व्यक्तिगत विकास
 
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भरी-थाली ठुकरानेवाला
!!!......एक बच्चा जन्म के वक्त बच्चा नहीं होता, तथापि यह तो उसको विरासत में मिलने वाले माहौल व् परिवेश से निर्धारित होता है| एक बच्चे को माता-पिता जितनी समझ जन्म से होती है| अत: माता-पिता उसको उस स्तर का मान के उसका विकास करें|......!!!
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कोई "भरी थाली को ठोकर मारने वाला" कैसे बनता है?
बच्चे को दूसरों के भरोसे पलने के लिए छोड़ देना या उनके यहां छोड़ देना इसकी वजहों में से एक बड़ी वजह है|

मति के अनुसार गति ना पकड़ने देने पर: जवानी व् बुढ़ापे में कैसे बनता है यह तो मैं नहीं जनता परन्तु बचपन में कैसे बनता है यह अच्छे से जानता हूँ| जब बच्चे को उसकी मति के अनुसार गति ना पकड़ने दी जाए, उसको कुछ उपलब्ध करने पर कोई प्रोत्साहन मिलने की बजाय बड़ों की निष्क्रियता या नाक-सिकोड़ना दिखे और उसको प्रोत्साहित करने की उपेक्षा ऐसे कार्यों में लगवा के उसकी ऊर्जा व् उत्साह को व्यय करवाया जाए जो कि ना सिर्फ गैर-जरूरी हो अपितु वह जिस गुण व् तत्व का बना है उसके स्वभाव व् ताकत के भी प्रतिकूल हो, तब ऐसा बच्चा अपनी मति यानी तत्व-गुण को ही अपना दोषी मान लेता है और उसको यह लगता है कि जब वह अपनी मतिनुसार चलता है तो उसको अवहेलना अथवा मानसिक प्रताड़ना व् निष्क्रियता ही मिलती है तो वह फिर खुद ही
अपने आपको खुश रखने हेतु तत्व व् आत्मा की सुन के चलने के रास्ते को छोड़, दिल और दिमाग से कार्य करने लग जाता है| क्योंकि यही रास्ते उसको दिखाए जाते हैं अथवा उसके लिए छोड़े गए होते हैं|

ऐसे में वह अपनी खुशियों की दुनिया दिल और दिमाग में ही ढूंढने लगता है| फिर उसका दिल और दिमाग इसी उधेड़बुन में जीना शुरू कर देता है कि तेरी खुशियों को इन निष्क्रिय या तुझे हर वक्त हतोत्साहित करने वाले लोगों की नजर से कैसे बचाऊँ, तब वह बच्चा "भरी थाली को ठोकर मारने वाला बन जाता है|"


मति व् तत्व के विपरीत परिस्थितियों में फंसे बच्चे की कूटनीतिक मानसिकता कुछ इस तरह कार्य करने लग जाती है: वह सोचने लगता है कि जब मेरी खुशियों में, मेरी उपलब्धियों में मेरे को पालने वाले से ले मुझे सँभालने या आगे बढ़ाने तक की जिम्मेदारी वाले तक शरीक नहीं होते हैं और वो मेरी उपलब्धियों पे मेरी पीठ थपथपाने की जगह, मेरी शाबाशी इस बात में मानते हैं कि मैं उनको खुश कैसे रखूं तब वो बच्चा हतोत्साहित हो कर, इस बात का इंतज़ार करते-करते थक कर व् इस बात की उम्मीद छोड़ कर कि यह लोग तो मुझे कभी प्रोत्साहित नहीं करेंगे तो फिर वो अपने अंदर ही अपने लिए प्रोत्साहन ढूंढने लगता है|

और अपनी खुशियों पर स्वत: ही खुशियां मनाने की आदत डाल लेता है| और इससे होता यह है कि वो उसके पालने-सभालने वाले जो कि उसके सही-गलत के लिए एक रेफेरेंस का काम करते हैं वो उनसे खुद को काट लेता है और अपने सही-गलत खुद निर्धारित करने लग जाता है| ऐसा वह करता तो अपने-आपको उस बुरे वक्त में उदासी से बचाने को है परन्तु बड़ा होने पर यही आदत उसके गले की फांस बन जाती है|


ऐसा बच्चा अपनी ही सफलताओं से डरने लगता है: और ज्यों-ज्यों वो बड़ा होता है वो अपनी ही सफलताओं को अपनी दुश्मन मानने लग जाता है और यह समझता है कि अगर तुझे यह सफलता तेरी ही मेहनत से जो मिलेगी तो भी इसका श्रेय तो तेरे को पालने-सँभालने वाले ले जायेंगे या वो फिर तेरे को निरुत्साहित करेंगे या तुझे डराएंगे, यह सोच कर वह बहुत बार कर्महीनता का मार्ग भी अपना लेता है और अपनी जिंदगी के रथ का खुद रोड़ा बन जाता है| जब ऐसी स्थिति किसी के जीवन में आती है तब बच्चा भरी थाली को ठोकर मारने वाला बनता है|

हालाँकि यह "भरी थाली को ठोकर मारने" की कई प्रकारों में से एक प्रकार है परन्तु दावे से कह सकता हूँ कि बहुमत में जो "भरी थाली को ठोकर मारने वाले" बनते हैं वो इसी प्रकार की परिस्थितियों में पड़ के बनते हैं, जैसे कि ऊपर लिखा| और दूसरों के हाथों (नजदीकी रिश्तेदारों के खासकर) दे कर पलवाये जाने वाले बच्चों के साथ ऐसा होने के सबसे ज्यादा आसार रहते हैं| बच्चे को ईमानदारी से अपनी मजबूरी व् परिसीमाएं बतला के, सतत: कोशिश से बच्चे को स्व-हाथों में जो पालते हैं, उनके बच्चों में ऐसी समस्याएं होने के आसार काम होते हैं|


असली समस्या कब शुरू होती है: ऐसे बच्चे के लिए तब तक समस्या नहीं आती जब तक वह ऐसे बंदिशों और नकारात्मकताओं के माहौल में जी रहा होता है अपितु तब आती है जब जिंदगी उसको इस माहौल से दूर एक स्वायत्त माहौल में ले जाती है| और इस माहौल से परेशान जब आत्महत्या के विचार व् आत्मगलानि की भावनाओं से ग्रसित, वो इनके आगे घुटने टेकने से स्वंय को मना कर देता है और जीवन को आगे बढ़ाने की सोचता है तब उसको परत-दर-परत अपने अतीत की कहानी समझ आती है|

तब उसके अंदर के जकड़े हुए भय, घृणा, द्वेष और पीड़ा, उसकी स्वायत्ता व् मति को इच्छित गति देने के माहौल व् मौके रुपी अग्नि में ठीक वैसे ही तार-तार करके उतरते हैं जैसे किसी इंसान के शरीर से चिपकी हुई जोंक या नेवले को गरम-चिमटे लगा-लगा के उतारा जाता है| तब उसको अहसास होता है जब स्वायत्त माहौल मिलने से उसकी इच्छाशक्ति जागती है, उसका अपने तत्व से आदरकारी सत्कार होता है, वह अपनी आत्मा और भावना को महसूस करना शुरू करता है, जो कि अमूमन उसको पालने व् संभालने वालों की जिम्मेदारी होता है उसको इन सबका साक्षात्कार करवाना|

दूसरों को खुश रखने हेतु अपने को पीड़ा देने वाली इस आदत से उसकी जद्दोजहद: हालाँकि वह यह आदत तो डालता है अपने-आपको नकारात्मक माहौल से बचा के अपने-आपको ख़ुशी देने हेतु, लेकिन यह आदत उसको इसे विपरीत अनुरूप में भी प्रभावित करने लग जाती है| सीधी सी बात है, जिसे बच्चे को खुद को खुश रखने के लिए अपने दिल और दिमाग का सहारा लेना पड़े, वो आत्म-सम्मान से रिक्त हो जाता है, उसको अपने तत्व से घृणा हो जाती है और फिर वह सिर्फ यही रास्ते ढूंढता है कि मुझे दिल को कैसे खुश रखना है और मेरे पालने व् संभालने वालों से अपनी खुशियों को कैसे छुपा के रखना है ताकि वो इनका हरण ना कर लें| भरी थाली को ठोकर मारने वाले बच्चे अतिषेक स्तर यानि सबसे अव्वल दर्जे के स्वार्थी हो जाते हैं, लेकिन डरपोक भी उतने ही होते हैं, डरपोक इसलिए क्योंकि वो भावनात्मक रूप से खोखले होते हैं| खोखले इसलिए क्योंकि उनकी भावनाओं को बचपन में कोई सम्मान नहीं मिला होता और आदरमान नहीं व् जायज स्थान अपनों के बीच नहीं मिला होता| इसलिए जब-कभी उनको सम्मान चाहिए होता है (हालाँकि इस रास्ते से मिला हुआ सम्मान बहुत ही महंगा और अस्थाई होता है, ठीक वैसे ही जैसे कि घर में कमाऊ पूत तो हो पर उसकी तब तक ही पूछ हो जब तक वो कमा के देता है, यानी कोल्हू का बैल, बस काम करता रहे, उसको खाने को चारा और आराम कितना मिले, यह ना उसके बस में होता और सिर्फ उसके मालिक पे निर्भर होता है कि वो उसको कितना चारा व् आराम देगा, यानी कि मानसिक गुलाम) तो फिर वह उसके पालने व् संभालने वालों के अनुसार उनको खुश करने के क्या रास्ते होते हैं, उन्हीं पे चल कार्य करता रहता है और यह एक ऐसी आदत बन जाता है जैसे कोई ड्रग का मरीज|


और कभी-कभार इन सब परिस्थितियों से खुन्नस खा वह ऐसे भी कार्यों में संलिप्त हो जाता है जो वो करता तो खुद के नुक्सान की कीमत पर है परन्तु उससे उसको पालने-सम्भलने-आगे बढ़ाने वालों को ज्यादा नुक्सान या दर्द हो, जो कि सिर्फ उसका वहम होता है कि तेरे ऐसे करने से उनका कोई नुक्सान हुआ होगा, हुआ होगा भी तो आंशिक या लघु नुक्सान परन्तु उसके बदले उसको फिर कैसी गन्दी पारिवारिक राजनीति का शिकार हो-हो के गुजरना पड़ता है, यह सब वह तब महसूस कर पाता है, जब वह उस माहौल से कहीं दूर निकल के, होश में आ, जिंदगी की फिल्म को उल्टा करके अतीत में जा के देखता है| ऐसे में उसको अहसास होता है कि इस प्रकार की भी कोई ड्रग होती है जो किसी बच्चे को पिला दी जाए तो वो "धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का" बना भटकता हुआ जीवन जीता है|

लेकिन जब वह इस ड्रग से छुटकारा पाता है अथवा इससे दूर माहौल में पहुँच जाता है और उन सब पालने-संभालने वालों की भूमिकाओं को उसके लिए जांचने-परखने बैठता है तो तब उसे अहसास होता है कि तुझे तो पाला ही सिर्फ "कोल्हू का बैल" बनने उद्देश्य से गया है| तेरे अपने अस्तित्व व् तत्व की तो कोई सुध ही नहीं ली गई थी|

और ऐसा बनाने के दोषी पालने-संभालने वाले जब आपको चेताते हुए से दीखते हैं कि छोरे/छोरी क्यों भरी थाली को ठोकर मार रही है तो वो आपका उपहास उड़ाते हुए से आपको ज्यादा नजर आते हैं बजाय आपके शुभचिंतक प्रतीक होने के| बात भी सही है जब ऐसी स्थिति तक पहुंचाने वाला शुभचिंतक बनने का नाटक कर रहा होता है तो बच्चे को और भी भयंकर लगता है|


ऐसे इंसान की असली लड़ाई तब शुरू होती है जब वह अपनी सुध लेता है या उसको अपने लिए यह सुध लेने का अवसर प्राप्त होता है: ऐसे बच्चों को दूसरों की भावनाएं, दर्द व् पीड़ा तो अच्छे से समझ में आती है परन्तु खुद को इनसे निकालना नहीं आता| निकालना आये भी कैसे क्योंकि बचपन में जो रास्ते उसने मजबूरीवश प्रणाया था वह तो इनसे सिर्फ बचने के लिए था, इनसे निकलने के लिए थोड़े ही| और बात भी सही है जब जान "भींत बीच और खोद बीच" आई हो तो ऐसे हालात में निकलने की बजाये सब सिर्फ बचने की ही सोचते हैं, ताकि न्यूनतम नुक्सान हो| वैसे एक बात बताऊँ ऐसे बच्चे भावनाओं को जानते बेशक ना हों परन्तु भावनाओं के व्यापारी अव्वल दर्जे के होते हैं| हों भी क्यों ना आखिर वो व्यापार ही क्या हुआ जिसमें भावनाएं शामिल हो जाती हों|

लेकिन जब उसको यह अहसास होता है कि उसके जीवन में उसको ऐसी आदत पड़ी हुई है कि वह अपनी खुशियों को संसार से छुपाता है तो उसे अहसास होता है कि वह ऐसा करके सिर्फ खुशियां ही नहीं छुपाता अपितु संसार को भी संदेह की दृष्टि से देखता है| और फिर उसका दिल और दिमाग उस पर इतने हावी हो चुके होते हैं कि वो उसको अपने चिरस्थाई स्वभाव के अनुरूप ढलने से भी रोकते हैं| उसके दिल-दिमाग को ऐसा करने में अपनी हार लगती है| जबकि असली जीत तो दिल-दिमाग से ऊपर उठने में हैं, उसी दिल-दिमाग से ऊपर उठने में जिसके ऊपर कि उसको आश्रित बना दिया गया है| आत्मिक सचाई यह है कि दिल-दिमाग के वही फैसले सही होते हैं जो इच्छाशक्ति व् तत्व को जान कर लिए जाते हों, परन्तु जिसको इच्छाशक्ति व् तत्व को जानने ही नहीं दिया गया हो वो तो फिर "भरी थाली को ठोकर मारने वाला" ही बनेगा|

आज भी जब यह आर्टिकल लिख रहा हूँ तो दिल-दिमाग विरोध कर रहे हैं, पुरजोर विरोध कर रहे हैं कि हमारी सच्चाई व् कमजोरी को क्यों उजागर कर रहे हो, हम ऐसे ही काम चला लेंगे, हम ऐसे ही जीवन जी लेंगे| लेकिन मेरे दिल-दिमाग जी जिस इंसान की इच्छाशक्ति जाग गई हो, जिसको अपने तत्व का अहसास हो गया हो वो इतने से कैसे काम चला लेगा जितने से आप सतुंष्ट हो, अपनी सतुंष्टि को पूरे शरीर पर थोंपे जा रहे हैं| मेरी इच्छाशक्ति व् तत्व अब मुझे कह रहे हैं कि उन भय-अपेक्षा-उपेक्षा व् उहापोह के वातावरण के आवरण को ठीक उसी प्रकार उतार के आगे बढ़ो, जैसे एक सांप अपनी "कंजलि" यानी पुरानी त्वचा के आवरण को उतार आगे बढ़ता है|


जटिल प्रोत्साहन: अब जीवन थालियों को ठोकर मारने का नहीं अपितु थालियों की बजाये परांतें भर-भर के बटोरने का है| उनकी चिंता मत करो जो तुम्हारे जीवन में तुम्हें पालने या संभालने के नाम पर भगवान ने दिए हैं, वो अपना खुद कर लेंगे| ये भी मत सोचना की तुम उनको खुश नहीं रख पा रहे हो, तो भला पहले खुश रख के देखा तो कौनसे खुश रख पाये? वो तुमसे उनकी अपेक्षा रुपी सुरसा के मुंह को बंद करना अपने-आप सीख जायेंगे, तुम अपने मार्ग को अग्रसर हो| वो तब ही नहीं रोये जब तुम बच्चे थे तो अब क्यों रोयेंगे| इसलिए बढ़ते चलो, चढ़ते चलो, अब वो माहौल नहीं इसलिए डट के भी चलो|


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  


लेखक: पी. के. मलिक

दिनांक: 11/05/2014

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

उद्धरण:
  • नि. हा. सलाहकार मंडल

साझा-कीजिये
 
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)

मनोविज्ञान जानकारीपत्र: यह ऐसे वेब-लिंक्स की सूची है जो आपको मदद करते हैं कि आप कैसे आम वस्तुओं और आसपास के वातावरण का उपयोग करते हुए रचनात्मक बन सकते हैं| साथ-ही-साथ इंसान की छवि एवं स्वभाव कितने प्रकार का होता है और आप किस प्रकार और स्वभाव के हैं जानने हेतु ऑनलाइन लिंक्स इस सूची में दिए गए हैं| NH नियम एवं शर्तें लागू|
बौद्धिकता
रचनात्मकता
खिलौने और सूझबूझ
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)
निडाना हाइट्स के व्यक्तिगत विकास परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

HEP Dev.:

हरियाणवी में लेख:
  1. कहावतां की मरम्मत
  2. गाम का मोड़
  3. गाम आळा झोटा
  4. पढ़े-लि्खे जन्यौर
  5. बड़ का पंछी
Articles in English:
  1. HEP Dev.
  2. Price Right
  3. Ethics Bridging
  4. Gotra System
  5. Cultural Slaves
  6. Love Types
  7. Marriage Anthropology
हिंदी में लेख:
  1. धूल का फूल
  2. रक्षा का बंधन
  3. प्रगतिशीलता
  4. मोडर्न ठेकेदार
  5. उद्धरण
  6. ऊंची सोच
  7. दादा नगर खेड़ा
  8. बच्चों पर हैवानियत
  9. साहित्यिक विवेचना
  10. अबोध युवा-पीढ़ी
  11. सांड निडाना
  12. पल्ला-झाड़ संस्कृति
  13. जाट ब्राह्मिणवादिता
  14. पर्दा-प्रथा
  15. पर्दामुक्त हरियाणा
  16. थाली ठुकरानेवाला
  17. इच्छाशक्ति
  18. किशोरावस्था व सेक्स मैनेजमेंट
NH Case Studies:
  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
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