरों को निम्न लिखने व् मानने वालों ने अहंकारवश कहा हो अथवा भयवश परन्तु कहा कि संस्कृत सिर्फ हम पढ़ेंगे तो गौतम बुद्ध ने लोकभाषा को राजभाषा बना के संस्कृत का अस्तित्व ही सिमित कर दिया| और इनके इसी दम्भ की आड़ में गौतम बुद्ध ने इनके ही धर्म के लोग तोड़ के अलग धर्म खड़ा कर दिया| और फिर देखो अंत में गौतम बुद्ध का क्या हुआ? इन्होनें ही उसी गौतम बुद्ध को जिसने संस्कृत भाषा सिमित की, धर्म में सेंध लगाई, उसी को अवतार घोषित कर दिया| इसलिए आपका भगवान आपके अंदर है, आपका देवता आपके अंदर है, किसी अन्य की लेखनी या शब्दों में नहीं|

जब तक आप किसी भी ऐसे निम्न कहे पे नकारात्मक या भरमात्मकता वाली सकारात्मक जैसे कि अंध-भक्त टाइप प्रतिक्रिया नहीं देते तब तक आप दस्यु-शूद्र नहीं होते हो, लेकिन जैसे ही और जिस पल आप ऐसे निम्न लिखे का जवाब तैयार करने की बजाये अंध-भक्त बन अथवा नफरत दिखाने हेतु कोई प्रतिक्रिया देते हो तो आप उसी पल स्वत: ही दस्यु-दानव-शुद्र बन जाते हो| इसलिए निम्न लिखे का सही विरोध जताना है तो खुद को लिखो, याद रखिये लोहे को लोहा ही काटता है, परन्तु गर्म बनकर नहीं, ठंडा रहकर|

फूल मलिक - 19/12/2014



भ्रामक धारणा 6:


"धर्म का राजनीति से क्या लेना!"

जबकि होना क्या चाहिए था: "असली राजनीति तो धर्म ही होती है, जिसने इसको अपने लिए जितना पक्का कर लिया यानी खुद के लिए धर्म क्या है जान लिया वो उतना ऊंचीं उड़ान का मुसाफिर|"

व्याख्या: soon to come

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जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  


प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

साझा-कीजिये
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
© निडाना हाइट्स २०१२-१९