वैधानिक संदर्भ: बदलते परिवेश में गाँव की छत्तीस बिरादरी की लड़की-बेटी को अपनी बहन-बेटी मानना छोड़ देने वाले या जिन गाँव और समूहों में ऐसी सभ्यता नहीं है, हो सकता है ऐसे पाठकों को इस लेख का आधार ही तर्क-हीन लगे|
लेख प्रारम्भ: क्या एक भाई भी अपनी बहन की भ्रूण हत्या होने से बचा सकता है? आज रक्षा-बंधन के दिन मेरे मन में यह विचार कोंधा कि पुराने जमाने में तो भाई-बहन के रिश्ते की बड़ी-बड़ी मिशालें मिलती हैं जैसे कि
रानी कर्मवती ने हुमायूं को राखी भेज उनके सम्मान की रक्षा करने के लिए पुकारा और हुमायूं ने बिना विलम्भ किये रानी की सहायता की|
महारानी कशोरीबाई ने ग्वालियर के सिंधिया को अपने प्रधानमन्त्री के हाथों उनके मान-सम्मान की रक्षा हेतु राखी भेज सहायता के लिए बुलाया और उन्होंने उनकी सहायता की|
और ऐसी ही कितनी कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है जहां भाई-बहन के पवित्र धागे ने बड़ी-बड़ी मिशालें कायम की| लेकिन जब आज के इस हाई-टेक युग में देखते हैं तो ऐसी कोई रियासत नजर नहीं आती जिसको बचाने के लिए कोई बहन अपने भाई को राखी का वास्ता दे क्योंकि आज के दिन तो बहन को इस नौबत तक पहुँचने ही नहीं दिया जाता और कईयों को तो गर्भ से ही भगवान को वापिस लौटा दिया जाता है| तो फिर सोचा कि ऐसे में कोनसी चीज है जो आज भाइयों को अपनी बहनों की रक्षा के लिए उसी तरह उद्वेलित कर सकती है जैसे पुराने जमाने के किस्से| खासकर जब इन चीजों को गाँव के परिवेश में रख के देखा तो ये बातें ध्यान आई:
- गाँव की सब लड़कियों को बहन मानने की परम्परा हम निभाते हैं| 36 बिरादरी की लड़की-बेटी को अपनी बहन-बेटी मानते हैं|
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इसी रिश्ते की लिहाज में गाँव की गाँव में शादी भी नहीं करते|
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इसी रिश्ते की लाज में अपने गोत्र की लड़की से शादी नहीं करते|
तो भाई-बहन के रिश्ते में इतनी सिद्दत बरतने और श्रद्धा होने पर भी हमारे यहाँ लड़कियों की संख्या ऊपर क्यों नहीं आ रही? जिस समाज में बहन की परिभाषा इतनी बड़ी हो कि गाँव की 36 बिरादरी की लड़की को बहन माना गया, उस समाज में ही बेटियां इतनी कम क्यों? रक्षा-बंधन क्या हमको इतना भी नहीं सिखात कि अपने-अपने गाँव में जिन कन्या भ्रूण-हत्या करने वालों की वजह से हमारी बहनें धरती पर नहीं आ पाती उनको समाज से बहिष्कृत करवा दें?
क्या हम भाइयों की अपनी बहनों के खिलाफ हो रहे इस जघन्य अपराध पर चुप्पी भी तो इस असंतुलन का एक कारण नहीं? आईये इस रक्षा-बंधन पे संकल्प लें कि अपने-अपने गाँव में कन्या-भ्रूण हत्या ना हो उसके लिए सामाजिक-जागरूकता, हर गर्भवती महिला के सामयिक पंजीकरण, डॉक्टरों की उन पर निगरानी को सुनिश्चित कर अपनी बहनों को राखी-बंधाई का शगुन दें|
लेकिन फिर दिमाग बोलता है कि यह सब कहने में इतना आसान है परन्तु ऐसे कैसे सम्भव है? गाँव में किसी औरत से कोई मर्द कैसे पूछ सकता है कि तुम गर्भवती हो कि नहीं? ऐसा करने पे तो उलटे सर पे जूतियाँ पड़ेंगी और औरत के हाथ में जो होगा वो हमारे सर-माथे का धोबी-घाट बना देगा| और अगर औरत बोडिया (बेटे-भतीजे की बहु), छोटे भाई की बहु हो तो बात और भी नामुमकिन सी बन जाती है क्योंकि इनसे तो गाँव की मर्यादा और सभ्यता भी ऐसा प्रश्न करने की आज्ञा नहीं देती| ऊपर से मानों कि गाँव की पी.एच.सी. में जा के डॉक्टर से ही ये पूछा जाए तो डॉक्टर आप पे ही शक करेगा और नियत में खोट होने का अंदेशा कर कहेगा कि तू बड़ी सी.आई.डी. करता घूम रहा है?
तो इन अड़चनों का क्या हल हो ये सोचते हुए निम्नलिखित बातें दिमाग में आई जिनसे कि इन अड़चनों से काफी हद तक निबटा जा सकता है:
- गाँव की बूढी खबरी औरतों को इस प्रक्रिया में जोड़ा जाए: यह बात बिलकुल दुरुस्त है कि गाँव में मर्द औरतों से यह नहीं पूछ सकता कि आप गर्भवती हो या नहीं, परन्तु हर गाँव में और हर पीढ़ी में दादी के उम्र की कम से कम दो-चार ऐसी औरतें होती आई हैं जिनके पास गाँव के हर घर की, हर गली-कोने की खबर रहती है, जिनको कि गाँव की खबरी भी कहा जाता है| तो हमें इन खबरी औरतों से मिलना चाहिए| और इनको ढूँढना कोई बड़ी बात नहीं, हमारी माँ, बहनें या भाभियाँ ऐसी औरतों को बखूबी जानती होती हैं और हो सकता है हमारी दादी ही इस काम में मददकारी साबित हो|
तो हम मर्दों को किसी औरत के पास सीधा जा के पूछने की जरूरत नहीं, बस जरूरत है तो गाँव के इस खबरी संचार तन्त्र को प्रयोग में लाने की| इस तन्त्र को इस मुद्दे को समझाने की| और जब इन औरतों को हमारे उद्देश्य का पता लगेगा तो कोई भी औरत स्वत: ही हमारी सहायता करने को तैयार हो जायेगी| और अगर किसी गाँव में ऐसा खुफिया तन्त्र नहीं भी है (जिसके कि असार बहुत कम हैं) तो उस गाँव में वो तन्त्र खड़ा किया जा सकता है| अत: इस तरीके से यह पता औरतों से ही लगवाया जा सकता है कि कोनसी महिला गर्भवती है और उसका गाँव की स्थानीय पी.एच.सी. में पंजीकरण हुआ कि नहीं| पंजीकरण का पता गाँव की पी.एच.सी. के डॉक्टर से लगाया जा सकता है|
- डॉक्टर को आपका उद्देश्य साफ़-साफ़ बता दीजिये: अब आते हैं दूसरी अड़चन पर| आप एक बार आपके गाँव की या नजदीकी पी.एच.सी. के डॉक्टर को अपना उद्देश्य साफ़-साफ़ बता दोगे तो वो आप पे सी.आई.डी. करने का इलज़ाम लगाने की बजाये आपकी मदद करेगा/करेगी| क्योंकि पहली तो बात यह कि यह ऐसा मुद्दा है जिसपे शायद ही कोई डॉक्टर (जो कन्या-भ्रूण हत्या का धंधा करता हो उसको छोड़ कर) आपका साथ देने से मना करे| दूसरा पी.एच.सी. वालों पर सरकार का भी दबाव है कि इस मुद्दे पर डॉक्टर कुछ करें| और फिर क्या पता कोई डॉक्टर ऐसा भी हो जो यह काम करना चाहता हो परन्तु उसको गाँव से उचित और समर्थ लोगों का सहारा ना मिल रहा हो? इसलिए ऐसे में आप उनके लिए साथी सिद्ध हो सकते हैं|
इनके अलावा कई ऐसे कदम हैं जो सामाजिक तौर पर अकेले युवा-शक्ति भी उठा सकती है जैसे कि:
- गाँव-गाँव में युवा मंडल बना के खुले तौर पर इस बात की मुनादी करवा दी जाए और कुछ ऐसा किया जाए, जैसे गाँव निडानी का यूथ क्लब कर रहा है: कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ मैदान में आया खेल गांव निडानी का युवा मंडल
- गाँव का हर युवा मंडल गाँव की ग्राम-पंचायत परकन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ दबाव बनाए, गाँव में एक कठोर सन्देश भिजवाया जाए और ऐसे अपराधियों को शख्त चेतावनी दे दी जाए जैसे कि ऐसे लोगों को कानून के हवाले कर देना, उन पर जुर्माना लगाना, सामाजिक पंचायतों में भाग ना लेने देना या उसका सम्मान घटा देना|
- आने वाले सरपंची और पंचों के चुनाव में जो भी खड़ा हो उसके आगे इस मुद्दे को मनवाया जाए और तभी उसको वोट दिया जाए जब वो आपको इस अपराध को गाँव से ख़त्म करने का कोई भरोसे लायक वचन दे|
- हालाँकि थोड़ा मुश्किल है, चुनौती पूर्ण भी परन्तु हम अपनी-अपनी खाप के प्रधानों की मदद भी ले सकते हैं| जैसे कि गाँव में साल में कम-से-कम एक ऐसी मीटिंग रखवा सकते हैं जो इस मुद्दे पर गाँव के लोगों से सीधा संवाद करे और इस अपराध के मूल कारणों पर शोध हो सके| और फिर खाप अपने प्रभाव के सब गावों में इस पर बड़ी चर्चाएँ करवाएं और जो निष्कर्ष निकल कर आये उसको वक्त-वक्त पर लोगों से लागू करवाने का रास्ता निकालें|
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और जैसे कि हमारा समाज-पुरुष प्रधान है इसलिए झूठी पुरुष-प्रधानता के चलते स्थिति यहाँ तक आ पहुंची है कि कोई माता-पिता या भाई अपनी बहन की बिना दहेज़ की शादी करना चाहे तो वो नहीं कर सकता| कहने को लोग कह देते हैं कि हमें तो सिर्फ लड़की चाहिए लेकिन नब्बे प्रतिशत से ज्यादा ऐसे मामलों में शादी के बाद कहानी कुछ और ही होती है और शादी के वक़्त लड़की के सिवा कुछ नहीं चाहिए कहने वाले लोग फिर उम्र भर आपकी बहन-बेटी को जो प्रताड़ित करते हैं वो शब्दों में ब्यान करना मुश्किल हो जाता है| सो इस "हमें कुछ नहीं चाहिए" के पीछे की गुप्त सहमती को सिर्फ पुरुष-प्रधान समाज का वर पक्ष ही तोड़ सकता है वधु पक्ष नहीं|
इसलिए गाँव के हर युवा को शपथ लेनी चाहिए कि हम जब भी शादी करेंगे तो बिना दहेज़ की करेंगे और घर में सुनिश्चित भी करेंगे कि हमारे बिना दहेज़ शादी करने के फैसले का आदर हमारा परिवार भी करे| दहेज़ की समस्या कितनी विकराल है इस बात का इसी से पता लगता है कि निडाना-हाइट्स के हाल ही के सर्वे के मुताबिक 28% से ज्यादा लोगों ने दहेज़ को ही कन्या-भ्रूण हत्या की सबसे बड़ी जड़ माना है| यह सर्वे अभी-भी खुला है और इसपे आप भी अपनी राय इस लिंक पे जा के दे सकते हैं: आपके अनुसार ग्रामीण-परिवेश में कन्या-भ्रूण हत्या के पीछे निम्नलिखित में से क्या कारण होता है?
उत्तर-पश्चिमी भारत में पुरुष-प्रधानता कैसे बढ़ी: हालाँकि यह एक अलग विषय है परन्तु चलते-चलते इसपे प्रकाश डालना जरूरी हो जाता है| तो ज्यादा बड़े स्तर पर पुरुष-प्रधानता, जब दसवीं सदी में विदेशी-लुटेरों ने देश पर आक्रमण करने शुरू किये और क्योंकि वो अफगानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान से होते हुए आते थे और लगभग सभी का निशाना दिल्ली होती थी
(जो कि पहले आज का हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और राजस्थान के सीमांती जिलों को मिला के एक क्षेत्र होता था जिसका नाम हरियाणा होता था| यह हरियाणा था इसका प्रमाण इसी बात से होता है कि आज भी इस क्षेत्र के मूल निवासियों की सामूहिक बोली हरियाणवी है|) और इससे हम उत्तर-भारतीय उनके मुहाने पर यानी पश्चिम से उनके आक्रमण के अग्रिम शिकार होते थे और क्योंकि आक्रमणकारियों का पहला निशाना हमारा धन और औरतें होती थी तो अपनी औरतों और धन की रक्षा हेतु पुरुष-प्रधानता का किरदार ज्यादा बड़े स्तर पर उभर कर आया| इसकी एक वजह लुटेरों की सेना में सिर्फ मर्दों का होना ही भी थी| इसलिए उनसे निबटने को पुरुषों को आगे आना पड़ा तो इससे समाज में पुरुष प्रधानता बढ़ी| जो बढ़ी तो एक अच्छे उद्देश्य के लिए थी लेकिन आज इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं|
और क्योंकि ऐसे हमले पर हमलों की लगत्मार ने सबसे बड़ा शिकार हमारे समाज में औरतों और सम्पत्ति को बनाया तो इससे समाज में औरतें खतरा मानी जाने लगी और उनकी सुरक्षा करना मुश्किल हो गया| शायद यही परिस्थितियाँ और कारण रहे होंगे जब औरत की समाज में अहमियत घटी| और यही कारण है कि आज पेंसठ साल की आज़ादी के बाद भी हम अपनी औरतों के लिए वो पहले जैसा माहौल बनाने में नाकाम हो रहे हैं| इसे हजारों साल की गुलामी के दंश के रूप में भी देखा जा सकता है कि हम वो सदियों पहले वाली औरत की जगह उसको नहीं दे पा रहे हैं|
निष्कर्ष: वापिस मुद्दे पर आते हुए निष्कर्ष निकालते चलते हैं| अगर आज के दिन से ही कन्या-भ्रूण हत्या पर लगाम लगानी शुरू करनी है तो इन सब में बिंदु 1 सबसे कारगर सिद्ध होगा, जिसमें कि गाँव की खबरी महिलाओं के ख़ुफ़िया-तन्त्र से बिना किसी दिक्कत के इस बात का पता लगाया जा सकता है कि कोनसी महिला गर्भवती है|
लेकिन यहाँ फिर बात आती है कि पता तो लग गया कि कौन गर्भवती है परन्तु फिर उसपे निगरानी कैसे राखी जाए? क्योंकि ऐसे भी बहुत से माँ-बाप हैं जो लड़के-लड़की में अंतर नहीं करते और लिंग-जांच नहीं करवाते| तो वो इस पूछ-ताछ को अपनी असिम्ता पर ठेंस की तरह देखेंगे| इसके लिए गाँव की यूथ क्लब, कानूनी अथवा सामाजिक पंचायत की मदद ली जा सकती है| और इसके किर्यान्वयन के लिए बिंदु चार और छ: वाला तरीका अपनाया जा सकता है| और ऐसे जोड़ों को बताया जा सकता है कि यह पूछ-ताछ हम गाँव से कन्या-भ्रूण हत्या की हर संभावना पर लगाम लगाने हेतु कर रहे हैं|
और क्योंकि गाँव की छत्तीस बिरादरी की लड़की सबकी बहन के नियम के अनुसार गाँव के हर घर में पैदा होने वाली लड़की को बचाना आपका-मेरा-हमारा फर्ज है| इसलिए जब यह हमारा ध्येय बन जायेगा तो फिर देखिये कि कैसे हम भाई, माँ-बाप ना होते हुए भी अपनी बहनों की सही मायनों में रक्षा कर पाएंगे| और जिस दिन आपके गाँव में ऐसा हो जायेगा उस दिन सही मायनों में हम अपनी बहनों को राखी-बंधाई का शगुन-नेग देंगे| और हमारी बहनों को यही शगुन चाहिए भी आज के दिन|
सचेत: चूंकि कन्या-भ्रूण हत्या का मुद्दा जितना विकराल रूप गावों में लिए हुए है इतना ही विकराल शहरों में भी है लेकिन जैसे कि गाँव और शहर के परिवेश में अंतर है तो गाँव का फ़ॉर्मूला शहर में शायद चले| पंरतु शहर में भी कन्या-भ्रूण हत्या पर सामाजिक तौर पर लगाम लगाने के लिए भी बहुत से रास्ते निकाले जा सकते हैं| ओहो जैसे गाँव में तो रास्ता अमल में आ गया?