इसमें समाहित तीन शब्द "दादा", "नगर", "खेड़ा" का होना हरियाणवी सभ्यता की तीन चीजों की तरफ इंगित करता है, सर्वप्रथम
दादा शब्द देवता का प्रतीक होता है,
नगर गाँव का (हमारे यहाँ गाँव को नगर इसलिए बोला जाता था क्योंकि हमारे गाँव सर्वस्व सामर्थ होते थे, यानी जीवन यापन की हर वस्तु गाँव में मुहैया होती थी, नगर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी और आज भी हमारे गाँव इसमें समर्थ हैं और हर गाँव चाहे तो एक स्वछन्द अर्थव्यस्था के रूप में स्थापित हो सकता है क्योंकि इसको एक स्वतंत्र गणराज्य की थ्योरी पर बसाया गया होता है) और
खेड़ा यानी वो जगह जिसको गाँव का केंद्र बिंदु माना जाता है, जहाँ सर्वप्रथम गाँव बसाने पर डेरा/पड़ाव डाला गया होता है। इसलिए तीन शब्दों से मिलकर बनता है "दादा नगर खेड़ा"|
ऐतिहासिक पहलू: वैसे तो दादा नगर खेड़ा गाँव में बसने वाली हर जाति से सम्बन्धित होता है लेकिन जब इसके चलन और स्थापन की बात आती है तो इसकी जड़ें जाट जाति की मूल-मान्यताओं में मिलती हैं| युगों-युगों से जाटों की स्वर्णिम परम्परा रही है कि उन्होंने जहाँ भी नया गाँव बसाया वहाँ सबसे पहले दादा खेड़ा की स्थापना की| दादा खेड़ा, गाँव की उस जमीन पर बना होता है जहाँ पर सर्वप्रथम बसने हेतु डेरा डाला जाता है या स्थानीय भाषा में कहो तो जहाँ सर्वप्रथम चूल्हा जलाया जाता है| डेरा आसपास की सबसे ऊँची जमीन पर या जमीन का ऐसा ढलान जहाँ कि बाढ़ का पानी न चढ़ सके पर डाला जाता था इसलिए सामान्यत: दादा खेड़ा का खेड़ाल्य सम्बन्धित गाँव की ऊँची जमीनों पर बना मिलता है| और मिट्टी के भराव की वजह से अगर दादा खेड़ा की जमीन नीची पड़ जाती है तो उसकी नींव को ऊँचा उठा दिया जाता है|
दादा खेड़ा का पीछे के
(यानी जहाँ से आ के लोग नया गाँव बसाते हैं) मूल से आंशिक लगाव रहता है और गाँव के लोग धरती के जिस कोने से आ के बसते हैं उससे पैतृक लगाव रहता है, जैसे कि जींद जिले का निडाना गाँव रोहतक जिले के मोखरा गाँव के बासिंदों का बसाया हुआ है तो निडाना गाँव का मोखरा और मोखरा के दादा नगर खेड़ा से पैतृक आदर, श्रद्धा व् जुड़ाव शुरू-दिन से कायम है| इसके अलावा आपका (दादा खेड़ा) अयथार्थ की मान्यताओं/हसितयों/कृतियों
(उदाहरणत: मानव रचित काल्पनिक चरित्र या कृतियाँ) से कोई जुड़ाव/लगाव नहीं होता| जो इंसान या इंसानों का समूह गाँव को बसाता है उन्हीं पुरखों/बुजुर्गों को गाँव का सबसे बड़ा पूजनीय देवता माना जाता है| और उन्हीं की याद में, उनको श्रदांजली देने हेतु, उनमें अपनी आस्था प्रकट करने हेतु खेड़ाल्य में नियमित अवधि पर गाँव के लगभग हर परिवार द्वारा ज्योत लगाई जाती है; जो कि हर महीने के शुक्ल पक्ष (हरयाणवी में चयांदण) के किसी भी रविवार को लगाई जा सकती है।
इस प्रकार हरयाणा की मूल जातियों का सबसे बड़ा देवता "दादा नगर खेड़ा" व् इतिहास में हुए हरयाणा के यौद्धेय इस छत्रछाया के पूज्य महापुरुष व् पूज्या वीरांगनाएँ
(हरयाणा के योद्धेयों बारे में जानने हेतु आप आचार्य भगवान देव जी द्वारा लिखित पुस्तक "हरयाणा के वीर योद्धेय" अथवा राहुल संक्रतियान द्वारा लिखित "जय यौद्धेय' पुस्तक पढ़ सकते हैं) सामान्य मानवजीवन के प्रेरणास्त्रोत व् सर्वथा पर्याप्त कहलाते हैं| सर्वथा पर्याप्त इसलिए कि इंसान का मूल स्वभाव है कि आध्यात्मिकता में जितने ज्यादा उसके खून-वंश-उत्पत्ति विशेष से जुड़े तथ्य होंगे उसकी यह पिपासा उतनी ही तृप्त होगी और "दादा नगर खेड़ा" से बड़ा स्थानीय हरयाणवी के लिए ऐसा आस्था व् प्रेरणा अज्रित करने का केंद्र और कोई नहीं।
उदाहरणार्थ सिख खालसा पंथी विचारधारा, इस धारा के लोग इतने समर्थ-समृद्ध और धर्म के पक्के इसीलिए हैं क्योंकि उनकी मान्यताएं और गुरु सब यथार्थवादी हैं कुछ भी अयाथार्थी नहीं| उनके पहले गुरु से ले आजतक का इतिहास वो जानते हैं, और इससे इंसान की मनोवैज्ञानिक सोच को सबलता और समर्थन मिलता है जिससे इंसान अध्यात्म तौर पर अति मजबूत बनता है और नवीनता को धारण करने की प्रेरणा और नवीनता दोनों बनी रहती हैं| और दादा नगर खेड़ा में एक नवीनता भी है और यह किसी किवदन्ती की भांति आपको अदृश्य भूत से नहीं जोड़ता, आप इसकी जड़ें अपने ही गाँव में ढून्ढ सकते हैं|
"श्री दादा नगर खेड़ा" से उत्पन "खेड़ा-खेड़ी" सभ्यता:
(पलायन करके बसने पर ही नया खेड़ा स्थापित होता है, बंटवारे पर नहीं)
"खेड़ा": एक गाँव/नगरी से गाँव/नगरी की ही जमीन पर बसाया गया नया गाँव/नगरी| लेकिन 'दादा-खेड़ा' पैतृक गाँव/नगरी में ही रहता है| "खेड़ा" प्रत्तय पुल्लिंग के नाम पर अगर गाँव का नाम पड़ा है तो लगाया जाता है| जैसे ललित खेड़ा, भैरों खेड़ा, सिंधवी खेड़ा, बराड़ खेड़ा, बुड्ढा खेड़ा आदि| यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि अगर आपने पैतृक गाँव की जमीन की अपेक्षा कहीं सुदूर जा के नया गाँव/नगरी बसाई तो नया नाम रखा जाता है| उदहारण के तौर पर मेरी निडाना नगरी, रोहतक जिले की "मोखरा" नगरी से आके बसी हुई है , इसलिए खेड़ा प्रत्तय से मुक्त है; परन्तु निडाना नगरी की जमीनी-सीमा में बसा "ललित खेड़ा" गाँव/नगरी में "खेड़ा" शब्द प्रयोग होता है और इसका मतलब यह है कि "ललित खेड़ा" का "दादा खेड़ा धाम" निडाना नगरी में ही है| और हर तीज-त्यौहार अथवा सांस्कृतिक मान-मान्यता पर ललित खेड़ा के लोग निडाना में पूजा-अर्चना करने आते हैं|
"खेड़ी": स्त्रीलिंग के नाम पर 'खेड़ा' वाले सिद्धांत पर चलते हुए ही जो गाँव/नगरी बसाई गई हो तो| जैसे शीला खेड़ी, खीमा खेड़ी, गद्दी खेड़ी, काणी खेड़ी आदि| हालाँकि अध्ययन अभी जारी है, इसलिए अपवाद मिल सकते हैं और उनके कारण भी|
इसके साथ यह भी कहा जाता है कि "खेड़ा" जनसंख्या में बड़े व् "खेड़ी" जनसंख्या में छोटे गाँव को कहा जाता है, जो कि अधिकतर मामलों में सही नहीं है| उदहारण के तौर पर शीला-खेड़ी जनसंख्या के हिसाब से बड़ा गाँव है जबकि उसी के साथ लगता रत्ता-खेड़ा उससे काफी छोटा, फिर भी पहले वाले के साथ खेड़ी जुड़ा है और दूसरे के साथ खेड़ा|
खेड़ा/खेड़ी का कांसेप्ट उसी प्रकार से समझा जा सकता है, जैसे कि जब दो भाई न्यारे हों तो पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा करते हैं, लेकिन अगर एक भाई किसी वजह से गाँव/नगरी से दूर जा बसे तो उस सूरत में वो नया खेड़ा बसाता है और गाँव/नगरी के नाम में "खेड़ा/खेड़ी" शब्द इस्तेमाल नहीं होता, क्योंकि वो गाँव/नगरी खुद नया खेड़ा होता है जो उस गाँव/नगरी में ही स्थापित होता है|
इस प्रकार उस नए गाँव/नगर की अपनी सीमा होती है और उसी सीमा में दो भाइयों के बंटवारा होने जैसे अलग हिस्से या टुकड़े में नया गांव/नगर बसे तो उसके नाम के साथ "खेड़ा" अथवा "खेड़ी" शब्द जोड़ दिया जाता है परन्तु उस गाँव/नगरी की सीमा में धरती पर स्थापित खेड़ा एक ही जगह रहता है यानी पैतृक गाँव में, क्योंकि इसको बंटवारा हुआ है कहते, पलायन नहीं| इस तरह बसे हुए गाँवों को छोटा व् बड़ा गाँव भी कहते हैं|
सीमा के अंदर बंटवारे वाली स्थिति में जो पैतृक यानी वयोवृद्ध गाँव कहलाता है, तो उसमें से निकले उसी की सीमा में बसे नए गाँवों की आपसी मसलों से संबंधित पंचायत, वयोवृद्ध यानी बड़े गाँव में ही लगती है| यह दूसरा अंश है "खेड़ा-खेड़ी" संस्कृति का| जैसे जब निडाना-निडानी (सिर्फ निडाना से गई आबादी की) व् ललीतखेड़ा गाँवों का कोई सामूहिक मसला अथवा निर्णय होना हो तो उसकी पंचायत निडाना में बैठेगी यानी बड़े गाँव में बैठेगी|
और ऐसा होता मैं मेरे बचपन से देखता आया हूँ, कि जब कोई राजनैतिक महत्वकांक्षा का आदमी तीनों गाँवों की वोट लेने की इच्छा रखता हो अथवा सामूहिक सहमति से उम्मीदवार बनना चाहता हो तो वह तीनों गाँवों को निडाना में इकठ्ठा करता है| ऐसे ही कोई अन्य जमीन या इंसान से संबंधित ऐसा मसला हो जो तीनों गाँवों को प्रभावित करता हो, उसकी पंचायत निडाना में बैठती है|
दादा खेड़ा सर्वजातीय आस्था का केंद्र: जाट एक शासकीय/राजकीय कौम होने, इसके अपने राजघराने और राजपाट होने, इसका अपना गणतन्त्र होने एवं सैन्य-बल और शोर्य की ऐतिहासिक मिशाल होने के साथ-साथ कृषि में इनकी विशेष दक्षता रही है| और क्योंकि युगांतर काल में लगभग सभी जातियों की आजीविका जाट की कृषि की उपज व् आमदन पर टिकी होती थी
(गावों में तो वर्तमान में भी), जिसकी वजह से हर जाति का जाट जाति संग वैधानिक रिश्ता होता था| वो जाट की मान्यताओं और आध्यात्मिक आस्थाओं को पूजते और मानते आये है/आते थे| जैसे कि एक लोहार को किसान जाट की तरफ से जितने ज्यादा औजार
(कृषि व् युद्ध सम्बन्धी दोनों) बनाने की मांग आती उतना ही ज्यादा उसका कार्य फलता-फूलता, जाट की अच्छी आमदन होती तो नाई को भी उसके अदली वाले किरदार के लिए अच्छा मेहनताना मिलता, जाट किसान के घर अच्छी आमदन होती तो बनिया और सुनार का भी अच्छा सामान बिकता और कारोबार में बढ़ोतरी होती| ऐसे ही दलित जातियों को भी खेत-मजदूरी के लिए ज्यादा रोजगार उपलब्ध हो पाता| हालाँकि हरयाणा ही पूरे देश में ऐसी जगह होगी जहां कि ब्राह्मण सबसे अधिक खेती करके खाता है/था पर धर्म-पुन: के लिए ब्रहामणों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है खासकर माइथोलॉजी की रचना करने में, इसलिए जाट किसान के यहाँ अच्छी आय होती तो धर्म के लिए भी दान-पुन: ज्यादा मिलने की उम्मीद जगती| कुम्हार के बनाए घड़े, झीमर/जुलाहे का कपड़े भरने और बुनने का कारोबार, तेली का तेल निकालने का कारोबार, दर्जी की मशीन में धागा, खाती का काठ व् मकान चिनवाई का काम व् मिरासी का रंगमंच भी तभी सजता जब जाट-जमींदार के यहाँ अच्छी आवक होती| तो इस तरह सदियों से जाट जाति लगभग हर जाति की आय-उन्नत्ति का केंद्रबिंदु रही है| इसीलिए जाट की मान्यताओं को सभी आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखते आये हैं और आदर देते आये हैं| तो ऐसे ही दादा नगर खेड़ा से सबकी आस्था जुड़ी रही है|
धरातलीय अध्ययन से ज्ञात होता है कि जाट के समकक्ष कृषक समाज जैसे कि राजपूत-गुज्जर-अहीर-सैनी आदि के यहाँ भी दादा खेड़ा का ऐसा ही स्वरूप स्थापित मिलता है। इसलिए दादा खेड़ा थ्योरी को लेकर इन जातियों में एक जैसी समझ पाये जाने से इसको कृषि जातियों की साझी संस्कृति भी बोला जाता है जो कि वास्तव में है भी, सिवाय मूर्ती पूजक व् मूर्ती उपासक की भिन्नता के। हालाँकि इस बात के कहीं-कहीं विरोधाभाष भी हैं परन्तु अमूमन सिद्धांत यही रहता है।
दादा नगर खेड़ा की महिमा एवं महत्वता: जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, दादा नगर खेड़ा जाट जाति की अटूट आस्था का प्रतिबिम्ब रहा है और क्योंकि जाट युगांतर काल से मूर्तिपूजा को नहीं मानने वाले रहे हैं इसलिए दादा खेड़ा में किसी भी प्रकार की मूर्ती या बुत नहीं पाया जाता, ये सर्वथा मूर्तिरहित खेड़ाल्य होते हैं| और जैसे कि खेड़ा-सभ्यतानुसार रविवार सबसे पवित्र दिन माना जाता है इसलिए हर महीने के शुक्ल पक्ष (हरयाणवी में चयांदण) के किसी भी रविवार को दादा खेड़ा में पूजा (ज्योत लगाने) का प्रावधान निर्धारित किया गया|
जैसे कि लगभग हर उस शायर और इतिहासकार जो कि इतिहास की महत्वता पर रचनाएं रचते हैं उनकी पंक्तियों में पाया जाता है कि "बिना इतिहास को जानें, कौमें अच्छे भविष्य का निर्माण नहीं कर सकती", "बिना इतिहास के जाने भविष्य की दिशा निर्धारित नहीं होती", "बिना इतिहास के जाने आपको कोई भी पथभ्रष्ट कर सकता है" और "ऐतिहासिक मान्यताओं और संस्कारों के आधार पर ही संस्कृतियाँ जिन्दा रहती है"; जैसी विचारधारा हमारे बुजुर्गों की रही और क्योंकि अयथार्थ (mythological) की रचनाएं हमेशा से प्रश्नचिन्हित रही हैं, भ्रांतियों से भरी रही हैं
सो उन्होंने "दादा खेड़ा" जिसका की यथार्थ से सीधा-सीधा नाता है को “एक गाँव-नगर-नगरी का सबसे बड़ा देवता” माना|
और यह मान्यता इतनी दृढ़ बताई जाती है कि इसकी वजह से जाटों पर ब्राह्मण विचारधारा से विमुख (anti -brahmin) होने के आरोप भी लगते आये हैं, जबकि फर्क सिर्फ अयथार्थ और यथार्थ का रहा है| अयथार्थ चरित्रों और कृतियों को पूजने की जगह यथार्थ को पूजा जाए तो इंसान भ्रमित नहीं रहता, उसको भावनाओं के आधार पर अपने धर्म से विचलित करना सरल नहीं होता| और ऐसा इंसान स्वत: इतनी सरलता से किसी के प्रभाव में नहीं आता क्योंकि इस यथार्थ की मान्यता से उसका सीधा-सीधा नाता होता है| यथार्थ को पूजने के गुण से इंसान की तर्क-क्षमता बढती है और इंसान चीजों को परखने की तेज समझ रखता है| और जाटों की इसी मूर्ती-पूजा रिक्त सभ्यता का प्रभाव रहा कि स्वामी दयानंद एक ब्राह्मण होते हुए भी 'आर्य-समाज' के नाम से ऐसे पंथ की स्थापना करते हैं जिसमें 'मूर्ती-पूजा' निषेध बोली गई| और कहने की जरूरत नहीं कि उनका यह प्रयोग हरयाणा की धरती पर इतना सफल क्यों रहा|
सामूहिक एवं सामाजिक कार्यों की शुरुवात "जय दादा नगर खेड़ा की" के उद्घोष से जाती है: खापलैंड के गावों में कोई भी सामाजिक एवं सामूहिक कार्य जैसे कि "जोहड़ खुदाई", किसी भी तरह की लहास करना, कोई सासंकृतिक कार्यक्रम जैसे कि "सांग", "नौटंकी" व् विगत दशक तक प्रचुरता से किये जाते रहे "आर्य-समाज प्रचार सम्मेलनों"को शुरू करने से पहले और कार्य के शुभ और सुखद अंत एवं सफलता हेतु दादा नगर खेड़ा की टेर लगाई जाती है और "जय दादा नगर खेड़ा" बोला जाता है| हालाँकि आजकल भ्रांतियों का युग चला हुआ है और कैसे ग्रामीण युवा को उसकी मान्यताओं से पथ-भ्रष्ट करने के प्रयास हो रहे हैं, अब उसका जिक्र करने जा रहा हूँ|
दादा नगर खेड़ा को ले युवा-वर्ग में भ्रांतियां फ़ैलाने के प्रयास: क्योंकि मेरा गाँव शुरू दिन से मूर्ती-पूजक की बजाय मूर्ती-उपासक
(बिना हाथ जोड़े मूर्ती के आगे श्रद्धा से खड़ा हो उससे प्रेरणा लेने की विधि) मान्यता का बड़ा गाँव रहा है जिसकी वजह से पाखंडियों की तरफ से मेरे गाँव को
"सांड छोड़ राख्या सै" की उपाधि मिली हुई है लेकिन इस पाखंडों से रहित गाँव में भी पाखंड फैलाने के कैसे-कैसे प्रयास हो रहे हैं, उसकी पूरी वार्तालाप आपके सामने रख रहा हूँ| यह वार्तालाप मेरे और गाँव में दूसरे पान्ने से मेरे भतीजे के मध्य फोन पर हुई थी| इस भतीजे से मैं पहली बार बात कर रहा था, तो आपस में परिचय और प्रणाम की औपचारिकता पूरी होने के बाद गाँव की सभ्यता और संस्कृति की वर्तमान हालत पर बात निकल पड़ी, जो कि कुछ ऐसे हुई:
चाचा: हमारी संस्कृति की मूल पहचान हैं हमारे गाँव में पाए जाने वाले दादा नगर खेड़ा का खेड़ाल्य|
भतीजा: क्या बात करते हो चाचा, आपको असली बात बता दी ना तो "दादा खेड़ा" को उखाड़ के फेंकने का मन करेगा|
चाचा: क्या बात करता है? ऐसा क्या सुना जो ऐसा कह रहा है?
भतीजा: चाचा "दादा खेड़ा" हिन्दुओं की नहीं अपितु मुस्लिमों की देन है|
चाचा: वो कैसे?
भतीजा: मेरे को एक आर्यसमाजी आचार्य ने बताया|
चाचा: जरा खुल के बताएगा पूरी बात?
भतीजा: हाँ क्यों नहीं, वो अपने गाँव के एक प्राइवेट स्कूल ने पिछले हफ्ते 2 दिन का आर्यसमाज केम्प लगाया था, जिसमें "आर्य-प्रतिनिधि" सभा से आये एक आचार्य ने बताया कि "जब हमारे देश में मुगलों का शासन था तो वो हमारी नई दुल्हनों को लूट लिया करते थे और अपनी पूजा करवाते थे, जिसके लिए उन्होंने हर गाँव में उनकी पूजा हेतु ये दादा खेड़ा बनवाये थे" और तभी से दादा खेड़ा पर हमारी औरतें और बच्चे पूजा करती हैं|
चाचा: और क्या बताया उस आचार्य ने?
भतीजा: और तो कुछ नहीं पर अब मैं दादा खेड़ा को अच्छी चीज नहीं मानता|
चाचा को खूब हंसी आती है|
भतीजा (विस्मयित होते हुए): आप हंस रहें हैं?
चाचा: हँसते हुए...अब मुझे समझ आया कि खापलैंड पर आर्यसमाज की पकड़ दिन-भर-दिन ढीली क्यों होती जा रही है|
भतीजा: वो क्यों?
चाचा: क्योंकि इसमें पाखंडी घुस आये हैं|
भतीजा: आप एक आर्य-समाजी आचार्य को पाखंडी कहते हैं?
चाचा: तो और क्या कहूँ? तूने तुम्हारी माँ-दादी या दादा को ये बात बताई?
भतीजा: नहीं?
चाचा: क्यों नहीं?
भतीजा: मुझे आचार्य की बात सच्ची लगी?
चाचा: आचार्य की बात सच्ची नहीं थी बल्कि उसका प्रस्तुतिकरण भ्रामक था और उसके भ्रम में तुम आ गए|
भतीजा: वो कैसे?
चाचा: दादा खेड़ा की जो कहानी आचार्य ने तुम्हे सुनाई वो सच्ची नहीं है, और क्योंकि तुम पहले आचार्य से ये बातें सुनके आये तो सर्वप्रथम तो मुझे तुम्हारा भ्रम दूर करने हेतु आचार्य के तर्क के सम्मुख कुछ तर्क रखने होंगे और फिर दादा खेड़ा की सच्ची कहानी तुम्हें बतानी होगी| अत: मैं पहले तर्क रख रहा हूँ, जो कि इस प्रकार हैं:
दादा खेड़ा एक मुस्लिम कृति या मान्यता नहीं है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज के दिन किसी भी गाँव में दादा खेड़ा नहीं होते|
भतीजा: वो कैसे?
चाचा: उसके लिए तुम्हें "सर्वखाप " का इतिहास जानना होगा, "खाप" जानते हो ना क्या होती है?
भतीजा: ज्यादा नहीं सुना?
चाचा: हमारी खाप का नाम है "गठ्वाला खाप"|
भतीजा: हाँ, हम गठ्वाले हैं ना?
चाचा: हाँ, तो अगर दादा खेड़ा मुस्लिम देन होती तो यह उसी वक्त खत्म हो गई होती, "जब जाटों की गठ्वाला खाप के बुलावे पे आदरणीय सर्वजातीय सर्वखाप ने मुस्लिम रांघड़ नवाबों की कलानौर रियासत तोड़ी थी"
(और फिर मैंने उसको कलानौर रियासत के तोड़ने का पूरा किस्सा विस्तार से बताया) और पूछा कि जो वजह आचार्य ने दादा खेड़ा के बनने की बताई उसी वजह की वजह से तो कलानौर रियासत तोड़ी गई थी......सो अगर ऐसी ही वजह दादा खेड़ा के बनने की होती तो बताओ खापें उनके गावों में दादा खेड़ा को क्यों रहने देती?
भतीजा: ये बात तो है चाचा!
चाचा: अब दूसरा तर्क सुन, दादा खेड़ा की पूजा रविवार को होती है जबकि मुस्लिमों का साप्ताहिक पवित्र दिन होता है शुक्रवार (उनकी भाषा में जुम्मा)?
भतीजा: हाँ
चाचा: तो अगर उनको खेड़ा पूजवाना ही होता तो वो शुक्रवार को क्यों ना पुजवाते?
भतीजा: आचार्य कह रहे थे कि दादा खेड़ा पर नीला चादरा चढ़ता है, जो कि मुसलमानों की दरगाहों पर चढ़ाया जाता है?
चाचा: नहीं भाई, दादा खेड़ा का सफ़ेद चादरा/फटका होता है, नीला नहीं और अगर कोई नीला चढ़ा जाता है तो वह ऐसा अज्ञानवश करता है| नीला चादरा/फटका सैय्यद बाबा की मढी पर चढ़ता है, दादा खेड़ा पर नहीं| हाँ अगर तेरा आचार्य सैय्यद और दादा खेड़ा में कोई समानता ढून्ढ रहा हो तो कृप्या उसको बता देना कि दोनों अलग मान्यताएं हैं|
भतीजा: हम्म.....और जब भी गाँव में नई बहु आती है तो उसको दादा खेड़ा पे धोक लगवाने क्यों ले जाया जाता है, क्या यह बात आचार्य की बताई बात से मेल नहीं खाती?
चाचा: नहीं, नई बहु तो क्या, नया दूल्हा जब मेळमांडे वाले दिन केसुह्डा फिरता है तो वह भी दादा खेड़ा पर धोक लगाता है और
इस धोक का उद्देश्य होता है अपनी नई शादीशुदा जिंदगी की अच्छी और शुभ शुरुआत के लिए अपने पुरखों का आशीर्वाद लेना और इसी उद्देश्य से नई बहु शादी के अगले ही दिन गाँव के दादा खेड़े पर धोक मारने आती है| नई बहु को दादा खेड़ा पर लाने का एक उद्देश्य बहु को दादा खेड़ा से परिचित करवाना भी होता है|
भतीजा: सैय्यद बाबा की क्या कहानी है?
चाचा: सैय्यद मुस्लिमों के सिद्ध पीर हुए हैं, और मुख्यत: अपने गाँव में बसने वाली मुस्लिम जातियाँ उनकी अरदास करती हैं|
भतीजा: चाचा वो कह रहे थे कि हमारा गाँव पहले मुस्लिम रांघड़ों का खेड़ा था और हम बाद में आकर बसे|
चाचा: तो फिर इस हिसाब से तो उस आर्य-प्रतिनिधि सभा वाले आचार्य, आर.एस.एस. और तमाम हिन्दू संगठनों को हमें पुरस्कृत करना चाहिए कि हमने मुस्लिम रांघड़ों के खेड़े पर अपना खेड़ा बसा रखा है, नहीं?
भतीजा: चाचा आपने तो मेरी आँख खोल दी, वो आचार्य तो वाकई में हमें भ्रमित कर पथभ्रष्ट करने वाला ज्ञान बांटता फिर रहा है|
चाचा: जब कभी तुझे वो दोबारा मिले तो ये तर्क रखना उसके आगे और फिर देखना वो क्या जवाब देता है|
भतीजा: चाचा असल में हमारे बुजुर्ग हमें कुछ बताते ही नहीं...
चाचा: सारा दोष बुजुर्गों पर मत डालो, तुमने कोनसा बुज्रुगों से पूछा कभी? तुमने तो एक आचार्य की बताई बात पर आँख-मूँद विश्वास कर लिया? घर आकर तुम्हारी दादी, माँ या दादा को ये बात बताई होती तो वो तुम्हें जरूर इसकी सत्यता से अवगत करवाते|
भतीजा: अच्छा तो चाचा इसकी सत्यता क्या है?
फिर इस लेख की इस चाचा-भतीजा की वार्तालाप से ऊपर लिखे हुए तथ्य चाचा भतीजे को बताता है| सारी वार्तालाप सुन भतीजा कहता है कि चाचा आपने वाकई में मेरे चक्षु खोल दिए|
चाचा: अपने साथियों को भी इस सच्चाई से अवगत करवाना| और उनको यह भी कहना की गए डेढ़ दशक पहले तक यही आर्यसमाजी हमारे गाँव में जो भी कार्यक्रम करते थे उसमें, 'जय दादा नगर खेड़ा' और 'जय निडाना नगरी' का उद्घोष लगा के ही तो प्रचार का कार्यक्रम प्रारम्भ किया करते थे और यही नारे लगा के कार्यक्रम सम्पन्न होते थे| तो इनसें पूछें कि मात्र डेढ़ दशक के काल में ऐसा क्या हो गया कि उसी दादा खेड़ा को यह गिराने की बात करने लगे|
भतीजा: जी बिलकुल करवाऊंगा और आगे से पुछवाऊँगा भी!
"चाचा-भतीजा वार्तालाप समाप्त"
दादा नगर खेड़ा की महिमा और महत्वता सर्वोपरी बनी रहने में ही सच्ची धार्मिक आस्था और आध्यात्म की स्थिरता है, जिसके लिए:
- बुजुर्गों से नई पीढ़ी तक उनकी सामाजिक और आध्यत्मिक धरोहर और मान्यताओं का सम्पूर्ण स्थान्तरण सुनिश्चित करना होगा|
- गाँव से सम्बन्धित जिला/तहसील के पटवार/गिरदावरी विभाग में जा अपने गाँव के पुराने से पुराने रिकार्ड में से वो हर संभव जानकारी जैसे कि गाँव कब बसा, किसने बसाया निकलवा के गाँव की हर सार्वजनिक जगह जैसे कि स्वयं दादा खेड़ा, चौपाल, बस-अड्डे, चौपाल-जानकारी पट्टल पर ये चीजें अंकित करवानी होंगी ताकि गाँव के हर बच्चे-जवान-बुजुर्ग समेत गाँव में आने वाले मेहमान-आगन्तुक तक को यह जानकारी हासिल रहे|
- जैसे ब्राह्मणों ने नागा-साधुओं के डेरे बना, धार्मिक मान्यताओं और संरक्षण की जिम्मेदारी उन पर सौंप रखी है ऐसे ही "दादा खेड़ा" परम्परा की ध्वज-वाहक जाट जाति को योद्धेय बनाने होंगे, जो धरती पर घूम-घूम कर अपनी धरोहर को संजो कर रखें|
जाट याद रखें कि दूसरी जातियों द्वारा स्थापित इतनी महान दूसरी कोई कीर्ति नहीं जिसको कि ब्राह्मण भी पूजते हों, सर्वथा सारा जग ब्राह्मणों द्वारा बनाई आस्थाओं और सिद्धांतों को पूजते आये हैं; दादा नगर खेड़ा ही एक ऐसी महान कृति है जिसपे औरों के लिए धर्म बनाने का दावा करने वाले भी भी शीश नवाते हैं| और यह नजारा हरयाणा के हर गाँव में दादा खेड़ा की होने वाली पूजा-समारोह में देखा जा सकता है| इसलिए विशेषत: जाट अपनी इस अजेय और अटूट आस्था को संजोयें रखें| वो चाहें तो इस आस्था को उस स्तर तक ले जा सकते हैं जहां आज सिखों ने गुरुद्वारों को पहुंचा रखा है|
और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन मीडिया से ले बुद्धिजीवी वर्ग तक जाट जाति और सामाजिक संस्थान खापों को हर इस-उस सामाजिक बुराई में घसीटना छोड़ देंगे| जरूरत है तो अपनी ही मान्यताओं और आस्था को गूँज के गर्व से गले लगाने और धारण करने की|
- ब्राह्मणों से सीख लेनी होगी कि वो कैसे हिन्दू धर्म के ध्वजवाहक होते हुए भी जीवन के हर कार्यक्षेत्र में अपनी उपस्थिति और श्रेष्ठता कायम रखते हैं, और वो कायम रख पाते हैं इसलिए क्योंकि वो हर क्षेत्र में संगठित रूप से जिम्मेदारी लिए हुए हैं:
- वो नेता भी बनाते हैं तो इस स्तर के कि देश की 66 साल की आजादी में लगभग 50 वर्ष तक ब्राह्मण ही प्रधानमन्त्री बनता है|
- वो अभिनेता भी बनाते हैं तो ऐसे कि जो सदी के महानायक कहलायें (और यह भी बावजूद इसके कि वो नाचने-गाने वालों को भांड तक कहते हैं, लेकिन सिर्फ लोकदिखावे और लोक-भ्रमिता के लिए कहते हैं)| वो अपने अभिनेताओं की रक्षा भी करते हैं तो ऐसे कि देश के सुप्रीम कोर्ट में जज रह चुके लोग भी उनकी पैरवी करते नजर आते हैं वो बात अलग है कि फिर वो लोकापवाद से बचने हेतु दुसरों के लिए भी ऐसी ही माफ़ी मांगने लग जाते जाते हैं (यहाँ मैं व्यक्ति की व्यक्तिगत गंभीरता के चलते नाम नहीं रख रहा हूँ, वरन समझदार अपने ज्ञान के आधार पर जितने चाहें उतने उदहारण इसमें आंट सकते हैं)|
- वो खिलाडी भी पैदा करते हैं तो ऐसे जो किसी के दबाव या राजनीती के तहत नहीं बल्कि अपनी मर्जी से सन्यास लेते हैं| और वो उनको ऐसा सहयोग और माहौल बना के देते हैं|
- वो मन्दिर की चंदे पर कब्जा रखते हैं तो ऐसे जैसे 2012 में हरियाणा के भन्भौरी वाले शीतला माता के मंदिर का एकाधिकार सरकार के हाथों से अपने हाथों में ले लिया| जिसकी सालाना दान राशि 5 करोड़ रूपये से ज्यादा होती है, जबकि ऐसा ही शीतला माता का गुडगाँव वाला मन्दिर जाटों का होते हुए भी जाटों के नियन्त्रण में नहीं, जबकि उस मन्दिर की सालाना दान राशि 10 करोड़ रूपये बैठती है|
- वो धार्मिक इतिहास की धरोहर को संजो के रखते हैं तो ऐसे कि उसके लिए नागा साधुओं को स्थाई दाईत्व सोंप रखा है, असल में नागा साधुओं का उद्देश्य ही यह होता है कि वो धार्मिक मान्यता और धरोहर को संजो कर तो रखें ही साथ ही इसमें वृद्धि के मार्ग भी प्रशस्त करें|
और बाकी के ब्राह्मण अपनी जन्मजात गुण के चलते अपने ऐच्छिक क्षेत्र में अपना जीवन संवारते हैं| और इन दूसरे क्षेत्रों में अपना जीवन सुधारने वालों को धर्म और मान्यता की तरफ से सुनिश्चितता रहती है कि तुम्हारी जाति ने अपने ही एक वर्ग (नागा साधुओं) को धर्म के संरक्षण में लगा रखा है और इसीलिए ये लोग ज्यादा तरक्की करते हैं| जबकि हम मूल स्वभाव से इनके विपरीत होते हुए भी अपनी मान्यताओं को सँभालने और संजोने के जगह, एक अनचाही भटकन से ग्रसित कभी इस धर्म के द्वार तो कभी उस धर्म के द्वार भटकते रहते हैं और हमारी अपनी मूल मान्यताओं के स्त्रोत जैसे की "दादा नगर खेड़ा" बाट जोहते रहते हैं कि हमारे लाल कभी हमारी भी सुध लेंगे| और यही वो भटकन है जिसको हमें ठीक कर हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यता में स्थिरता लानी होगी, पिछली एक शताब्दी से यह स्थिरता आर्यसमाज ने हमें दी थी लेकिन इस लेख में चर्चित पाखंडों के चलते हम आर्यसमाज से भी विमुख होते जा रहे हैं और इस विमुखता को मुखर बनाने हेतु हमें अपने मूल स्वभाव के सम्पूर्ण अनुकूल अपने "दादा खेड़ाओं" को संजोना होगा, हमारे ऐतिहासिक वीरों-वीरांगनाओं को उसी उत्साह और विश्वास से गाना होगा जिससे कि आज सिख या अन्य पंथी लोग गाते हैं|
मैं जब गुरु गोबिंद सिंह या गुरु तेग बहादुर जी की कुर्बानी की गाथाएं पढता हूँ और उधर "समरवीर गोकुला जी", "औरंगजेब के दरबार में मौत और इस्लाम में से मौत को चुनने वाले उन 21 खाप योद्धाओं की" और "कलानौर रियासत को तोड़ने वाले खापवीरों" की गाथाएं पढता हूँ तो दोनों में किसी को कमतर नहीं पाता| हाँ कमतर पाता हूँ तो सिर्फ एक पहलू पर और वो है अपने वीरों के बलिदान को मान्यता देने के जज्बे पर| हमें अपनी मूल-प्रवृति को स्व-मान्यता देनी होगी और क्योंकि हमारी मूल प्रवृति हमको अपनी मान्यताओं की तरफ खींचती रहती है जबकि हम भ्रमित हो दौड़ते किसी ओर रहते हैं और इसीलिए हमारी संस्कृति और मान्यताएं को मीडिया हर इस-उस सामाजिक बुराई के लिए घसीटता रहता है|
इसके हेतु धन की आवश्यकता पड़ती है और यह धन कहाँ से जुटेगा:
भारत के वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने गत वर्ष संसद मे कहा था कि हमारे देश में 5 लाख 74 हजार बड़े और मध्यम दर्जे के मंदिर है...उन मन्दिरों में 12 हजार 800 मट्रिक टन सोना है| उन मंदिरों मे दान-दक्षिणा के तौर पर प्रतिवर्ष जो राशी जमा होती है उसकी कीमत 12 लाख 1 हजार करोड़ रुपये है| आज सोने का दाम करीब 28000 रुपये प्रति 10 ग्राम है, आज की तारीख में यह राशी तक़रीबन 25 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा बैठती है| अगर दक्षिणा के पैसों को इसमें मिला दिया जाये तो यह राशी 40 लाख के भी आगे बैठती है| और भारत का वार्षिक बजट 13 लाख करोड़ का होता है, जो कि मन्दिरों में प्रतिवर्ष चढने वाले दान-दक्षिणा के चढ़ावे से नाममात्र ही ज्यादा है|
तो यह राशि है जो ब्राह्मण अपने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में सलंग्न लोगों की चौतरफा मदद के लिए इस्तेमाल करते हैं| हालाँकि इस दान-चंदे से अर्जित धन का स्कूलों-धर्मशालाओं और अन्य सामाजिक भलाई के कार्यों में भी प्रयोग होता है परन्तु कितना प्रतिशत, पाठक इसका खुद मंथन कर सकते हैं|
तो अब हमें इस राशि को या तो ब्राह्मणों से आग्रह कर अपने दादा खेड़ाओं और हमारी ऐतिहासिक हस्तियों जैसे कि किसानवीरों की गाथाएं और स्मारक स्थल बनवाने हेतु लगवाना होगा, अन्यथा अपने स्तर पर "योद्धेय" बनाने होंगे और उनको दान-पुन का धन दे इन चीजों को गाँव-गाँव, नगर-नगर बनवाना होगा|
और जो ये कहते हों कि मैं यह कैसी बात कर रहा हूँ कि दान भी कभी कहके खर्च करवाया जाता है, तो ऐसा कहने वाले याद रखें कि बिना रोये तो माँ भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती तो फिर बिना कहे या किसी की इच्छा के दान की राशि एक स्थल-समूह-व्यक्ति-वर्ग विशेष पर कैसे लगती होगी| दान की राशि को कोई पैर तो होते नहीं कि वो अपने आप अपने लगने का उद्देश्य और स्थल चुनती हो, आखिर उसको लगाते तो मनुष्य ही हैं| वरना भंभौरी शीतला माता के मन्दिर की राशि आज भी सरकारी खजाने में जाती जो कि नवम्बर 2012 के बाद मन्दिर के ट्रस्ट के हाथों में आ गई है|
निष्कर्ष: दादा खेड़ा धार्मिक धरोहर और मान्यता की वाहक जाट और अन्य जातियों को इन मुद्दों पर सचेत होना होगा, ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे कि समाज में उनकी इस धरोहर और अभिमान को जीवित रखा जा सके| और उस सुनिश्चतता का मार्ग प्रशस्त होगा, अपनी धार्मिक और अध्यात्मिक धरोहर के इतिहास, विरासत, भविष्य और वर्तमान को सुनिश्चित कर हमारी धार्मिक मान्यता जितनी सुनिश्चित होगी उतने ही हम अपने कर्मक्षेत्र में दृढ़ बनेंगे|
आज के दिन दादा नगर खेड़ा की संस्कृति के वाहक अपनी आध्यामिकता को ले कर सुनिश्चित नहीं दीखते इसलिए उनकी जाति और सामाजिक संस्था खापें गाहे-बगाहे समाज के receiving end पर रहती हैं और मीडिया और हर ऐरी-गैरी NGO समाज की हर बुराई उनके माथे मढ़ देते हैं| और यह होता ही रहेगा जब तक कि अगर हमनें अपने आध्यात्म और अस्तित्व को सुरक्षित व् सुनिश्चित नहीं किया तो| और इसकी सच्चाई की बड़ी वजह यह भी है कि दादा नगर खेड़ा को मानने और पूजने वाली धारा मानव धर्म की वो धारा है जो यथार्थ पर विश्वास करती है, अयथार्थ इनके गले नहीं उतरता| तो जब यथार्थ को ही पूजना है तो उसकी सुरक्षा और मान्यता को सुनिश्चित करना ही इस धारा के लोगों का पहला फर्ज होना चाहिए| अंत में यही कहूँगा कि जिस वर्ण-व्यवस्था के जाल में हिन्दू धर्म के निचले तीन वर्ग अपने आपको जकड़ के रखते हैं वो उस जकड़न को छोड़ें और अपनी जाति के लिए हर कार्यक्षेत्र में भागीदारी और सर्वश्रेष्ठता सुनिश्चित करें|