20/08/13 को आडम्बरों-पाखंडों के खिलाफ प्रकाश की ज्योति जलाने वाले ‘नरेन्द्र दाभोलकर जी‘ की हुई अकस्मात हत्या के बाद मीडिया ने पाखंडों, ढोंगियों, टूणे-टोटकों के खिलाफ ऐसी डिबेट छेड़ी, लगा कि जैसे अब तो ये भारत को आडम्बर और पाखण्डमुक्त बना के ही हटेंगे| दंभ सा होने लगा कि जैसे ये सदा से ही इन आडम्बरों के खिलाफ थे और अब तो ढोंगी-पाखंडियों की खैर नहीं| पर अंत में हुआ वही जो ऐसी घटनाओं में औपचारिकता मात्र होता है, दो दिन में मामला शांत तो मीडिया भी अदृश्य। प्रिंटेड खबरें भी पढ़ी और कई टी. वी. डिबेट्स भी देखी और सच कहूँ तो इनको देख के एक तरफ जहाँ इन डिबेट करवाने वालों पे हंसी आ रही थी तो कहीं दूर अंतरात्मा में गर्व की अनुभूति भी हो रही थी। यह अनुभूति थी उस बचपन के माहौल की जो मैंने इन पाखंडों से दूर रहने वाले मेरे गाँव और इनसे दूर रहने की शिक्षा देने वाले मेरे बुजुर्गों की छत्रछाया में बिताया। |
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जब-जब ऐसे वाकयों में गाँव-शहर की तुलना करने को मिलती है तो समझ आता है कि संसार में रोजी-रोटी सिर्फ इमानदारी से ही नहीं अपितु बुराई के नाम पे समाज को कोसने और उस कोसने में खुद को आधुनिक और चेतन्य दिखाने की नौटंकी करके भी कमाई जा सकती है। जिन पाखंडों पर ये लोग कार्यक्रम कर अपने आपको आधुनिक और अंधविश्वासों से दूर रहने की चर्चा भर करते हैं वो मेरे हरियाणे के गावों में पहले से क्रियान्वित रूप में विद्यमान होते थे (आज कितने हैं वो तो यह आधुनिकता ही बताये)। शायद हरियाणा देश का ऐसा पहला राज्य होगा जहां, आधुनिकता के साथ आडम्बर बढे हैं वर्ना आज से आठ-दस पहले जो तस्वीर थी उसमें आडम्बर तो कम से कम नहीं थे| मेरे इस दावे का एक उदहारण पेश कर रहा हूँ, मेरे ही गाँव की कहानी बता के:
आज के बदलते परिवेश का तो मुझे पता नहीं कि क्या मेरा गाँव आज भी छुट्टा हुआ सांड है या नहीं क्योंकि स्वघोषित मानव-रुपी भगवानों की संख्या ऐसे बढ़ी है जैसे बारिस के वक़्त कुकरमुत्ते विस्फुटित होते हैं। दिन-प्रतिदिन हरियाणा की धरती पर दूसरे राज्यों से विस्थापित हो आते भाई-बंधू भी अपने-अपने अध्यात्म की मान्यताएं साथ ला रहे हैं तो कहना मुश्किल है कि मेरे गाँव पे इन चीजों का असर ना पड़ा होगा।
पता नहीं अच्छे हैं या बुरे पर ये सांड छूटने वाले और रात को रुके हुए साधू के पिट के जाने के किस्से मेरे गाँव में आज भी गाहे-बगाहे दोहराए जाते हैं। और वो पिटते हैं क्योंकि ढोंग और पाखंड दिखाने की आदत से वो बाज आते नहीं और वहाँ के लोग इनको सहन करते नहीं| आखिर ये
"सांड छोड़ राख्या सै" की बला है क्या, चलिए पहले इसी के बारे बता दूं:
"सांड छोड़ राख्या सै" एक जीवंत किस्सा जो कि जमानों से मेरे गाँव का ट्रेडमार्क भी रहा है: बचपन के दिनों में एक दिन मैं मेरे सीरियों (सीरी - शहरी और व्यापारिक भाषा में नौकर, गाँव की भाषा में काम से ले दुःख-सुख का साझी) के साथ खेतों पर काम कर रहा था, कि तभी खेतों से लगते कच्चे रास्ते (गाँव की भाषा में 'गमी') से दो साधू आते दिखाई दिए। उनमें से एक साधू ने हमारे गाँव की तरफ इशारा करते हुए पूछा कि बच्चा ये कौनसा गाँव है? तो हमारा एक सीरी बोला कि महाराज "निडाना"। इतना सुनते ही उस साधू ने अपने साथी साधू से कहा कि रैन-बसेरे के लिए (रात को ठहरने के लिए) हम इस गाँव में नहीं जायेंगे। तो दूसरे साधू ने उत्सुकतावश पूछा कि ऐसा क्यों? तो पहला साधू कहता है कि हमारी बिरादरी ने इस गाँव को "सांड छोड़ राख्या सै"। इतना सुनते ही हमारे सीरी ने बीच में टोकते हुए कहा कि महाराज साड़ी बिरादरी के लिए नहीं अपितु ढोंगी और पाखण्डी बाबाओं के लिए। और वो विस्य्मित भाव से दूसरे गाँव के लिए मुड़ गए|
इस वाकये ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी तो मैंने हमारे सीरी से पूछा कि ये क्या बात थी? तो सीरी ने उत्तर देते हुए कहा कि, "
बेटा, इसका मतलब सै अक इस गाम में झूठे और पाखंडी साधू-संतों को जूते पड़ते हैं सो बेहतर होगा कि हम इस गाँव में ना जाएँ" अर्थात निडाना गाँव झूठे, बुगला-भगत, आडम्बरी बाबाओं को सबक सिखाने के लिए साधू बिरादरी में मशहूर है इसलिए इस गाँव से दूर ही रहने में भलाई है। इतना सुनकर मैं और मेरे सीरी सब जोर के ठहाकों में लोट-पोट हो गए|
और क्योंकि मेरे सीरी जिन्होंने बाबाओं से बात की वो गाँव के रिश्ते से मेरे दादा लगते हैं
(जी हाँ हरियाणवी संस्कृति की यह वो खूबी है जिसमें नौकर दलित हो या स्वर्ण, उसको रिश्ते से ही बुलाने का विधान है) ने आगे कहा कि, "पोता, पुराने जमाने में हमारे गाँव में एक बहुत बड़ा डेरा होता था लेकिन अमर्यादित व् समाज को पथ-भ्रष्ट करने की हरकतों की वजह से गाँव वालों ने उस डेरे को उजाड़ दिया। और तब से हमारे गाँव में "दादा नगर खेड़ा" व् "देबी माई" की मढ़ी के आलावा कोई अन्य मंदिर नहीं। "दादा नगर खेड़ा" को ही गाँव सबसे बड़ा देवता मानता है और "देबी माई" को गाँव की सबसे बड़ी देवी। और इन दोनों में ना ही तो कोई मूर्ती-पूजा होती है और ना ही कोई पुजारी। निर्धारित विधिनुसार सिर्फ ज्योत जला के गाँव को बसाने वाले देवताओं की पूजा की जाती है।
और उस डेरे के उजाड़ने के दिन के बाद से ही निडाना गाँव के नाम से "सांड छोड़ राख्या सै" नाम जुड़ गया।
तो यह थी "सांड छोड़ राख्या सै" की कहानी और मुझे विश्वास है कि अगर कोई बड़ा सा बदलाव इन चीजों में नहीं आया होगा तो आज भी यह ट्रेडमार्क निडाना पे लगा हुआ है। हाँ बताता चलूँ कि वो "दादा सीरी" आज भी
(इस लेख को लिखे जाने वाली दिनांक के दिन) जीवित हैं|
हालाँकि मैंने कभी ऐसे काम नहीं किये
(या शायद करने का मौका नहीं लगा) परन्तु मुझे ऐसे कई वाकये याद हैं जब मेरे गाँव में कई साधू डेरा बनाने के मकसद से आये, गाँव वालों ने उनको मौका भी दिया परन्तु हफ्ते-दस दिन वो ठीक रहते और ग्यारहवें दिन उनके वही लक्षण।
ऐसे ही एक पाखंडी साधू का किस्सा: 2004 की बात है, एक हठी साधू गाँव की "देबी-माई" की मढ़ी पे धूना जमा के बैठ गया और कहने लगा कि मैं यहाँ एक विशाल मंदिर की स्थापना करना चाहता हूँ| वह इसके लिए गाँव के सरपंच
(जो कि मेरे चचेरे दादा जी हुआ करते थे) और ग्राम पंचायत से विशेष आज्ञा, संरक्षण और मदद मांगने हेतु पहुंचा। तो दादा जी ने कहा कि देखो साधू-महाराज, "हमारा आर्यसमाजी-विचारधारा का गाँव है| हमें बुद्धि के बौधिक और सकारात्मक विकास वाली भक्ति और धर्म पसंद है और अगर आप इनसे रत्तीभर भी दूर हटे तो मेरे गाँव के जींस में यह बात है कि वो आपको रातों-रात यहाँ से उठा देंगे। और ऐसा करने के लिए वो किसी पंचायत या मेरे आदेश तो दूर की बात सुझाव तक लेने की जरूरत नहीं समझेंगे|
तो इसपे साधू-महाराज ने कहा कि चौधरी साहब आप चिंता ना करें मैं आडम्बरों और पाखंडों से दूर रहने वाला सिद्ध-योगी हूँ और गाँव का भला करना चाहता हूँ। तो दादा जी नें कहा कि महाराज ठीक है, "दादा नगर खेड़ा" का नाम ले के अपनी कोशिश शुरू कीजिये, समय और परिस्थिति अनुरूप जो बन पड़ेगा आपके लिए किया जायेगा|
तो साधू महाराज चार-पांच दिन तो रहे संयम में, सुबह-शाम धूना लगाते, कुछ युवकों को प्रवचन सुनाते; पर छ्टे दिन से खबर आने लगी की फलाना बाबा के पास से नशे में टूलता हुआ आ रहा था, कभी खबर आती कि बाबा के धूने से नशीले धुए की लपटें आती हैं, तो कभी खबर आती कि बाबा और उसके नए-नए बने गाँव के ही दो-चार चेले अफीम-गांजा-सुल्फा का सेवन करते हैं। और ग्यारहवां दिन आते-आते बात गाँव की हर गली-नुक्कड़-बैठक की चर्चा का विषय बन गई।
लेकिन बारहवें दिन क्या खबर आती है कि बाबा गई रात को सरपंच के घर आया था कि चौधरी साहब मुझे बचाओ, ये गाँव के मलंग मुझसे बदतमीजी पर आमादा हैं और धमकियाँ दे रहे हैं| तो दादा सरपंच ने जब उसकी हालत देखी तो देखते ही समझ गए कि यह तो नशे में धुत्त है और मदद करने से इन्कार कर दिया| जिसपर बाबा जी उदास मन से वापिस धूने की तरफ गए और ऐसे गए कि फिर गाँव में लौट के नहीं दिखे| उनको किस बेकद्री से रातों-रात रुखसत किया गया होगा, आशा है आप समझ गए होंगे, मुझे विस्तार में लिखने की आवश्यकता नहीं| और यह था गाँव में मंदिर स्थापित करने का संकल्प ले पधारे महाराज का किस्सा|
सत्संगियों को भी बख्सा नहीं जाता था: और ऐसे ही किस्से बचपन में गाँव में हो रहे सत्संग के कार्यकर्मों में होते थे। गाँव में कोई ऐसी सत्संग की रात नहीं जाती थी जब गाँव में किसी ने सत्संग करवाने की कोशिश की हो और सत्संग करवाने वाले घर पे ईंट-पत्थर ना बरसे हों या उस घर की बिजली ना काट दी गई हो, या घर की बिजली नहीं कट पाती थी तो उस पान्ने वाले ट्रांसफार्मर पे जा के लाइन काट दी जाती थी
(जो गाँव का होगा वो ट्रांसफार्मर से लाइन का मतलब भली-भांति जानता होगा) या फिर राख की झोलियाँ भर सत्संग वाले घर पे बरसा दी जाती थी
(और सही भी है क्योंकि अगर आशाराम बापू जैसे सत्संगी हों तो उनपे तो ईंट-पत्थर बरसाना भी कम है)।
झोटा फलाइंग होती थी ऐसी चीजों पर नजर रखने को: क्यूँ चौंके तो नहीं कि रोडवेज की बसों में झोटा फलाइंग आती सुनी थी ये गाँव में ही कैसी झोटा फलाइंग? जी, झोटा फलाइंग होती थी मेरे गाँव में
(विक्षिप्त रूप में शायद आज भी है) ऐसे पाखंडों और ढोंगियों पर नजर रखने के लिए। असल में यह फलाइंग सिर्फ मेरे गाँव तक ही सिमित नहीं थी अपितु आस-पास के भी चार-पांच गावों के लोग इसमें होते थे और वो अपने-अपने गाँव में सक्रिय होते थे।
एक बार क्या हुआ कि एक घर में सत्संग हो रहा था तो झोटा फलाइंग के सदस्यों ने आ के उस घर के आगे हल्ला शुरू कर दिया और सत्संग बंद करवा दिया। तो घर का मालिक बोला कि मैं पुलिस केस करूँगा। और उसने पुलिस केस कर दिया परन्तु झोटा फलाइंग का इतना प्रभाव था कि पुलिस भी कुछ नहीं कर सकी; कारण कि जुलाना हल्के
(जिसमें की मेरा गाँव पड़ता है) का पूर्व-एम. एल. ए. भी इस फलाइंग का सदस्य था और उन्होंने इस फलाइंग की स्थापना अपने गावों में पाखंड और ढोंग पे नकेल लगाने को की थी| तो जब मामला इनके सम्मुख हुआ तो इन्होनें सर्वसम्मत्ति से पंचायत करके पास किया हुआ विधेयक दिखाया जिसमें कि इनके प्रभाव वाले गावों में ढोंग-पाखंड पे नकेल लगाने की बात थी और सत्संग करवाने वाला और उसके सत्संगी कोई ऐसी बात नहीं रख सके जिससे वो सिद्ध कर पाते कि हमारे कार्य से गाँव में यह-यह भलाई होगी|
लेकिन यह फलाइंग इसके संस्थापकों से बाद की पीढ़ी के हाथ में आके ख़त्म हो गई क्योंकि इसका इस्तेमाल व्यक्तिगत रंजिशों में ज्यादा होने लगा। इसके एक-दो पुराने सदस्य तो आज भी जीवित हैं|
तो यह थी आज से आठ-दस साल पहले की ढोंग-पाखंड और ढोंगी-पाखंडियों को ले मेरे गाँव की मति। उम्मीद है कि आज भी मेरा गाँव इन चीजों पे डटा हुआ हो। सत्संग वालों पे आज भी इंटें-पत्थर बरसते हैं कि नहीं यह तो नहीं कह सकता पर इतना जरूर सुनता हूँ कि आज भी पाखंडी और आडम्बरी साधू रात को मेरे गाँव में रुकने से कतराता है|