लेख के मुख्य भाग:
1) ब्राह्मिणवाद क्या है?
2) जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं?
3) मुज़फ्फरनगर की बिसात और जाट|
4) संधि-सौहार्द और सम्बन्ध के जाटों के ब्राह्मण रुपी गुण के मुज़फ्फरनगर में हुए विच्छेद का सबसे ज्यादा नुकसान किसको?
5) सम्बन्ध-सौहार्द रुपी जाटों के ब्राहम्णवाद के स्थाई रास्ते तलाशने ही होंगे|
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बचपन से ले के आजतक की उम्र में बहुत से ऐसे मौके, मोड़ और मुद्दे मिले जब सुनने में आता रहा कि जाट एंटी-ब्राह्मिण होते हैं| सबसे पहले मैंने जो मेरे अनुभव और विद्या से सीखा है उसके अनुसार ब्राह्मिणवाद क्या है वो बताऊंगा, फिर जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं वो और फिर उस समस्या का व्याखान जिसकी वजह से यह लेख लिखा|
1) ब्राह्मिणवाद क्या है: वास्तविक ब्राह्मिणवाद है, ‘
इंसान को भगवान से प्राप्त जन्मजात गुण के हिसाब से कर्म करने देना, ना कि समाज द्वारा निर्धारित उसके वर्ण-कुल के अनुसार उसको कर्म करने को बाध्य करना’| जैसे कि नाचने-गाने के क्षेत्र जिसको कि हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के तहत शुद्र श्रेणी में रखा गया है, बावजूद इसके बालीवुड में ब्राह्मण सितारों की भरमार होना और वो भी शीर्ष हैसियतों में जैसे कि अमिताभ बच्चन, हेमा-मालिनी, श्री-देवी, माधुरी दीक्षित, संजय दत्त, सुनील दत्त आदि, हरियाणा के कला क्षेत्र में भी दादा लख्मीचंद, पंडित मांगेराम से ले श्री दीपचंद ब्राह्मण हुए जिन्होनें यहाँ के स्थानीय सांग-कला के क्षेत्र पर अपना वर्चस्व जमाया| हालाँकि जाटों में ‘धर्मेन्द्र दयोल परिवार व् अन्य’ बालीवुड में और कवि जाट मेहर सिंह हरियाणा के सांग और कला के क्षेत्र में इनके समकक्ष नाम हैं|
ऐसे ही खेलों का क्षेत्र वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षत्रियों के सुपुर्द रहा, लेकिन क्रिकेट जैसे कुछ ऐसे खेल हैं जहां सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली व् सुनील गावस्कर जैसे सर्वोत्तम ख्याति प्राप्त खिलाड़ी ब्राह्मिण हैं| हालंकि क्रिकेट में समकक्षता के साथ-साथ कुश्ती, कबड्डी, बॉक्सिंग जैसे खेलों में जाटों का वर्चस्व कायम है|
चाणक्य के बाद राज और राजनीति जो कि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षत्रियों का क्षेत्र होता था उसमें भी ब्राहम्णों ने अपना वर्चस्व सिद्ध किया और देश की आज़ादी के बाद तो चौधरी चरण सिंह और श्री मनमोहन सिंह जैसे कुछ नेताओं को हटा दें तो तमाम प्रधानमंत्री ब्राह्मण हुए हैं|
हाँ व्यापार यानी वर्णव्यवस्था की चौथी इकाई ‘वैश्य’ क्षेत्र में ब्राह्मिनों को अपना वर्चस्व सिद्ध करना अभी बाकी है| वैश्य क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जहां जाट ब्राहम्णों से आगे हैं| 2008 की फ़ोर्ब्स मैगज़ीन (FORBES) ने लक्ष्मी मित्तल व् अम्बानी परिवार के साथ DLF के कुशलपाल सिंह को टॉप दस में वरीयता दी, जो कि इस सूची में पहुँचने वाले अकेले गैर-बनिया है|
संधि और मैत्री का क्षेत्र भी ऐसा क्षेत्र रहा जहां भारत में ब्राह्मण सबसे आगे रहे| फिर उसमें चाहे मुगलों का दौर रहा हो या अंग्रेजों का, उन विपरीत परिस्थितियों में भी सबसे ज्यादा मैत्री और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध इन्होनें स्थापित किये| हालाँकि जाट यहाँ भी बराबर खड़े थे, जैसे कि सर छोटूराम, भरतपुर रियासत, जाट रेजिमेंट और 1857 के बहादुरशाह जफ़र के प्रस्ताव के बाद खापें| और खापों का यह मैत्रीपूर्ण सौहार्द तो अभी 7 सितंबर 2013 तक भी बिना किसी खटास के मुस्लिमों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जारी था| और सच कहूं तो इसी सौहार्द के टूटने का दर्द है जिसने मुझे यह लेख लिखने को मजबूर किया कहो या प्रेरित, किया|
यह व्याख्या यहाँ कोई तुलनात्मकता पैदा करने हेतु नहीं अपितु यह समझने हेतु प्रस्तुत की गई है कि वास्तव में ब्राहम्णवाद क्या है| तो वास्तव में ब्राह्मिणवाद वो है ही नहीं जिसके अनुसार समाज यह समझ लेता है कि हमें किसी नई या प्राचीन वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ही कर्म करने का अधिकार है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो फिर एक ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मण के ही कर्म करता, ना कि वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से शुद्र वाले कार्य करने वाली बालीवुड में जा के महानायक बनता, या क्षत्रियों वाले खेलजगत में जा के क्रिकेट का सरताज बनता, या राजनीती में जा के देश का प्रधानमंत्री बनता|
अगर इसके मूल-रूप को देखो और इसको सर्वसमाज में समानता से लागू करो तो ब्राह्मिणवाद से बढ़िया कोई चीज नहीं, परन्तु इस व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता यह रही कि ब्राह्मण समाज ने इसे अपने अंदर तो इसी मूल रूप में लागू किया और वर्ण से बाहर जा कर भी प्रतिभा साबित करते रहे; लेकिन दूसरे वर्णों पर इसकी बाध्यता नजर आई और वर्ण से बाहर जाने पर कार्य का अधिकार सम्पूर्ण रूप से लागू नहीं हुआ, जिसके कि इतिहास और वर्तमान तक में अनगिनत उदाहरण देखे जा सकते हैं|
2) जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं: क्योंकि इसके अंदर जांचने, परखने, आलोचनात्मकता और विश्लेषण करने की निर्भीक क्षमता होती है| आलोचना करने की इसकी क्षमता पे तो कहा भी गया है कि "
छिका हुआ जाट राजा के हाथी को भी गधा बता दे|" और, वैसे तो यह बड़ा ही विवादित रहा है कि जाट हिन्दू हैं या वैदिक आर्य
(क्योंकि सर छोटूराम जी अपना धर्म 'हिन्दू' नहीं अपितु 'वैदिक आर्य' बताते थे और कहते थे कि हिन्दू 'वैदिक आर्यों' का सबसेट (subset) है क्योंकि हिन्दू बाद में हुए और आर्य अनंत काल से थे| और इसका प्रमाण है भगवद गीता, रामायण और महाभारत की मूल-प्रतियों में हिन्दू शब्द का कहीं वर्णन ना होना| इसलिए हिन्दू शब्द वैदिक आर्यन काल के बाद सम्भवत: बोद्ध काल की कृति है|) लेकिन फिर भी वर्ण-व्यस्था में इनको क्षत्रिय सुनता आया हूँ| तो जहां इनके समकक्ष अन्य क्षत्रिय जातियां ब्राहम्णों के सुझावों, परामर्शों, निर्देशों, उपदेशों को बिना किसी तर्क-वितर्क और प्रतिरोध के स्वीकार करती आई, वहीँ जाटों ने हर बार अपनी जांचने, परखने और विश्लेषण शक्ति पर परख कर ही अच्छे-बुरे का चयन किया और अंध-भक्ति से हमेशा तटस्थ रहे|
जिस तरह हर जाति-समाज में अच्छे-बुरे दोनों पक्ष होते आये हैं, ऐसे ही जाटों ने जब स्वामी दयानद जी
(जो कि जाति से एक ब्राह्मण थे) का दिया आर्य-समाज सिद्धांत पाखंडो और आडम्बरों से रहित लगा तो सबसे ज्यादा गले लगाया
(अगर कोई यह मानता हो कि जाट ब्राह्मिणों से या ब्राह्मण जाटों से घृणा करते हैं इसलिए उनको एंटी-ब्राह्मण कहा जाता है तो वह अपना यह पक्ष दुरुस्त कर ले और देखे कि एक ब्राह्मण के ही दिए आर्य-समाज के सिद्दांत को जाटों ने कैसे सर-धार्य किया|) और हरियाणा
(जिसके वास्तविक स्वरूप में आज का हरियाणा + दिल्ली + पश्चिमी उत्तर प्रदेश + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान आते हैं, इसको आप खापलैंड भी बोल सकते हैं) को ऐसी धरती बनाया कि जहां देश के कौने-कौने से साधू-तपस्वी आर्यसमाज की दीक्षा लेने आते रहे
(जिनमें ताजा उदाहरण टीम अन्ना में रहे स्वामी अग्निवेश हैं जो मूलत: छतीसगढ़ के हैं लेकिन इन्होनें हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया) और जिस-जिस बात में खोट लगा उसका दुर्विरोध किया|
और क्योंकि यह आलोचना से ले विश्लेषण की दुर्लभ क्षमता और फिर इस क्षमता के बल पे सामने वाले को थोबने की क्षमता ब्राह्मिणों के बाद जाटों के पास थी और जिस तरह विज्ञान के सम-पोल की थ्योरी (Theory of replusion of same poles) कहती है कि
समान भाव वाले आवेशित पोल एक-दूसरे को अस्वीकार करते हैं तो ऐसे ही जाटों और ब्राह्मण के साथ हुआ और वो एक दूसरे को मनौवैज्ञानिक क्षमता पर अस्वीकार करते रहे| जिसका फायदा इन दोनों जातियों में दूरियां बढ़ाने वालों ने उठाया और प्रचार किया जाने लगा कि जाट तो एंटी-ब्राह्मण हैं| जो कि विज्ञान के आधार पर देखो तो सत्य भी है परन्तु तार्किक क्षमता पर सबसे बड़ी समानता है| लेकिन लोग बजाये यह देखने के कि यह प्रचार किस आधार पर है इसमें दूर हटने की हीं भावना ज्यादा ढूँढ़ते हैं|
हालंकि स्वस्थ कम्पीटिशन और अस्वीकार्यता तो समाज में अनिवार्य भी है लेकिन वह दुर्भावना में तब तब्दील होनी शुरू हो जाती है जब उसको सिद्ध करने को गलत रास्ते अपनाये जाते हैं| जैसे कि 1931 में लाहौर कोर्ट की एक न्यायप्रति में ब्राह्मिणों द्वारा जाटों को शुद्र करार करवा देना, और यह करार करवाया गया ब्राह्मिणों में विदयमान स्वामी दयानंद के विरोधियों द्वारा| क्योंकि वो सोचने लगे थे कि जब से स्वामी दयानंद हुए हैं, जाटों ने आर्यसमाज को शिखर पर पहुंचा दिया है| सो इससे वो डर गए कि एक तो जाट पहले से ही उनके आलोचक रहे हैं और ऐसे में अगर इनका असर दूसरी जातियों पर पड़ गया तो हम तो भूखे मर जायेंगे| इसलिए दूसरी जातियों को जाटों और स्वामी दयानंद के प्रभाव से हटाने के लिए और जाटों को आर्यसमाज की राह पर चलने से रोकने हेतु हतोत्साहित करने के लिए उनको लाहौर कोर्ट से शुद्र ठहरवा दिया| जबकि धरातलीय सच्चाई यह थी कि एक ब्राह्मण स्वामी दयानंद की प्रसिद्धि दूसरे ब्राह्मण वर्ग को पसंद नहीं आई|
यहाँ शुद्र ठहरवाने के पीछे एक वजह सर छोटूराम जी
(जो कि जाट समाज के मसीहा थे) द्वारा खुद को खुलेआम ‘हिन्दू’ ना बता ‘वैदिक आर्य’ बताना भी बताई जाती है, जिसका कि मैंने ऊपर उल्लेख किया| और ऐसे ही दावे चचनामा में लिखवा दिए गए जबकि चचनामा का सत्य यह था कि राजा दाहिर
(एक ब्राह्मण) ने एक जाट-राजा
(जिसके दरबार में दाहिर उच्च पद पर होते थे) को गद्दी से उतार राज्य हथियाया था|
अत: जाटों को एंटी-ब्राह्मण कहना उनकी योग्यता का सूचक है ना कि अपमान का| ठीक वैसी ही योग्यता जिससे विद्वेष के चलते एक कर्मचारी अपने बॉस के आगे अपनी छवि बनाने या तरक्की पाने हेतु अपने समकक्ष काबिल सहकर्मी को नीचे से नीचा दिखाने की कोशिश करता है| तो यह है जाटों को एंटी-ब्राह्मण कहने की वजह| अब आता हूँ कि आज जाटों का ब्राह्मिणवाद खतरे में क्यों है पर|
3) मुज़फ्फरनगर की बिसात और जाट: निति, विधाता, निर्माता सब बैठकर रो रहे होंगे कि किस मनहूस घड़ी में जनता ने मुलायम सिंह यादव की सपा सरकार को क्यों फिर से यू. पी. की सत्ता सोंपी? यहाँ भी मैं जड़ों में हिन्दू धर्म की वर्ण व् जाति-व्यवस्था को दोषी पाता हूँ, वर्ना आज लोग यह भी कहते देखे जा सकते हैं कि इससे तो मायावती की सरकार अच्छी थी, जिसने कम से कम दंगे तो नहीं होने दिए थे| मैं सपा और बसपा को हिन्दू धर्म के दो धड़ों से ज्यादा कुछ नहीं मानता| ये ऐसे दो धड़े हैं
(हालाँकि वैसे तो हिंदुओं के तीन धड़े हैं, एक सपा वाला, एक बसपा वाला और एक जाटों वाला; यू. पी. में कांग्रेस और भाजपा किसी खाते नहीं आज के दिन) जिसमें एक तरफ हिंदुओं के तथाकथित स्वर्ण
(जाटों को छोड़ के) सपा के साथ लगे हुए हैं और दूसरी तरफ बाकी के सब बसपा
(जाटों को छोड़ के) के साथ| और पूरे यू. पी. के स्तर पर देखो तो तीसरा धड़ा होता था जाट और मुस्लिम की एकता का|
अब व्यधा ये आन पढ़ी थी कि जाट जो कि बाबरी मस्जिद जैसे विध्वंश में भी तटस्थ रहे
(धन्य हो जाटों के बाबा महेंद्र सिंह टिकैत जी और तमाम खापों के नेता, जिन्होनें बाबरी मस्जिद विध्वंश के वक्त भी पश्चिमी यू. पी. में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की नींव हिलने तक ना दी और एक भी दंगा नहीं हुआ; यहाँ याद रखिये यह जाटों का वही ब्राह्मिणों वाला संधि-सद्भाव बनाने वाला गुण था जिसने ऐसी विषम परिस्थितियों में जाट-मुस्लिम एकता बिखरने नहीं दी और यह बिखराव न होने देना भी कभी-कभी जाट को एंटी-ब्राह्मण कहने की वजह बनता रहा|), और अब भी साम्प्रदायिकता जैसी बातों से दूर रहे थे, उनकी यह राह भारतीय राजनीति के सबसे निम्न (नीच) स्तर वाली राजनीति को रास नहीं आ रही थी|
अब जब मुजफरनगर के दंगे हो चुके तब जा के धरातलीय स्तर के
(धरातलीय स्तर इसलिए क्योंकि दोनों वर्गों के बुद्धिजीवी तो इस संकट को पहले से ही पहचान चुके थे) जाट और मुस्लिम को यह समझ आ रहा है कि उनके साथ कितना बड़ा खेल खेला गया| हालाँकि खेल सारा यू. पी. सरकार ने खेला और वोटों के तुष्टिकरण की उनकी बेहूदी गहरी चाल का शिकार हुए जाट और मुस्लिम| बाकी इस दंगे में कब-कैसे-क्या हुआ, कौन-कितना दोषी था इसपे मैंने अलग से लेख लिखा था और निचोड़ निकाला था कि अगर 7 सितंबर को गंग-नहर पे हमला ना हुआ होता तो
(7 सितंबर की ही खाप-महापंचायत में बावजूद कुछ राजनैतिक नेताओं द्वारा भड़काऊ भाषण देने के, बाबा हरकिशन जी ने एडमिनिस्ट्रेशन को मेमोरेंडम देने के बाद सबको शांति से घर लौटने के लिए जो अपील की और निर्देश दिए उसका पालन करते हुए सब शांति से वापिस लौट चुके थे या लौट रहे थे) यह दंगा आगे नहीं बढ़ता|
यहाँ मुस्लिम संगठन भी बड़ी भारी भूल किये हुए हैं जो यह नहीं समझ पाये और शायद अभी तक भी नहीं समझ पा रहे हैं कि ये जाट और खाप ही थे जिन्होनें 1947 के भारत-विभाजन के बाद तमाम भारत से मुस्लिमों के कत्लेआम और पलायन के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आप लोगों को खरोंच तक नहीं आने दी थी| लगता है शायद मुस्लिम समाज के बुजुर्ग अपने बच्चों को यह संधि-सौहार्द और भाईचारे की विरासत पास करना भूल गए, वर्ना क्या मजाल कि मुस्लिम सरकारों के ऐसे बहकावे में आते और गंग-नहर पर हमला करते| या उन दो लड़कों के कत्लों में दोषियों को दंड दिलवाने में पीछे रहते|
वरन जो भी था घाघ अपनी चाल चल चुका, शायद घाघ को संधि-सम्बन्ध बनाये रखने की प्रीत की रीत भी खुद के आलावा किसी दूसरे के पास रास नहीं आती और हो गया या करवा दिया गया संधि-विच्छेद|
4) संधि-सौहार्द और सम्बन्ध के जाटों के ब्राह्मण रुपी गुण के मुज़फ्फरनगर में हुए विच्छेद का सबसे ज्यादा नुक्सान किसको?: सिर्फ और सिर्फ जाट को या मुस्लिम को| जाट को ‘सिर्फ और सिर्फ’ इसलिए कि दंगों के बाद उसके पुनर्वास को कोई सरकारी सहारा नहीं, सब कुछ उसे खुद करना होगा और 'या मुसलमान' को इसलिए क्योंकि, अब तो जैसे कि सुनने में आ रहा है कि उनके पुनर्वास में सरकार सहायता कर रही है लेकिन कब तक? आखिर विस्थापन का दंश, रोजगार के स्थाई जरिये छूटने-टूटने का दंश तो मुस्लिम भुगतेंगे ही साथ-साथ उनके सामाजिक जीवन में जो काली घाटी खुद गई है उसको तो शायद अब कोई बहादुरशाह जफ़र, चौधरी छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल या बाबा महेंदर सिंह टिकैत ही अवतारें तो भरने में आये|
पर यहाँ इनसे भी बड़ा नुकसान तो जाट का है, जिसके नतीजे फागुन-होली के आते-आते गिनती में आ जायेंगे, जब गिनने में आएगा कि मजदूर और कारीगर की कमी के चलते कितने खेतों में गन्ना खड़े-के-खड़े सड़ गया| महंगाई, बाजार का वैश्वीकरण और भ्रष्टाचार की मार क्या कम थी जो अब जाटों पर यह एक और मार आन पड़ी? जहां पहले से फसलों का उत्पादन लागत को पूरी नहीं कर पा रहा था अब तो शायद ही कोई किसान बचेगा जो कि लागत काट के मुनाफा कमा पायेगा| मतलब अब जाट चौतरफा मार में है मुज़फ्फरनगर में|
हालाँकि कि जैसे 7 सितंबर को खापों ने जनता का गुस्सा सुन उनको शांत करने की कोशिश करी; उनकी कोशिशें अभी भी जारी हैं और कुछ मुस्लिम सामाजिक संगठन भी इस मर्म को समझ, खोये हुए सम्बन्ध-सौहार्द की राह तलाश रहे हैं और बातचीतें चल रही हैं लेकिन ये
जब तक फिर से सिरे पर चढ़ेंगी तब तक कौन जाने कितने मुस्लिम बिना रोजगार के भूखे मरेंगे और कितने जाट उपज से ज्यादा लागत के खर्चों के चलते भरे बाजार कंगाल होंगे|
5) सम्बन्ध-सौहार्द रुपी जाटों के ब्राहम्णवाद के स्थाई रास्ते तलाशने ही होंगे: वैसे तो सारे हिन्दू और मुस्लिम समाज को लेकिन उसमें भी पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम एकता के ध्वजवाहक रहे जाटों को ऐसे समाधान ढूंढ़ने होंगे कि राजनीती और राजनेता को इस हद तक की छूट और निर्भयता ना मिले कि राजनेता इतने बड़े षड्यंत्र करें और समाज यूं तार-तार बिखर जाए|
जब सम्बन्धों की बात होती है तो चार प्रकार के सम्बन्धों में सबसे बड़ा और औचित्यपूर्ण सम्बन्ध होता है कारोबार/व्यापार का, फिर होता है सामाजिक सोहार्द और समन्वय का| लेकिन इन दोनों में भी सबसे बड़ा सच यह है कि सामाजिक सोहार्द और समन्वय का सम्बन्ध क्रिया में कारोबारी सम्बन्ध से छोटा होने के बावजूद भी वास्तविकता में कारोबार की वो चादर होता है जो अगर एक बार हटी तो उसके नीचे दबे कारोबारी खजाने को लुटेरे ऐसे बाँटते हैं जैसे कि हीरे-जवाहरात| और जबसे जाट-मुस्लिम के सामाजिक सोहार्द की चादर हटी है उनका कारोबार लुटेरों ने बाँट लिया है|
और कारोबार सिर्फ पैसा कमाने का नहीं, ताकत और सत्ता हथियाने का भी बाँट लिया है; और वो कैसे? वो ऐसे,
ना ही तो कोई मुलायम सिंह कल को अगर उसको सत्ता मिलती है तो किसी मुस्लिम को देश का प्रधानमंत्री बनाएगा और ना ही कोई अन्य पार्टी वाला, बल्कि खुद बनेंगे| जबकि जब यही जाट-मुस्लिम एकता साथ थी तो केंद्र में इनकी धाक थी, प्रथम श्रेणी में खड़े होते थे; धनाढ्य थे वो अलग से| और अब कब खड़े होंगे यह तो वक्त के गर्भ में जा छुपा है| और वो भी ऐसे अनिश्चित गर्भ में जिसका अभी तक यह भी सुनिश्चित नहीं हुआ है कि गर्भ ठहरा भी कि नहीं|