भूमिका: पर्दा दो तरह का होता है, एक भय का और एक अपराध का|
भय के कारण तीन चीजें परदे में रखनी पड़ती है:
1) अपनी धन-संम्पत्ति की चोरी ना हो जाए इसलिए उस पर ताले या पहरे का पर्दा,
2) जिसको हम इज्जत के नाम पर परिभाषित करते हैं उसकी सुरक्षा व् संरक्षण का पर्दा,
|
|
3) और अपनी पहचान ना खो जाए इसलिए उस पर इतिहास के तथ्यों व् अस्तित्व के प्रमाणों का हवाला बनाये रखने का पर्दा|
अपराध दो तरह के होते हैं, एक जो परदे के पीछे किये जाएँ और एक जो दिन-धोली किये जाएँ| परदे के पीछे चोरी और जारी के अपराध होते हैं|
लेकिन और जैसे कि इस लेख के शीर्षक से भी विदित है, हम बात कर रहे हैं औरत के घूंघट वाले परदे की| जो कि ऊपर-विदित दो प्रकारों में से "भय" वाली प्रकार में आता है| यह लेख इसी प्रकार के परदे के इर्द-गिर्द व्याखित रहेगा| आइये आज के परिदृश्य में इसके पहलुओं को समझने से पहले थोडा इसका इतिहास जानते हैं| लेकिन इससे पहले मैं इस लेख के सम्बोधन बारे दो शब्द कहते हुए चलूँगा|
सम्बोधन: औरतों को परदे में रखने को ले कर विभिन्न धर्मों के भिन्न मत हैं| किसी धर्म-सम्प्रदाय में यह एक धार्मिक मान्यता व् वैधता के अनुसार स्थापित किया गया, जैसे कि मुस्लिम धर्म तो अन्य दूसरे धर्म में इसको मजबूरी-वश लाया गया था जैसे कि हिन्दू-धर्म| एक तरफ जहां मुस्लिम धर्म की आयतें व् पवित्र धार्मिक पुस्तकें इसको जरूरी बताती हैं वहीँ हिन्दू-धर्म की धार्मिक पुस्तकों व् विचारधाराओं में इसको गैर-जरूरी वक्तव्य बताया गया है| और इसीलिए मेरे लिए यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी हो जाता है कि मेरा यह लेख किस धर्म-सम्प्रदाय को ले कर सम्बोधित है, वस्तुत: हिन्दू धर्म को ले कर, जहां कि यह किसी तरह की धार्मिक मान्यता ना होने के बावजूद आज इक्कीसवीं सदी में आकर भी प्रचलन में जारी है|
इतिहास: अब आते हैं तथाकथित हिन्दू-धर्म, वैदिक आर्य धर्म व् सनातन धर्म में प्रचलित पर्दा-प्रथा के इतिहास पर| इतिहास तो यही कहता है कि हिंदुस्तान की मूल जातियों-धर्मों वाले समाजों में पर्दा-प्रथा नहीं होती थी| ना ही इसका किसी वेद-ग्रन्थ-पुराण में इस प्रकार से जिक्र है कि यह आम-जीवन का हिस्सा बनाने जैसी चीज हो|
भारत की मूल प्रजातियों में पर्दा प्रथा किसी मान्यता, परम्परा के तहत नहीं अपितु दसवीं सदी के इर्द-गिर्द विदेशी आक्रांताओं से अपनी नारी शक्ति की सुरक्षा हेतु मजबूरी में अपनाया गया एक अस्थाई सुरक्षा कवच था जो कि 1947 में भारतवर्ष की आज़ादी के साथ ही चला जाना चाहिए था| मैं इस बिंदु पर ज्यादा नहीं रुकुंगा कि विदेशी आक्रांताओं से हमारी नारी-शक्ति को किस-किस प्रकार के खतरे होते थे और पर्दा इन खतरों से कैसे उन्हें बचाता था, क्योंकि मेरे लेख का उद्देश्य इससे आगे जाता है| वैसे भी जो भारत का इतिहास जानता होगा वो इसके इन पहलुओं से भली-भांति परिचित होगा|
शीर्षक की बात करता हूँ: आज के दिन पर्दा-प्रथा का समाज से जाना क्यों जरूरी है|
- पर्दा-प्रथा कोई परम्परा नहीं, एक मजबूरी थी: कहते हैं कि किसी भी प्रथा की नींव सर्व-जन सर्वमान्यता से सर्व-जन सुखाय के परिपेक्ष्य में संस्कृति के संवर्धन व् पालन के लिए होती है| जबकि पर्दा ना तो हमारी संस्कृति थी और ना ही इससे हमारे समाज में कोई आत्मिक-सुख की प्राप्ति करनी थी; अपितु विदेशी आक्रांताओं के भय से अपनी नारी-शक्ति को सुरक्षित रखने हेतु इसको अपनाया गया था| इसलिए जब यह ना ही तो परम्परा है और ना हमारी संस्कृति तो अब समाज से इसका जाना अतयंत आवश्यक है|
-
पर्दा-प्रथा औरत को वस्तु अथवा प्रॉपर्टी बनाती है, सहचारिणी या सहभागिनी नहीं: जबकि हमारी संस्कृति औरत को सहचारिणी व् सहभागिनी मानने की रही है, इसलिए अब इसका जाना जरूरी है|
- शर्म तो आँखों की बताई, पर्दे की क्या शर्म, पर्दे की आड़ में तो बड़े-बड़े गुनाह होते हैं: जैसे कि लेख की भूमिका में ही विदित किया कि पर्दा हर प्रकार के भय और अपराधों के कारण होता है, इसलिए बड़े-बड़े गुनाहों की पनाहगाह भी यही होता है| शर्म-लिहाज जिसमें होगी उसके आगे औरत ढकी निकले या अधखुली निकले, वह अपनी शर्म-लिहाज रखेगा ही रखेगा और जिसको शर्म-लिहाज नहीं, उसके लिए प्रदा तो एक निमंत्रण है|
- पर्दा अपराधी के हौंसले बढ़ाता है: औरत के परदे में होने के कारण, कोई मनचला अगर उससे मसखरी कर रहा होता है तो औरत उस प्रभाव से अपना विरोध नहीं जता पाती, जितना कि अगर वह परदे में ना होती तो जता सकती थी| और इससे मसखरे के हौंसले बुलंद होने में ही मदद मिलती है| जबकि अगर औरत पर्दे में नहीं होगी तो मसखरा पचास प्रतिशत तो औरत की नजरों से ही डरेगा और रही सही कसर फिर औरत अपनी प्रतिक्रिया दे कर पूरी कर पायेगी| अब यहाँ कोई मसखरा या पुरुषप्रधानी ये मत कह देना कि मुंहखुले जो होगी उसके बिगड़ने के भी तो आसार उतने ही बढ़ते हैं, तो इस पर मेरा उत्तर रहेगा कि एक तो ये मर्द सारे मुंहखुले होते हैं तो क्या ये शरीफ नहीं होते, दूसरा ये कि जिसको बिगड़ना होगा उसको तो फिर एक पर्दा क्या चाहे सात तालों अंदर रख लेना वो तो तब भी बिगड़ेगी|
- ऐतिहासिक हवालों के अतरिक्त आज के वक्त की मांग भी यही है कि सुखी और सम्पन्न परिवार चाहिए तो औरत को पर्दा-प्रथा से निकलना होगा: हालाँकि ऐसे तर्क मैं कभी इस्तेमाल नहीं किया करता लेकिन यह सच्चाई है तो है और सच्चाई यही कहती है कि औरत को बराबर के अवसर देने के लिए इस जरूरत को समझना होगा कि पर्दा उसकी सर्वांगीण तरक्की में कितना बड़ा बाधक है|
- औरत का पर्दा उसमें आत्महीनता व् अविश्वास की वजह बनता है: अगर औरतें पर्दे में रहती हैं तो अपने आपको दूसरी औरतें जो कि पर्दा नहीं करती या आमतौर पर अन्य इंसानों से हीन समझती हैं| वो अपने आपको असमर्थ महसूस करती हैं और जैसे तो स्व-जिंदगी से सम्बन्धित मसलों के लिए खड़ा होने के या अपनी बात पे स्थिर रहने के सारे अधिकार ही खो देती हैं|
- पर्दे का नारी की मृत्यु दर पर विपरीत प्रभाव: स्त्री-रोग विशेषज्ञों से बात करने पर पता लगता है कि पर्दा करने वाली औरतें अपने दुःख-दर्द को खुलकर बताने में पर्दा ना करने वाली से ज्यादा झिझकती हैं, जिससे कि उनके यथा-समय डाइग्नोसिस में देरी होती और कई बार तो बीमारी का पता ही तब लगता है जब वह निर्णायक समय की अवधि से बाहर चला जाता है| और इस प्रकार वो उत्तम उपचार से वंचित रह जाती हैं| इसीलिए बीमारियों से मरने वाली औरतों में भी पर्दा करने वाली औरतों का मृत्यु दर अन्य औरतों से ज्यादा पाया जाता है|
- पर्दा अनपढ़ता की निशानी: परदे में रहने वाले समाज में छोटी लड़कियों की आज़ादी को सीमिति करके देखा जाता है| ऐसे घरों में बड़े सोचते हैं कि इसको बड़ी हो कर वैसे भी परदे में रहना है तो ज्यादा-पढ़ा लिखाकर भी क्या करवाना| और परदे की वजह से पनपी सोच से समाज में अज्ञानता व् अशिक्षा फैलती है जिसके परिणामस्वरूप गरीबी बनी रहती है| और ऐसे समाज में बच्चे कुपोषण के शिकार बनते हैं और उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता, जिससे कि उनकी असामयिक मृत्यु तक हो जाती है|
पर्दा-प्रथा एक दिन में ख़त्म नहीं हो सकती, तो फिर इसके लिए प्रक्रिया क्या हो?: इसके लिए मजबूरी-वश शुरू हुई इस प्रथा की आज की जटिलताओं को समझते हुए, उसके अंदर से ही रास्ते निकालने होंगे, जैसे कि:
- क्या पुरुषप्रधानता इसको सहमति देगी: यदि देने को तैयार नहीं है तो पुरुषप्रधानता के सामने सिख धर्म का उदहारण प्रस्तुत है| इस धर्म में पर्दा-प्रथा नहीं है; इसलिए क्या इस प्रश्न से पुरुषप्रधानता के मन जो भी आशंकाएं उठती होंगी, उनको इस धर्म में औरत-पुरुष के बिना पर्दा-प्रथा के सुखमय जीवन से स्वत: जवाब नहीं मिल जाता है कि अगर पर्दा-प्रथा खत्म हो जाए तो उनके समाज में मानवता और भी ज्यादा फले-फूलेगी?
- पर्दा-प्रथा एक गैर-जरूरी अहसास व् जिम्मेदारी है: पुरुषों का वह वर्ग जो औरत के लिए पर्दा चाहता है वह यह भी देखे कि औरत से पर्दा करवाने हेतु आपका विशेष ध्यान उसी और बंटा रहता है, जबकि आप उस ध्यान को कहीं और लगा के कहीं ज्यादा अच्छा कार्य कर सकते हैं| पर्दा पुरुष के अंदर एक जटिलता और ठहराव लाता है, यह मानवता के फलने-फूलने पर एक ब्रेकर की विराजमान रहता है| आदमी एक ऐसी चीज में उलझा रहता है कि उसपे उसके पहरे के होने या ना होने का कोई औचित्य ही नहीं होता, क्योंकि अंतत: करना तो औरत को है, वह उसके सामने करे और पीठ-पीछे करे या ना करे, क्या इसपे उसका वश है? कदापि नहीं है| इसलिए पर्दा मानव सभ्यता को खाता है|
- रूढ़िवादी बुजुर्गों के मान-सम्मान की बात का क्या होगा (60 से ऊपर के बुजुर्गों बारे): आज के दिन हमारे समाज में एक वर्ग ऐसा है जो पर्दा-प्रथा को बुजुर्गों के प्रति अपनी शर्म-लिहाज दर्शाने का जरिया मानता है| कहते हैं कि बच्चे और बूढ़े की एक मति होती है, वो तर्क से कम और त्याग व् समर्पण से ज्यादा आकर्षित होते हैं| लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सारे बुजुर्ग इसी सोच के हैं, अधिकतर ने वक्त व् मुल्क की आज़ादी के बाद के मुल्क के माहौल के अनुसार अपनी सोच परिवर्तित भी करी है| इसलिए ऐसे बुजुर्गों से गुहार लगाई जाए कि वो अपने समकक्ष बुजुर्गों से इस बारे चर्चा करें| मुझे यकीन है कि वो अधिकतर को मना लेंगे और जो बचे हुए फिर भी नहीं मानते तो उनका सम्मान बनाये रखा जाए और उनके आगे प्रदा जारी रहने दिया जाए| लेकिन यह सुनिश्चित किया जाए कि उनके जाने के बाद उस घर से पर्दा चला जायेगा| और यदि फिर भी कोई हठी बुजुर्ग अपनी बहुओं को मरने के बाद भी पर्दा रखने का वचन ले जाए तो फिर तो ऐसी बहुएं अपनी समझ से ही काम चलायें|
- अर्ध-रूढ़िवादी यानि पैंतालीस से साठ साल वाले बुजुर्गों से इस पर खुलकर बात की जाए: वैसे तो आज के वक्त में लगभग हर नव-विवाहित जोड़े की मादा अपने आप ही पर्दा करना छोड़ रही है, बल्कि विवाह-वेदी पर फेरे भी खुले-मुंह लेती है तो उनके घरों में नव सास-ससुर दम्पत्ति उनसे वैसे ही पर्दा नहीं करवाते और वो नव-विवाहिताएं खुद भी इसकी पक्षधर नहीं| इसलिए अधिकतर मामलों में यह अब स्वत: ही खत्म हो रहा है लेकिन ग्रामीण आँचल में यह अभी भी अपनी जड़ें पकड़ी हुए सा दीखता है, जहां कि पुरुष समाज भी इसको चलने देने के पक्ष के सा दीखता है| और यही वो हिस्सा है जिससे पर्दा-प्रथा ख़त्म करवाने में सबसे ज्यादा जोर-आजमाइश रहेगी| लेकिन इनको समझाने के लिए ग्रामीण आँचल का युवा ऐसे लोगों को खोजे जो इन लोगों के ही हों और उनसे इन पर मान-मनुहार करवाई जाए कि अब अपने घर से पर्दा-प्रथा खत्म कीजिये|
- रही पैंतालीस साल से नीचे के वर्ग की बात: वस्तुत: तो आज स्वत: ही इस ग्रुप का इंसान पर्दा प्रथा छोड़ता और छुड़वाता जा रहा है, लेकिन फिर भी कोई अमादा बना रहना चाहता है तो उसकी ऊपर-विदित तरीकों जैसे तर्कों के साथ सही से काउन्सलिंग की जाए|
तो अगर इस तरह एक योजनाबद्ध तरीके से बुजुर्गों के मान-सम्मान का ख्याल रखते हुए, लोगों की काउन्सलिंग की जाए तो एक दशक के भीतर ही हमारे समाज से पर्दा-प्रथा को ख़त्म किया जा सकता है|
सबसे प्रभावी कौन होगा: इस प्रथा को खत्म करवाने में सबसे प्रभावी होगा, लोगों को यह बताना कि यह प्रथा कैसे पड़ी, इसके नुक्सान क्या हैं और आज युवा वर्ग जो कि आधुनिक वक्त में इसको गैर-जरूरी मानता है, उसका जोश और तर्क-शक्ति| गाँव-शहर का युवा-वर्ग इस प्रथा को समूल उखाड़ने हेतु अपने स्कूल-कालेज स्तर पर कमेटियां बना कर, सबसे पहले अपने घरों, पास-पड़ोस से इसकी शुरुआत करें| इसके लिए इस लेख में बताये तरीके बड़े कारगर सिद्ध हो सकते हैं|
मर्यादा बनी रहे: अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात याद रखी जाए कि बुजुर्गों को ठेस पहुंचा कर यह काम नहीं हो सकता, लेकिन हमें अपने वक्त के वो बुजुर्ग भी नहीं बनना कि जिनके लिए आज से पचास साल बाद फिर कोई फूल कुमार ऐसा ही लेख लिख रहा हो| इसलिए और कुछ नहीं तो कम से कम यह सुनिश्चित जरूर करना है कि पर्दा-प्रथा को स्वीकृति देने वाली, आजे के बुजुर्गों की पीढ़ी आखिरी पीढ़ी हो, जो कि अपने पूरे-मान-मान्यता और सम्मान से विदा की जाए| यानि जो पर्दा देखना चाहते हैं वो इसको देखते हुए ही जाएँ, लेकिन इनके बाद समाज में पर्दा कोई ना देख पाये|