व्यक्तिगत विकास
 
बच्चों पर हैवानियत
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!!!......एक बच्चा जन्म के वक्त बच्चा नहीं होता, तथापि यह तो उसको विरासत में मिलने वाले माहौल व् परिवेश से निर्धारित होता है| एक बच्चे को माता-पिता जितनी समझ जन्म से होती है| अत: माता-पिता उसको उस स्तर का मान के उसका विकास करें|......!!!
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हैवानियत - बच्चे-बच्चियों से बलात्कार और पारिवारिक दायित्व
(बच्चे-बच्चियों को कैसे बलात्कारियों के मुंहों से बचाया जा सकता है)

भूमिका: 15 अप्रैल 2013 को दिल्ली में 5 साल की बच्ची से हुए बलात्कार की घटना ने विवेचना पर मजबूर किया और सोचने लगा कि ऐसे बलात्कारों के पीछे वजहें क्या बनती हैं| इन वजहों में क्रूर इंसान की मानसिकता तो मुख्यत: जिम्मेदार रहती ही है साथ ही साथ कैसे बच्चों से किया जाने वाला व्यवहार, उनके लालन-पालन की प्रक्रिया, बच्चों की सोच और समझ को बच्चा समझ बच्चे को अपनी सोच के अनुसार चलाना अथवा उससे अपने कथनानुसार व्यवहार करने को कहना या बच्चे की इच्छा, मंशा एवं अभिलाषा को किनारे कर उससे मुंह फेर लेना या उसकी बात ना सुने जाने पर उसकी नाराजगी को ये कहते हुए टाल जाना कि यह तो बच्चा है action का reaction तो देगा ही; ये ऐसे वाकये होते हैं जो 3-4 साल से लेकर 8-9 साल तक बच्चे की सहनशक्ति, विवेक, माँ-बाप या guadian के प्रति बच्चे के विश्वास, बच्चे के मानसिक विश्वास और आत्म-सम्मान को गहरा खेद पहुंचाते हैं|

विवेचना: हालाँकि कि दिल्ली में जिस 5 साल की बच्ची से बलात्कार हुआ उन परिस्थितयों के बारे में तो मैं नहीं जानता परन्तु मैंने ऐसे हालात में से बच्चों को गुजरते हुए देखा है जब वो उपरलिखित अपनों (माता-पिता, guardian) के उपेक्षित रव्वये की वजह से घर वालों की जगह बाहर वालों (पड़ोसियों, रिश्तेदारों, राहगीरों) की तरफ जल्दी से झुक जाते हैं| और ऐसे में इन बाहरवालों के लिए वो बच्चा-बच्ची सरल शिकार बन जाता है जिसको बहलाने-फुसलाने-ललचाने में इनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती और बच्चा इनके बहकावे में आ जाता है| यह बहकावा-लालच बच्चे को खेलने की चीजें दे के भी दिया जा सकता है, बच्चे को खाने की चीजें दे के भी और कई बार तो मीठे बोल भर से (वो बोल जो कि बच्चे को घर में किसी ऊपर-चर्चित वजहों के चलते नहीं मिल पाते) बच्चा बहकावे में आ दुष्कर्मी के साथ कहीं तक भी जाने को तैयार हो जाता है| और दुष्कर्मी फिर उसको आसानी से एकांत में ले जा अपना शिकार बना लेता है|

हालाँकि कि बलात्कारी के लिए यह चीज मायने नहीं रखती, कि बच्चे का लालन-पालन अच्छी देखभाल वाला है या बुरी वाला परन्तु घर का यह माहौल बलात्कारियों के हाथों आपका बच्चा चढ़े उसकी सम्भावना तो तीव्र कर देता है|

जाने-माने शोधों और अध्ययनों में भी यही तथ्य सामने आये हैं कि एक 4 से 9 साल का बच्चा निर्णय लेने में तो परिपक्कव नहीं होता है, परन्तु आपका गलत व्यवहार और उसकी देखभाल और लालन-पालन का तौर-तरीका उसको आपसे दूर ले जा सकता है; इतना दूर कि कई बार तो बच्चा अपना दुःख भी आपको सुनाने से कतराता है और आपमें विश्वास नहीं दिखा पाता| उसका दिमाग खुश होना, रोना और नाराजगी जाहिर करना तो जान लेता है परन्तु वो फैसला नहीं कर सकता कि खुश या दुखी हूँ तो किस वजह से और वो आपके दिए हुए गलत-सही व्यवहार को चाहे-अनचाहे मन से स्वीकृति सी दे देता है और उसकी इस स्वीकृति को माता-पिता और guardian उसपे अपनी बात की जीत मान लेते हैं|

जबकि सच्चाई यह होती है कि वो चीज उसके अंदर ही अंदर घुटती रहती है और वो जैसे कि मौके की ही तलाश में रहती हो बाहर निकलने को कि उसको सहारा मिला नहीं और वो उसी के साथ हो लेता है| ऐसे ही व्यवहार और लालन-पालन के तरीके ना सिर्फ बच्चों को बलात्कारियों के निशाने पे रख देते हैं बल्कि बच्चों के अगवा होने, उनके रूठ कर घर से बाहर निकल जाने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं|


ऐसे ही कुछ वाकये आपके सामने रख रहा हूँ:
  1. एक 4 साल का बच्चा माँ के डांट देने से घर में दुबक के बैठ जाता है परन्तु थोड़ी ही देर बाद पता लगता है कि बच्चा लापता हो गया है| दरअसल हुआ यह था कि वो घर में दुबक के नहीं बैठा था वो माँ की डांट से घर से बाहर निकल गया| घटना का वक्त और जगह बतानी मैं इतनी जरूरी नहीं समझता जितना जरूरी की इस घटना की वजह और इसके परिणाम| वजह आपने देखी और इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चे को 2 नशाखोर बाबाओं के पास से छुड्वाया गया| 7 घंटे की खोज के बाद बच्चा शहर के दूसरे कोने में स्थित रेलवे-स्टेसन से बाबाओं से बरामद किया गया| माता-पिता और 2 बहनों की किस्मत अच्छी थी कि क्रमस: उनका बेटा और बहनों का इकलौता भाई वापिस मिल गया| जब बच्चा मिला तो माँ उससे लिपटते हुए बोली कि मैं कुछ भी करुँगी पर आज के बाद तुझे डांटुगी नहीं|

  2. एक किसान ने अपने 4 साल के बेटे को शहर में अपनी बहन के पास छोड़ दिया परन्तु उस बच्चे का वहाँ मन नहीं लगा| और क्योंकि बच्चा जन्म-जात मेधावी था और हर परीक्षा में 90% से उपर अंक अर्जित करता और जब भी उसका पिता उससे मिलने आता तो बहन उसको भतीजे के अंक दिखाती और भाई से झूठी वाह-वाही सी लूटती दिखती कि जैसे यह उसके लालन-पालन से अंक अर्जित कर रहा है| जबकि बच्चे को पिता के उससे मिलने आने की कोई ख़ुशी नहीं होती; वो तो यह बात सुनते ही कि मेरा पिता आया है तो जरूर ट्रेक्टर-ट्रोली में आया होगा| तो जब उसकी बुआ उसके पिता को उसके अंक दिखाने में मशगूल होती वो दूर main-market की सड़क किनारे खड़ी उनकी ट्रेक्टर-ट्रोली की तरफ भागता और बेचारा उस ट्रेक्टर-ट्रोली के चारों और चक्कर काटता रहता, और ट्रेक्टर-ट्रोली में बैठे उसके गाँव के लोगों के मुंह तांकता रहता कि शायद मुझे कोई बांह पकड़ के उपर चढ़ा ले|

    लेकिन उसको प्यार तो सब करते और खाने को चीजें भी देते परन्तु ट्रेक्टर में चढ़ाता कोई नहीं, शायद सब जानते होते थे कि इसको इसकी बुआ पे पास पढने के लिए छोड़ा गया है सो अगर उपर चढ़ाया तो इसका पिता गुस्सा करेगा इसलिए कोई उसको ऊपर नहीं चढ़ाता था| और 4 साल के बच्चे की दिमाग की उपस्थिति देखो कि वो एक नजर उस रास्ते पे रखता जिधर से उसके पिता को आना होता था और एक ट्रोली-ट्रेक्टर के चक्कर काटने पे| और जैसे ही उसका पिता आता हुआ दीखता वो भाग के ऐसी जगह छुप जाता जहां से उसको उसका पिता ना देख सके परन्तु वो ट्रेक्टर-ट्रोली को जरूर देख सके| और वो उसको तब तक देखता रहता जब तक कि वो उसकी आँखों से ओझल ना हो जाती| और एक-दो बार तो ऐसा भी हुआ कि रोडवेज की बसों के ड्राईवरों ने खुद गाडी रोक उस बच्चे को उनकी गाड़ी के टायर के नीचे आते-आते बचाया और उठा के सड़क के किनारे छोड़ा; वो क्या होता था कि वो कई बार भावनावश ट्रेक्टर-ट्रोली के पीछे भाग लेता था ना|

    परन्तु शायद फिर वो समझ जाता था कि बसें भी उस पर नहीं चढ़ती तो भगवान भी उसके साथ नहीं है और अपने मन को मशोश कर वापिस वहीँ चला आता था जहां रहना उसकी इच्छा ही नहीं थी| और मैंने उस बच्चे को बड़ा होते हुए देखा| उसमें हर विकास हुआ परन्तु वह कभी भी आत्म-सम्मान नहीं पैदा हुआ कर पाया खुद पर विश्वास भी पैदा हुआ तो अति-आत्मविश्वास वाला वो क्यों हुआ मैं भी आंकलन करने में फेल हो जाता हूँ|

  3. एक बिना माँ का बच्ची भी बनी थी बलात्कार की शिकार 3.5 साल की उम्र में ही: ये एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसको उसकी माँ के जल्दी गुजर जाने के हालातों में रिश्तेदारों के यहाँ पहुंचा दिया जाता है और जब उसको रिश्तेदारों से रिश्तेदारों के अपने बच्चों के बराबर का भी प्यार नहीं मिलता था और छोटी सी उम्र में ही किसी अनहोनी बात को सहन करने के लिए कह दिया जाता था या ये कह के फुसला दिया जाता था कि तुम्हारा दिल फिर भी बड़ा है इसीलिए जिद्द मत करो तो कैसे वो बच्ची एक दिन गली में खेलते-खेलते, सिर्फ एक छोटी गेंद के लालच में एक बलात्कारी के हाथों चढ़ जाती है और उसका बलात्कार होता है तो पूरा घटनाकर्म सोच कर ही शरीर काँप जाता है|

और बाबा रामदेव नें आजतक पे रजत शर्मा के "आपकी अदालत" कार्यकम में यह बात सही कही थी कि कोई बच्चा जन्म से समलैंगिक नहीं होता बल्कि बचपन में मिलने वाला माहौल और सुरक्षा का स्तर ऐसे तत्व होते हैं जो उसको कई बार इन मार्गों पर भी ले जाते हैं| जो समझदार और बचपन में बड़ी समझ रखने वाले होते हैं वो बच्चे तो इन हालातों से निकल आते हैं परन्तु जो सामान्य होते हैं वो फिर इनसे उम्र-भर नहीं निकल पाते| और वो वर्ण-शंकर कहलाने की राही पर चल देते हैं| वो अपने शरीर को, अपनी बुद्धि और क्षमता को अपना दुश्मन मानने लग जाते हैं और हालातों के बुने जालों पे इतनी परतें चढ़ा लेते हैं कि उनकी जिंदगी "राम-भरोसे" जैसी हो जाती है|



निष्कर्ष: तो अगर आप माता-पिता हैं तो अपने बच्चे को कभी भी दूसरों के भरोसे ना छोड़ें; ना ही तो पालने-पलोसने के उद्देश्य से और ना ही पढ़ाई के उद्देश्य से| और जब आप सर्व-साधन संपन्न हों तो बिलकुल भी नहीं| रिश्तेदारों और जानकारों के यहाँ छोड़ने से तो भला बच्चे को day-boarding हॉस्टल में छोड़ दें जहाँ कि जिम्मेदारी निर्धारित होती है| रिश्तेदारों के यहाँ आपके बच्चे की कोई accountability नहीं होती और ना ही जवाबदेही बल्कि उल्टा जिंदगीभर का अहसान रहता है कि हमनें तुम्हारे बच्चे को पढाया फिर चाहे तुम्हारे बच्चे में आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास जैसी चीजें हों या ना हों| और पढ़ाना किसी के हाथ नहीं होता जैसे की ऊपर दिए उदहारण 2 में आपने देखा कि वो बच्चा अंक तो अर्जित करता रहा पर आत्म-सम्मान से रिक्त रहा|

और दूसरों के हाथों बच्चा पलवाना ऐसे होता है जैसे आधे पे दे के जानवर पलवाना| आधे पे दे के जानवर पलवाने का मतलब कि जब जानवर बड़ा हो के बेचा जाता है तो उसकी कीमत को उसके पालने वाले और उसके मालिक में आधी-आधी करके बाँट लिया जाता है या फिर मालिक उसकी आधी कीमत पालने वाले को दे, उस जानवर को अपने घर ले आता जो कि जीवनभर कभी मालिक की उससे सेवाओं की अपेक्षाओं पे खरा नहीं उतरता| और वो क्यों नहीं उतरता इसकी चर्चा आपने ऊपर पढ़ी| सो आपके बच्चे जानवर नहीं हैं उनको अपने हाथों से पालिए या दूसरे के हाथों में सोंपने भी पड़ें तो ऐसी जगह सोंपे जहां जवाबदेही निर्धारित हो, अहसान नहीं|

अंत में इस लेख का बिंदु यही था कि बच्चों को कैसे बलात्कारियों के मुहाने पे रखने से बचाया जा सकता है| हालाँकि इसके साथ हमने कई और बिंदु भी चर्चित किये जैसे कि बच्चे का अगवा या गुम हो जाना वो इसलिए जरूरी था कि इन सब मामलों में परिस्थितियाँ एक जैसी पाई जाती हैं|


राष्ट्रीय मीडिया से एक छोटी सी प्रार्थना: कल ND TV के मुकाबला कार्यक्रम में एक महानुभाविका को कहते हुए सुना कि दिल्ली में बलात्कार रोकने के लिए खापों पे नियन्त्रण करना होगा| मतलब कुछ लोगों को तो अपनी बकवास बकने का मौका भर चाहिए फिर चाहे खापों का किसी घटना से दूर-दूर तक कोई नाता ना हो| ऐसे ही जब 16 दिसम्बर 2012 वाली घटना हुई तो कहीं शीला दीक्षित तो कहीं दिल्ली पुलिस A.C.P. श्रीमान लूथरा बाबू यही राग अलापते मिले कि खापों पे काबू पाना होगा| खापों को ले के इनकी इतनी बेमौके की बेबाकी इस बात का नतीजा तो नहीं कि "सामने वाला तो शर्म-शर्म में मर गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया" या फिर इसका नतीजा हो कि "पिता तो इंट-इंट जोड़ के मकान बनाए और बेटा मकान बेचने में एक पल भी ना लगाए"?

क्या आखिर समझ क्या रखा है इन लोगों ने खापों को? अगर मैं इन दोनों घटनाओं से जुड़े बलात्कारियों की पृष्ठभूमि और इनका पता बताऊंगा (जो कि आम-जनता में हर कोई जानता है) तो मैं मेरे ही उन क्षेत्रों से आने वाले दोस्तों को नाराज कर लूँगा, जो कि हर मामले में सभ्य और सुशील हैं| पर क्या ये हरामखोर मीडिया वाले समझेंगे इस स्वेंदंशीलता को? जिस तरह की चर्चा और सोच इन घटनाओं पर तथाकथित इन बुद्धिजीवियों की देखने को मिल रही है मैं तो सोच के भी भयभीत हो जाता हूँ कि इन दोनों घटनाओं में अगर भूल से भी कोई खापलैंड का बंदा होता तो इसका मतलब मीडिया ने तो खापों को फांसी चढ़ा देना था? अरे कम-अक्लो आओ मैं दिखाता हूँ तुम्हें खापों का वो मन्त्र जिसका आधा भी कोई अपना ले तो उसको अपनी वासना पे नियन्त्रण करना आ जाए (यह बात खापलैंड और इससे बाहर से आने वाले दोनों के लिए है) और बलात्कारों में कमी आये:


गाँव की लड़की गाँव की 36 बिरादरी की बेटी और गोत्र की बेटी गोत्र में सबकी बेटी (खापों का एक ऐसा विधान जो वासना और कामुकता पर नियन्त्रण करना सिखाता है|):

आज के सन्दर्भ में इस तथ्य को शायद ही कोई समझे या मान्यता दे, क्योंकि मर्यादायें रही नहीं, स्वार्थ का स्वभाव बढ़ता जा रहा है और नैतिकता का पैमाना/दायरा सिकुड़ता जा रहा है| लेकिन खाप बुजुर्गों नें जब यह सिद्धांत बनाया था तो इसकी अध्यात्मिक वजह थी युवक-युवती के ध्यान और मन की चंचलता की भटकन को न्यून कर उसको सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास, स्थिरता और सुदृढ़ता के पथ पर एकाग्रित करवाना, ताकि वह वासना के वेग को सहना भी सीखे और संजोना भी| इसका दार्शनिक पहलू यह होता था कि इससे इंसान में सहनशक्ति एवं धैर्य का संचय होता था, जिसकी कि आज के युग में कमी बताई जा रही है| ऐतिहासिक पहलू यह था कि बाहरी शक्तियों से अपनी सिमता को बचाया जा सके और गाँव-समाज में सुख-शांति और हर्षोल्लास बना रहे; वही हर्षोल्लास जो आज के दिन हर गाँव-गली- मोहल्ले-नुक्कड़ से हर तीज-त्यौहार के मौके पर नदारद हो चुका है और हर हँसी-ख़ुशी की परिभाषा गली-नुक्कड़ से सिमट कर घरों की चारदीवारियों में कैद हो चुकी है और सामाजिक खुशियाँ बेरंग और बेनूर सी हो चुकी हैं| और घरों से बाहर निकल कर कोई देखता नहीं और इसीलिए बलात्कारी बेख़ौफ़ घूम रहे हैं|

इस स्वर्ण सभ्यता की कमी से समाज से जो हर्षोल्लास और रसता रिक्त हो गई उसको भरने को पता नहीं कब और कौनसा नया रिवाज या मान्यता चलन में आयेगी परन्तु उसके इंतज़ार में समाज इस खुशियों के बिखराव की राह पर इतना आगे ना निकल आया है कि पड़ोस में 5 साल की बच्ची का बलात्कार हो जाता है और किसी को खबर तक नहीं लगती? ऐसा लगता है कि जैसे हमारी सभ्यता एक बिना पते की चिठ्ठी बन के रह गई है, जिसका कोई मुस्सबिर नहीं|

इन मान्यताओं को व्यक्तिगत आजादी की राह में रोड़ा मान, झील के ठहरे हुए पानी सा बताने वाले भी जवाब दें कि जब पैर में कांटा चुभता है तो कांटे को निकाल के फेंका जाता है ना कि पूरा अंग या शरीर ही उस कांटे के दर्द से निजात पाने हेतु काट के फेंक दिया जाता हो? आज के हालात देख के तो यही लगता है कि बलात्कारियों रुपी शरीर में चुभे काँटों को निकालने पे तो किसी का ध्यान नहीं पर जिसको देखो भारतीय सभ्यता के सकरात्मक पहलु वाले शरीर को कान्त के फेंकने पे लगा हुआ है|

दुविधा यह है कि इन फिल्मों और मीडिया वालों ने गैर खापलैंडी तो क्या खाप वालों तक के ऐसे सिद्धांतों से ध्यान हटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी| वर्ना एक वक्त वो होता था कि हरयाणा और NCR में बलात्कार नगण्य होते थे और बच्चियों के साथ तो शायद ही कभी सुनने को मिलता था| तो भगवान् इन तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया वालों को थोड़ी सी सद्बुद्धि दें कि ये समाज में गाहे-बगाहे ऐसे हालात ना पैदा करें कि फिर कहीं मुंबई की तरह NCR में भी भाषावाद और क्षेत्रवाद की अग्नि धधक उठे| और इन मुद्दों से ध्यान भटक; हर कोई भटक कर समाज से छटंक जाए और पहले से सभ्यता के अकाल से ग्रसित समाज में और भी असभ्यता अपना डरावना साया फैला ले|


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर  


लेखक: पी. के. मलिक

प्रथम संस्करण: 22/04/2013

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

उद्धरण:
  • नि. हा. सलाहकार मंडल

साझा-कीजिये
 
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)

मनोविज्ञान जानकारीपत्र: यह ऐसे वेब-लिंक्स की सूची है जो आपको मदद करते हैं कि आप कैसे आम वस्तुओं और आसपास के वातावरण का उपयोग करते हुए रचनात्मक बन सकते हैं| साथ-ही-साथ इंसान की छवि एवं स्वभाव कितने प्रकार का होता है और आप किस प्रकार और स्वभाव के हैं जानने हेतु ऑनलाइन लिंक्स इस सूची में दिए गए हैं| NH नियम एवं शर्तें लागू|
बौद्धिकता
रचनात्मकता
खिलौने और सूझबूझ
जानकारी पट्टल - मनोविज्ञान (बौधिकता)
निडाना हाइट्स के व्यक्तिगत विकास परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

HEP Dev.:

हरियाणवी में लेख:
  1. कहावतां की मरम्मत
  2. गाम का मोड़
  3. गाम आळा झोटा
  4. पढ़े-लि्खे जन्यौर
  5. बड़ का पंछी
Articles in English:
  1. HEP Dev.
  2. Price Right
  3. Ethics Bridging
  4. Gotra System
  5. Cultural Slaves
  6. Love Types
  7. Marriage Anthropology
हिंदी में लेख:
  1. धूल का फूल
  2. रक्षा का बंधन
  3. प्रगतिशीलता
  4. मोडर्न ठेकेदार
  5. उद्धरण
  6. ऊंची सोच
  7. दादा नगर खेड़ा
  8. बच्चों पर हैवानियत
  9. साहित्यिक विवेचना
  10. अबोध युवा-पीढ़ी
  11. सांड निडाना
  12. पल्ला-झाड़ संस्कृति
  13. जाट ब्राह्मिणवादिता
  14. पर्दा-प्रथा
  15. पर्दामुक्त हरियाणा
  16. थाली ठुकरानेवाला
  17. इच्छाशक्ति
  18. किशोरावस्था व सेक्स मैनेजमेंट
NH Case Studies:
  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
© निडाना हाइट्स २०१२-१९