यज्ञ-कुंड भुजे पड़े, आर्य हो खड़ा रे|
सभ्यता तेरी कुंद हुई, काल के ग्राहक रे|
ले उठा क्रांति-मशाल निकल, क्यूँ सहमा हुआ रे,
तूने हर युग सभ्यता घड़ी, अब हो नया दौर शुरू रे||
|
|
भूमिका: ज्यादा समय पुरानी बात नहीं, मेरे बचपन यानी आज से 15-16 साल पहले की ही तो बात है| जब मेरे गाँव में हर चीज आर्य समाजी रीति से होती थी| आर्यों के मेले मेरे गाँव के मैदान चौंक में हर दूसरे-तीसरे महीने भरते थे| स्वामी रत्नदेव का महिला शिक्षा के प्रति उन्माद, पंडित रामनिवास शर्मा व् अन्य दूसरे आर्य-गायक और उनकी मंडलियों के द्वारा रचित एवं संगीतबद्ध सांगों, भजनावलियों और आर्यवीर गाथाओं की स्वरलहरियाँ आज भी जब स्मृत होती हैं तो पूरे तन-मन को रोमांचित सी कर जाती हैं और मुझे प्रतीत होता है कि जैसे मैं आज भी उनके मंच-संचालन में स्वैच्छिक मदद करता गाँव के उसी मैदान-चौंक पर वीर आर्य गाथाएं सुन भाव-विभोर सा झूम रहा हूँ|
वैसे तो हम आर्यों की औलादें हैं लेकिन जब से खापलैंड की मुख्य किसान जातियों जैसे कि जाटों ने स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के नए स्वरूप को अपनाया था, खापलैंड की सामाजिक सभ्यता और संस्कृति नें इसकी समृद्धि का एक नया दौर देखा| और यह कहानी सिर्फ मेरे गाँव की ही नहीं अपितु इस क्षेत्र के हर गाँव की थी| और 1990 के दशकों तक भी सब कुछ ज्यों का त्यों था और मात्र एक-ढेढ़ दशक में इतना सब बदल जाएगा कभी सपने में भी नहीं सोचा था| आइये जानते हैं कि आज जब यह किसान जाति आर्य-समाज से विमुख दिखती है तो इसकी सभ्यता और संस्कृति ने कैसा मोड़ लिया है:
परिवेश: आर्यों का आर्य समाज से विमुखन के मुख्य कारण:
- आर्य समाज मंदिरों का आर्य जातियों और पवित्र सत्यार्थ प्रकाश के ही विवाह सम्बन्धी नियमों का आदर ना करना|
- आर्य समाज जो कि मूर्ती-पूजा का दुर्विरोधी था के द्वारा मूर्ती-पूजा में संलिप्त होते जाना|
- आर्य गुरुकुलों का आधुनिकता को टक्कर देने काबिल विद्यार्थी बना पाने में नाकाम रहना|
- आर्य समाज के नियमों और सिद्धांतों में समयानुरूप बदलाव कर उनका प्रचार व् प्रसार न कर पाना|
- सह-शिक्षा का बदलाव एक ऐसा बदलाव था जिसको आर्यसमाज समझने में बिलकुल नाकाम रहा, एक मायने में कहो तो यही इनके सिकुड़ने की मुख्य वजह रही है|
- द्विपक्षीय वार्ता से होने वाले बदलावों का एकल हो जाना|
विमुखन का समाज की सभ्यता-संस्कृति पर पड़ा उल्टा असर:
- गावों से प्रोत्साहन का चलन जाता रहा| पहले जहाँ असाधारण विद्यार्थी, खिलाडी, चरित्रवान बुजुर्ग का आदर-सत्कार होता था, सभाओं-चौपालों में उनके चर्चे होते थे, वहीं आज सिर्फ ताश के खेल और 50 से ऊपर की उम्र के बुजुर्गों काले चश्मे लगाए जैसे किसी भयानक संकट की आहट से घबराए से बैठे दीखते हैं| सबको संस्कृति का हनन सामने दीखता है पर हर कोई दुबका सा बैठा है|
- अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहने की सभ्यता सो गई है|
- आज ऐसे लोगों की संख्या एक इकाई प्रतिशत में सिमट के रह गई है जो गाँव और गोत के स्वर्णिम सिद्धांत का पालन करते हों| हर कोई गिद्ध सी दृष्टि जमाये पड़ोसी के घर की इज्जत का नाश कब हो इस आहट में टकटकी सी बाँधे दीखता है|
- आर्य समाज के रहते जहां ज्ञानी और चरित्रवान इंसान समाज में आदर पाता था आज उसकी पात्रता जमीन और सम्पत्ति रह गई है, जो कि आज से 15-20 साल पहले तक द्वितीय गिनी जाती थी|
- उन गावों में जहां औरतें कार्तिक के महीनें में खेतों के कुए-जोहड़ों पर बेधड़क स्नान करने जाया करती थी और उनके नहाने के समय एक भी नर का वहाँ से गुजरना नहीं होता था, आज आर्यसमाज कहो या इसके नए जवाब की गैर-हाजिरी में उन्हीं गावों की औरतों का (जहां "गाँव और गोत" के सिद्धांत लोगों ने पाले), उन्ही गावों में बहु-बेटी का सांझ का अँधेरा होते ही घर से अकेली बाहर निकलने में जी निकलता है, सांस अटकती है|
- आर्य-समाज के रहते जहाँ हर गाँव की गली-ठोले में 2-4, 2-4 ऐसे बुजुर्ग रहते थे जो कि आर्य योग संध्या और ध्यान प्रक्रिया करके, एकांत में बैठ गाँव और समाज की दशा और दिशा पर आत्म-मंथन करते थे, वो अब गली-ठोले तो क्या पूरे के पूरे गाँव में ही इक्का-दुक्का दीखते हैं| और जो दीखते हैं वो भी खत्म होने के कगार पर हैं| जो नए-नए बुजुर्ग श्रेणी में शामिल होते हैं वो पहले से ही आधुनिकता के शिकार "अधजल गगरी छलकत जाए जैसे सूरते-हाल बने बैठे हैं| उनके लिए फ़िल्में देखना और उन्हीं फिल्मों को बच्चों को ना देखने देना ही उनकी सभ्यता सी रह गई ऐसा प्रतीत होता है| क्योंकि आधुनिकता की इस दौड़ में और अध्यात्म चिन्तन के अभाव में वो खुद निर्धारित से नहीं दीखते की बच्चों के लिए क्या सही है और क्या गलत|
आखिर ऐसे क्यों हो रहा है:
- देश की गुलामी के कारण मजबूरी में अपनाई प्रथाओं का त्याग न करना: पर्दा प्रथा और ज्यादा बारात का चलन, ऐसे दो श्राप हैं हमारे समाज पर जो भारत को 1100 से 1947 तक चली गुलामी की देन थे| इससे पहले खापलैंड में इनका नामों-निशां भी नहीं था| तो हमारे समाज नें 1947 में गुलामी का चौला उतार आज़ादी तो पहन ली परन्तु अपनी औरतों को अपनी पुरानी सभ्यता पे वापिस आते हुए उनको परदे से मुक्त करना और लड़की वाले को ज्यादा बारात के बोझ से मुक्त करना आज तक भूले बैठे हैं|
- आर्य-समाज से विमुख तो हुए पर उसका विकल्प तलाशे बिना: अगर आर्य किसानों को लगता है कि आर्य-समाज में भी अब दुसरे पाखंड-पाखंडियों की तरह झूठ-छलावा और पाखंड आ गया है तो इन्होनें इससे विमुख होने से पहले इसका विकल्प तलाशने का कार्य किसके जिम्मे छोड़ा? कोई भी समाज और सभ्यता आध्यात्मिकता के बिना पूरी नहीं हो सकती| आत्मा की सुद्धि के लिए धर्म के ज्ञान का स्त्रोत होना जरूरी होता है, जो कि एक दशक पहले तक आर्य-समाज पूरा कर रहा था और समाज फल-फूल भी रहा था, इसकी सभ्यता अपने स्वर्णिम चरमोत्कर्ष पर थी| लेकिन अब जब (हालाँकि अभी पूरी तरह विमुख नहीं हुए हैं आर्य समाज से) इससे विमुख हुए से लगते हैं तो इसका विकल्प भी तो तलाशना उनकी ही जिम्मेदारी है| याद रहे इसका विकल्प जल्दी ही नहीं तलाशा गया तो समाज आध्यात्म अज्ञान, आक्रोश, अन्धकार और विलासिता के ऐसे चौराहे पर आन खड़ा होगा कि जाएँ किधर ये भी नहीं सूझेगा| इसलिए चौपालों-परसों-बैठकों-नोहर्हों-घेर-दरवाजों-चौराहों-धर्मशालाओं और बुर्जियों पर बैठने वाले बुजुर्गों और समाज को दिशा देने में समर्थ समझने वाले हर इंसान को अब यह मंथन करना ही होगा|
- वर्तमान हासिल में सुधार की बजाय पूर्ण त्याग का रव्वैया: यही खापलैंड का आर्य कृषक और शाषक समाज था जिसनें मूर्ती-पूजा, बुत्त पूजा, तन्त्र-मन्त्र के झूठे पाखंडों से तंग आ, अशोक, चन्द्रगुप्त मोर्य और हर्षवर्धन के काल और नेत्रित्व में हिन्दू धर्म को छोड़ "बुद्ध" धर्म को अपनाया क्योंकि यह लोग अंधे हो किसी के कहे से किसी को पूजने में विश्वास नहीं करते थे| फिर आया मुगलकाल और ब्रिटिश राज, जिसमें सदियाँ खुद को बचाने में ही निकल गई| तब 1875 में स्वामी दयानंद के रूप में एक ऐसा देदीप्यमान सूर्य उदय हो के आया, जिसके मूर्ती पूजा और पाखंड-विरोधी सिद्धांत ने सदियों पहले हिन्दू धर्म से विमुख हुई इन जातियों को ना सिर्फ अपनी ओर खींचा बल्कि हिन्दू धर्म की तरफ वापिस भी मोड़ा| लेकिन अब फिर से ये जातियाँ उसी मोड़ पे आन खड़ी हैं| शायद आगे बढ़ चुकी हैं| छोड़ तो चुकी हैं परन्तु अब आर्य-समाज के बाद क्या इसका जवाब किसी भी महापुरुष ने अपने समाज को अभी तक नहीं दिया है| और इसमें देरी शायद इसलिए लग रही है क्योंकि ये जातियाँ किसी को अपनाते हैं तो पूरा और त्यागते हैं तो वो भी पूरा| इन्हीं में सुधार करके चलने की रीत इनको नहीं आती, और शायद इसीलिए इन्होने कभी इतिहास को इतनी तव्वज्जो नहीं दी क्योंकि ये नया इतिहास बनाने में विश्वास रखने वाली नश्लें हैं, परन्तु अब इस विश्वास को भी जैसे घुण सा लग गया है|
- राज्य का नाम हरियाणा पे पर हरियाणवी का राजकीय सम्मान क्या हो उसका कोई अता-पता नहीं: जिस राज्य में प्राथिमक और द्वितीय भाषाओँ में भी उस भाषा का नाम नहीं तो कैसे उसकी संस्कृति बची रह सकती है?
- संस्कृति और सभ्यता के उत्थान के लिए कोई सरकारी/सामाजिक पैमाना नहीं: जहां दक्षिण-भारतीय राज्यों से ले पडोसी पंजाब तक में फिल्मों-नाटकों के जरिये उनकी भाषा-संस्कृति पर फ़िल्में बनाने हेतु वहाँ की सरकारें अलग से बजट देती हैं, वहीँ हरयाणा सरकार और हरियानत के राजनैतिक राजनैतिक व् सामाजिक ठेकेदार सोये से दीखते हैं| तभी तो कोई भी किसी भी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे टी वी शो में टूटी-फूटी हरियाणवी भाषा बोल के/बुलवा के (स्थानीय व् छोटे दर्जे के कलाकारों को छोड़कर) अपने आप को हरियाणत का पैरोकार समझ लेता है, जैसे कि "ना आना लाडो इस देश"| जबकि आजतक कोई भी ऐसी फिल्म/टी वी सीरियल न तो बॉलीवुड ने बनाई और ना ही किसी हरियाणवी फिल्म निर्माता ने जो सच्ची हरियाणवी सभ्यता को छू के गई हो| हां म्यूजिकल हिट तो कई फ़िल्में आई लेकिन यथार्थ पर असर छोड़ने वाली फिल्म नहीं हुई आज तक| और सरकार की उदासीनता इसका सबसे बड़ा कारण है|
आर्य समाज के बाद क्या?:
- आर्य समाज-2: सन 1875 से ले कर आज तक आर्य-समाज के नाम पर दान दे-दे जितने भी मंदिर-धर्मशाला बनवाये, क्या उनपे ऐसे ही अपना हक़ और कब्ज़ा छोड़ दोगे आप? हाँ भाई क्यों नहीं छोड़ देंगे, जिन्होनें अपनी जमीनें छोड़-छोड़ एक छोटी सी दिल्ली को एन.सी.आर. का रूप दे दिया| इंडिया-गेट से ले राष्ट्रपति भवन तक के लिए जिन्होनें जमीने दे दी हों, तो फिर उनके लिए 137 साल के तो सिर्फ आर्य-समाज के इतिहास काल में बनवाये मंदिर छोड़ना क्या बड़ी बात है और फिर वो तो दान में दी हुई चीजें हैं, उनपे हक़ भी काहे का?
शायद यही उस वक़्त हुआ होगा जब हिन्दू धर्म से बोद्ध धर्म अपनाया और फिर बोद्ध धर्म में गए आप आर्य लोगों ने वापिस स्वामी दयानंद का आर्य समाज अपनाया? आपकी जाति तो मुख्य रूप से तो पैदा ही इस काम के लिए हुई लगती है कि आपकी दान-दक्षिणा से मंदिर-डेरे बनेंगे और फिर एक दिन तुम ही उनको छोड़ के दूसरे को अपना लोगे?
अभी हाल ही के एक अध्यन से पता चला है कि अकेले हरियाणा में पि्छले पांच सालों में 12000 मंदिर बनवाये गए? कहते हैं कि आप हरियाणा की संख्या के हिसाब से भी और दान देने के हिसाब से भी सबसे बड़ी जाति माने जाते हो? तो मान लो इनके आधे भी आपने बनवाये होंगे तो कितना पैसा खर्च कर दिया इनपे? और क्या यह पैसा अंत में ऐसे छोड़ के चल देने को? बनाओ तुम, और ऐश करें कोई और? पैसा और भक्ति लगाओ तुम और फिर भी एंटी-धर्म कहलाओ तुम?
आखिर कब तक?
- क्यों नहीं इन मंदिरों-ट्रस्टों की बागडोर अपने हाथों में रखते?
- क्यों छोड़ें हम आर्य-समाज को अब? वो क्यों न छोड़ें जो हमारे आर्य समाज के खिलाफ जा के हमारे आर्य समाजी मंदिरों से ही गैर-आर्य समाजी कार्य करते हैं?
- जब स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी कह दिया था कि मेरे दिए सिद्धांतों को समयानुसार बदलना होगा, इनपे शोध करते रहना होगा? तो क्यों नहीं आपने इनके लिए शोध-समूह गठित किये? जो आपको सलाह दें कि यह-यह इस-इस समय पर समाज में बदला जाए|
- फिर उनके सुझाए सुधारों पर समाज का मत लिया जाए और जो समाज सर्वसम्मत कर दे उस सुधार को लागू कर दिया जाए?
- क्या जरूरत है हमें फिर से नया धर्म ढूँढने की, फिर से नए मंदिर बनाने में जमीनें और पैसे खराब करने की?
- क्या हमारी पीढ़ियों को पैसा नहीं चाहिए, उनके सुधार के काम नहीं चाहियें हमें, जो इन विस्थापनों और विकल्पों पर पैसा फूंकते रहेंगे हम?
इसलिए आर्य-समाज 1 की बनी बनाई विरासत को छोड़ना कोई अक्लमंदी नहीं अपितु हमें आर्य-समाज 1 को सुधार आर्य-समाज 2 शुरू करना चाहिए
- खापों के प्राचीन रूप का ग्रहण: मैंने आज तक जितने भी लोकतंत्र, सत्ता और अधिकार के विकेंद्रीकरण के अध्याय पढ़े, किसी में इतना गूढ़ विकेंद्रीकरण नहीं दिखा जितना भारत की आज़ादी से पहले की खापों में होता था| और मैं यह किस आधार पर कह रहा हूँ उसके बिंदु निम्नलिखित हैं:
- किसी भी पुराने खाप पुरोधा ने अपने बुत-मूर्ती-समाधि बना, उन पर पूजा करने से ना सिर्फ मना किया अपितु इसका घोर विरोध भी किया| उन्होंने कहा कि सूरमे, गुरु साहिब और योद्धा किसी एक पीढ़ी या जाति की बपोती नहीं होते, इसलिए पूजा की तरह कुछ करना है तो अपनी आने वाली पीढ़ियों में नए सूरमा बनाओ जो हम से भी बढ़ के हों| जो कि हर हालत में सिर्फ और सिर्फ एक सत्ता केन्द्रीकरण से विहीन व्यवस्था की निशानी हो सकती है और वो थे हमारी पुरानी खापों के पुरोधा|
- खाप इतिहास और खापों के महत्वपूर्ण लड़ाइयों और सेना रखने के प्रचलन के अध्यन से पता चलता है कि इनमें छत्तीस जाति और सर्व-धर्म के महारथी, सेनापति से ले उपसेनापति, और प्रशिक्षक से ले साधारण सैनिक तक के पदों पर हर जाति के नुमाइन्दे पाए गए| ऐसा नहीं था कि गुरु की गद्दी या सेनापति की गद्दी सिर्फ एक ही जाति के इंसान के लिए आरक्षित थी| सो यूँ का यूँ पुराना खाप तन्त्र वापिस लाया जा सकता है|
- पुरानी खापों में महिलाओं की भी उतनी ही भागीदारी होती थी जितनी कि पुरुषों की, खाप इतिहास पढने और जानने से इस बात के भी व्यापक प्रमाण मिलते हैं|
तो इसी खुली सोच के, आपके अपने पुरखों के स्वर्णिम तन्त्र को आप उठाइए, इसमें जितने भी आज के समय के अनुरूप स्त्री-पुरुष की समानता सम्बन्धी नियम चिन्तन और सुधार करने हैं कीजिये, और दीजिये अपने समाज को नया विकल्प|
- इन दोनों बिन्दुओं के अलावा ऐसा भी कुछ किया जा सकता है:
- टीवी कार्यक्रमों पर निगरानी: आपके मृदुल और स्वछंद स्वभाव की वजह से मीडिया जो चाहे वो आपपे दिखाता रहता है| टी वी सीरियल वाले जो चाहें वैसे आपकी संस्कृति के पहलुओं को, वो भी टूटी-फूटी हरियाणवी में दिखाते रहते हैं? क्यों नहीं इन पर मानहानि के दावे ठोंके जाते? क्यों नहीं ऐसी सामाजिक समितियाँ गठित की जाती, जो आपकी निगरानी में टीवी पर आने वाले सीरियल में हमारी संस्कृति के नकारात्मक के साथ सकारात्मक पहलु भी दिखाए जाएँ, उसको सुनिश्चत करवाएं?
- हरियाणवी संस्कृति पर उपन्यास/नाटक/चरित्र/कहानियाँ लिखवानी होंगी: आप खापलैंड के कोने-कोने से ऐसे लेखकों से जिनकी लेखनी में ठेठ हरयाणव छलकता हो, उनको निमंत्रित कर नियुक्त कीजिये कि आप हमारी संस्कृति के पात्रों पर हरियाणवी में कथानक कीजिये, और जिसका कथानक उत्तम हो, उसपे टीवी वालों को कहिये सीरियल बनाएं, अन्यथा अपना बोरिया-बिस्तर बांधे और ये आधी-कच्ची हरियाणवी के सीरियल किसी और राज्य में दिखाएँ|
- पंचकुला के साहनी पर मुकदमा ठोंका जाए और पूछा जाए कि तुम्हारे समाज में ऐसा क्या अच्छा है जो मेरे समाज को छोड़ तुम्हारे को ग्रहण करूँ? और अगर अच्छा नहीं है तो वो दूसरों के समाज के प्रति घृणात्मक रव्वैया छोड़े और अपने समाज की सुद्ध लें|
- कन्या भ्रूण हत्या, ऑनर किलिंग और बलात्कार में कानून द्वारा दोषी पाए जाने पर आप भी उस प्राणी विशेष का सामाजिक बहिष्कार करवाएं| लेकिन ध्यान रहे इस बहिष्कार का भोगी अभियुक्त स्वयं हो, उसका परिवार या भाई-बन्धु नहीं|
विशेष: बिंदु 3 में सुझाए गए कार्य पहले दोनों बिन्दुओं (आर्य-समाज-2 या खाप) में से किसी के भी साथ जोड़ कर किये जा सकते हैं| ये उनमें से किसी भी बिंदु का भाग हो सकते हैं| साथ ही कृपया यह भी संज्ञान रहे, कि मैंने ऐतिहासिक व् आजादी से पहले की खापों के स्वरूप को आज के परिवेशनुरूप बना अपनाने की बात कही है, खापों के वर्तमान स्वरूप में सुधार की काफी गुंजाइस भर गई है|
उद्घोषणा: इस लेख में प्रस्तुत विचार, लेखक ने अपने समाज में गूढ़ आस्था होते हुए, इसकी सभ्यता-संस्कृति के स्वरूप तथा उत्थान पर मंथन हेतु लिखे हैं, अत: पाठक की किसी भी प्रकार की अवधारणा उसकी अपनी समझ का पर्याय हो सकती है, जो कि समय-अवसर-धर्म-क्षेत्र के हिसाब से किसी की भी भिन्न हो सकती है|
जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर
लेखक: पी. के. मलिक
प्रकाशन: निडाना हाइट्स
प्रथम संस्करण: 14/12/2012
प्रकाशक: नि. हा. शो. प.
उद्धरण:
|