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!!!......गंभीरतापूर्वक व् सौहार्दपूर्ण तरीके से अपनी राय रखना - बनाना, दूसरों की राय सुनना - बनने देना, दो विचारों के बीच के अंतर को सम्मान देना, असमान विचारों के अंतर भरना ही एक सच्ची हरियाणवी चौपाल की परिभाषा होती आई|......!!!
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खाप सोशल इन्जिनीरिंग
हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम्
"दादा नगर खेड़ाय नम: (दादा बड़ा बीर/दादा खेड़ा/दादा बैया/दादा भैया/बड़े दादा/बाबा भूमिया)"
मोर पताका: सुशोभम
हरियाणा भूमि पर लोकतंत्र की सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम की पारंपरिक खाप पंचायत परम्परा
हरियाणा सर्वखाप पंचायत 643 इसवी में स्थापित की गई व् स्थानेसर (कुरुक्षेत्र), दिल्ली, रोहतक, हरिद्वार व् कन्नौज इसके मुख्य कार्यवाही केंद्र बनाए गए| उस वक्त से ले के 1857 तक हरयाणा जिस भू-भाग को कहा जाता था उसमें आज का हरियाणा, प्रस्तावित हरित प्रदेश, दिल्ली, हरिद्वार तक का दक्षिणी उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान व् उत्तरी-पश्चिमी मध्य-प्रदेश आते थे| इस भू-भाग को 1857 में अंग्रेजों ने राजनैतिक व् व्यापारिक मंशाओं के चलते विखंडित कर दिया जो कि आज तक जारी है|

पृष्ठभूमि: पंचायतें समाज विकास के आरम्भ से ही किसी न किसी रूप में चली आ रही हैं। पंचायतें आर्य कबीलों पर आधारित समाजों की विशिष्ट पहचान प्रतीत होती हैं। शुरू में इन पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी भी होती थी परन्तु कालान्तर में यह परम्परा विदेशी आक्रान्ताओं से अपनी औरतों को बचाने हेतु विलुप्त होती चली गई और मध्यकालीन युग के मुग़ल और अंग्रेज काल में तो यह महिला की सामाजिक भागीदारी के नाम पर तो बिलकुल ही लुप्त हो गई| थोड़ी बहुत जो भागीदारी बची थी वो युद्धों में रह गई थी| पुराने समय से ग्राम समाज चौपालों में एकत्रित होकर दादा खेड़ा या खेड़ा नगरी के जयघोष से सामाजिक तथा व्यावहारिक चर्चाएँ करते थे। इन चर्चाओं के माध्यम से सामाजिक गतिविधियों का संचालन करते समय निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती थी। जब सामूहिक निर्णय लिए जाते थे तो गाँवों के बड़े-बूढ़ों की राय को यथायोग्य सम्मान दिया जाता था। इन्हीं सार्वजनिक सहमतियों के लिए एकत्रित समाज को गणराज्य तथा पंचायत राज माना गया है। यहीं से इनकी नींव पड़ी है।

ग्रामीण समाज पंचायत के रूप में बहुत से व्यक्तियों के समूह द्वारा विचार करने के उपरान्त निर्णय लेने से पूर्व इन्हीं एकत्रिात व्यक्तियों में से पाँच व्यक्तियों को नामित करते थे और इस फैसले को ‘पंच-फैसले’ अथवा ‘पंचायती फैसले’ की संज्ञा दी जाती थी। सर्वखाप पंचायतों के अभिलेखों में अनेक प्रमाण मिलते हैं कि पंचायतों में बैठकर पंच न्याय करते थे। दण्ड देने का तरीका भी सामाजिक पद्धति पर ही टिका हुआ था, क्योंकि जुर्माने के तौर पर एक धेला (अधेला) ही लिया जाता था। सामाजिक बहिष्कार करके हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाता था। इस पंचायती फैसले के विरुद्ध अथवा समीक्षा की अपील नहीं होती थी। यद्यपि उसी अथवा उससे बड़ी खाप पंचायतों में इसका पुनर्निरीक्षण अवश्य करा लिया जाता था। दण्डित व्यक्ति यदि फैसला स्वीकार नहीं करता था तो एक-दो दिन में उसे समझ आ जाती थी। मजबूर होकर वह खाप पंचायत में गिड़गिड़ाता हुआ आकर क्षमा याचना करता था।


‘पंच’ शब्द का महत्व: वास्तव में पंचायत का अर्थ है कि पंच जमा आयत अर्थात् पाँचों से बनी आयत अथवा पंचायत। भारतीय संस्कृति अथवा किसी भी धर्म की ओर दृष्टि डालने पर पाँच शब्द का महत्वपूर्ण प्रयोग मिलता है। यही वह मूल कारण कहा जा सकता है कि इस संस्था को ‘पंचायत’ कहा जाता है। धार्मिक कथाओं, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में पाँच शब्द को पर्याप्त महत्व दिया गया है। सिख पंथ में भी पाँच शब्द का अत्यधिक महत्व है। बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर के स्थान पर ‘पँज प्यारे’ ही बनाए गये थे। गुरु गोविन्द सिंह जी ने पांच शब्द को ही अपनाया। इसके साथ ही सिक्ख पंथ में पाँच ‘कक्के’ नियत किए गये हैं। हिन्दुओं में हुक्के को ‘पंच प्याला’ कहा जाता है। आर्य लोगों में ‘पंच महायज्ञ’ विधि भी इसी का प्रमाण है और भारतीय शास्त्रावेत्ताओं ने अपने वार्षिक कलेण्डर को भी ‘पंचांग’ का नाम दिया है।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो सर्वविदित है कि हमारी पाँच ही कर्म-इन्द्रियाँ हैं और पांच ही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हमारे इस शरीर को ‘पंचभूत’ का ही पुतला कहा गया है। मुख्य रूप से वस्त्र पाँच प्रकार के माने गये हैं। मुख्यत: पाँच ही हथियार माने गये हैं।

‘पाँच’ शब्द का अपना ही राजनीतिक महत्त्व भी है। आरम्भ में राजनैतिक दृष्टि से ही भारत सरकार ने पिछली शताब्दी के पाँचवें दशक में भावी भारत की उन्नति के लिए ‘पंच वर्षीय योजना’ प्रारम्भ की गई। चीन के साथ समझौते का नाम भी ‘पंचशील’ ही रखा। लोकसभा, विधान सभा तथा पंचायतों का कार्यकाल भी पांच वर्ष निर्धारित किया गया। पुराने समय के पांच सदस्यों में चार सदस्य चुने हुए तथा पांचवां राजा अथवा उसका नामित प्रतिनिधि - तब जाकर पंचायत का गठन होता था।

कुदरत में पहले से ही हाथ व पांव की उंगलियाँ भी पाँच-पाँच ही बनी हुई हैं। इन सब बातों को मिलाकर यह धारणा और भी मजबूत बनती है कि पाँच शब्द का अपना विशेष महत्त्व है। इसी धारणा के चलते ही हमारे बुजुर्गों ने ‘पंचायत’ शब्द में ‘पंच’ अर्थात् पांच शब्द को अपनाया। जनमानस के पटल पर पंचायत की छवि बतौर ‘पंच परमेश्वर’ सर्वव्यापक है और इसी गहन आस्था पर पंचायती ढांचा टिका हुआ है तथा आदिकाल से निरन्तर पनप रहा है।


खाप उत्पत्ति: ग्रामीण स्तर पर परस्पर विवादों का निपटारा करते समय ग्राम पंचायतें कारगर मानी जाती थीं। यदि कोई मुद्दा दो या दो से अधिक गाँवों में उलझ जाता और उस पर विचार विमर्श करके निर्णय लेना होता था तो उस अवस्था में खाप पंचायतें कारगर होती थीं। सामाजिक नियन्त्रण के उद्देश्य के लिए कई गाँवों की राजनैतिक एवं सामाजिक पंचायत के रूप में संगठित एक इकाई को खाप कहते हैं। भाईचारे की पंचायतों का आधार मूल रूप से गोत्रों पर आधारित है। प्रथम तो छत्तीस बिरादरी की खाप की पंचायत जिन्हें चौगामा, अठगामा, बारहा, चौबीसी, चौरासी तथा 360 पालम महापंचायत और दसौड़ी पंचायत (सार्वभौम) आदि कहा गया है। इन पंचायतों की भूमिका परस्पर झगड़ों को भाईचारे द्वारा निपटाना है जिसमें परस्पर खापों के आपसी विवाद भी शामिल हैं। इस प्रकार की छत्तीस बिरादरी की खाप पंचायतों का महत्व आज भी बखूबी कायम है क्योंकि इन पंचायतों ने परस्पर झगड़ों का निपटारा करके भाईचारा कायम रखने का कार्य तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में सराहनीय कार्य किया है।

पंचायतों का दूसरा स्वरूप गोत्र के आधार पर गठित पंचायतों का भी अपना विशेष महत्व रहा है। जैसे दहिया, अहलावत, मलिक उर्फ गठवाला, दलाल, सांगवान, हुड्डा, काद्यान, श्योराण, ओहल्याण, नैन, लाठर, छिल्लर-छिकारा, रुहिल-राठी तथा खत्री इत्यादि गोत्रों के नामों पर खापें बनी हुई हैं। इस प्रकार की गोत्र पंचायतों में ज्यादातर मसले विवाह सम्बन्धी विवादों के ही समाधान के लिए आते रहे हैं जिनका समाधान भी सामाजिक परिस्थितियों में होता चला आ रहा है।


कार्यप्रणाली: खाप पंचायत जैसी संस्था लोकतांत्रिाक आधार पर गठित की जाती है और जिस पर इनकी कार्यप्रणाली टिकी हुई है। खापों के जरिए झगड़ों को बिना किसी कोर्ट-कचहरी के भाईचारे से ही निपटाया जाता रहा है। इन निर्णयों को ‘पंच-परमेश्वर’ का निर्णय समझा जाता रहा है। इस लोकतांत्रिक परम्परा में पंचायत का चाहे कोई भी रूप अथवा स्तर रहा हो, सभी में सार्वजनिक सहमति को प्राथमिकता दी जाती थी और हर किसी को अपनी बात कहने अथवा सुझाव देने की पूरी छूट थी। इसी वजह से पंचायती फैसलों को सर्वमान्यता मिलती थी और कोई भी किसी तरह का संशय अथवा विवाद सामने नहीं आ पाता था। यह भी उल्लेखनीय है कि इन खाप पंचायतों की प्राय: कोई भी कार्यवाही लिखित नहीं होती थी। निर्णय तथा कार्यवाही मौखिक तथा पांरपरिक तरीके से होती थी। इनके ये मौखिक निर्णय सर्वमान्य कानून की तरह होते थे। इनको लागू करने के लिए केवल सामाजिक स्वीकृति ही एकमात्र साधन था।

हरियाणा में सर्वखाप पंचायत की यह विशेषता रही है कि इसकी कार्यप्रणाली को धर्म, रूढ़िवादिता तथा साम्प्रदायिक संकीर्णता छूकर भी नहीं गई। लोगों को उतना डर देवता के शाप का नहीं था, जितना कि पंचायत के परमात्मा स्वरूप पंचों का। खाप पंचायत हिन्दू एवं मुसलमान के नाम पर कभी नहीं बंटीं। खाप पंचायतें शान्तिप्रिय व अहिंसावादी रही हैं लेकिन हिंसात्मक चुनौती मिलने पर सशस्त्र मुकाबला और सामना करने के लिए तैयार भी रहती थीं।

खाप पंचायतों का आह्वान करने और लोगों को एकत्रित करने की अपनी एक विशेष प्रक्रिया थी। खाप पंचायत के मुखिया के पास जानकारी अथवा अपनी शिकायत दायर की जाती थी। मुखियासमाज के गण्यमान्य समाजशास्त्री, विचारोक्ति में निर्भयता, स्पष्टता व् निष्पक्षता के लिए मशहूर व्यक्तियों की सलाह ले कर योग्य पंचों का चयन करता था। प्राय: विवादग्रस्त जाति वर्ग व समूह से ही ऐसे व्यक्तियों या उनके प्रतिनिधियों को बतौर पंचायती सदस्य सम्मिलित किया जाता था। तब जाकर खाप की पंचायत बुलाई जाती थी। ये सभी पंचायतें कार्य आरम्भ करने से पहले उपस्थित व्यक्तियों में से ही कार्यवाही संचालन के लिए प्रधान का चुनाव भी मौके पर ही करती थीं। मौके पर ही पञ्च व् प्रधान चुनने का यह फ़ायदा होता था की फरियादी और अपराधी दोनों पक्षों में किसी को यह नहीं पता होता था की तुम्हारा न्याय कौन करने वाला है; ऐसा होने से पञ्च या प्रधान को प्रभाव में लेने या रिश्वत दे के खरीदने की सम्भावना ही नहीं रहती थी, ऐसी संभावना जो कि आज के भारतीय कानून तंत्र में यदा-कदा सुनने और देखने को मिलती है और एक जनधारा सी बन गई है कि वकील और जज को रिश्वत दे के या अपने बाहुबल और पैसे का प्रभाव दिखा के दबाया या खरीदा जा सकता है| पंच परस्पर सलाह करके मौके पर ही निर्णय करती थीं। यही परम्परा आज भी प्रचलित है।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: हरियाणा क्योंकि जाट बहुल प्रदेश रहा है, इसलिए इन्हें जाट पंचायतें भी कहा जाता रहा है। इनके छोटे-छोटे गणराज्य देश-विदेशों में भी रहे हैं। इन यौद्धेय जाटों का गणराज्य वैदिक काल के बाद अस्तित्व में आया था। शिलालेखों के अनुसार सम्राट चन्द्र गुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य (382-414 ईस्वी) ने इन पंचायती गणराज्यों को समाप्त कर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। प्राय: फिर भी कहीं-कहीं पंचायतें और पंचायती खापें अपनी जनता की रक्षा तथा न्याय हेतु अस्तित्व बचाने में कामयाब हो गई थीं। इनका पुनर्जन्म सातवीं सदी ईसा बाद में हुआ।

सन 643 में सम्राट हर्षवर्धन (सन 606-647) के शासनकाल में कन्नौज के स्थान पर एक विशाल-हरियाणा सर्वखाप पंचायत का सम्मेलन बुलाया गया जहां इन खापों का एक गणतान्त्रिक संघ बनाया गया जिसका नाम ‘हरियाणा सर्वखाप पंचायत’ रखा गया। तब इसके मुख्य स्थान थे, कुरुक्षेत्र (स्थाणेश्वर), दिल्ली, रोहतक, हरिद्वार और कन्नौज। सन 643 से 2008 तक के 1365 वर्ष के समय को चार भागों में विभाजित करके इन खाप पंचायतों के विकास का विवरण कुछ इस प्रकार बनता है:


1) सन 643 से लेकर 1206 ईस्वी तक: पौराणिक काल से लेकर सन 643 ईस्वी तक खाप और सर्वखाप पंचायतों ने ‘पूगा’ पंचायत तक ऐसे कई कार्य किए जिनसे प्रमाणित होता है कि उन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा करने का साहसिक कार्य किया तथा देश के भीतर धर्म और जातीय भेदभाव को जन्म देने वालों का विरोध किया। धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का जाल बिछाने वालों का घेरा तोड़ा, छुआछूत का विरोध किया तथा राजसत्ता का मुकाबला करके लोक प्रशासन की पद्धति को अमलीजामा पहनाया और प्रत्येक संकट के समय बड़ी से बड़ी कुर्बानी दी।

इस दौरान तत्कालीन जाट राजाओं ने जाटों की खाप पंचायतों के वीरों की सहायता से हमलावर हूणों को देश के बाहर सीमाप्रान्तों की ओर खदेड़ा। रावी तट पर इन्होंने ही यूनान से आये सिकन्दर महान को रोका था और लौटते समय उस पर बाण का ऐसा घाव दिया कि वह स्वस्थ नहीं हो सका और सिंधु दरिया के जरिये बाहर समुद्र की ओर निकलते हुए अपने किश्ती बेड़े के पोत में ही मर गया। सन 710-11 ईस्वी में सिन्ध पर आक्रमण करने वाले मोहम्मद बिन कासिम से खाप पंचायतों ने टक्कर ली थी। इस तरह सर्वखाप योद्धा अनेक युद्धों में अनेक बार लड़े, मिटे, मारे गये और उखडे, पर झुके नहीं। सन 1026 ईस्वी में सोमनाथ का विध्वंस करके लौटते समय महमूद गजनवी को पंजाब से परे सीमाप्रान्त में रहने वाले खोखर जाटों की खाप ने बेतहाशा लूटा था। इसलिये महमूद गजनवी सन 1026 ईस्वी में आखिरी बार हिन्दुस्तान आया ताकि सोमनाथ के मंदिर को लूट सके और जाटों को सबक सिखा सके परन्तु वापिस जाते समय उसे राजपूत और जाट योद्धाओं ने इतना तंग किया कि लूट का सारा माल बरबाद हो गया और वह अपने चंद साथियों के साथ परेशान हाल ही गजनी पहुंचा था।

सन 1191 और1192 ईस्वी में तरावड़ी और हांसी के पास तुर्क और अफगानों के साथ भीषण युद्धों में हजारों जाट वीरगति को प्राप्त हुए थे। इन युद्धों में दिल्ली का शासक पृथ्वीराज चौहान बंदी बना लिया गया था जिसे घोरी (मोहम्मद गौरी) ने गजनी ले जाकर अनेक यातनाएं देने के बाद कत्ल कर दिया था। इसके बहुत बाद सन 1206 ईस्वी में एक सर्वखाप पंचायत हुई थी जिसमें उक्त पराजय के मद्देनजर यह निर्णय लिया गया कि हम अपनी रक्षा स्वयं करेंगे और दीन-धर्म की रक्षा करने के लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर देंगे। इस पंचायत में यह भी विचार हुआ कि विभिन्न खापों से शक्तिशाली नौजवानों को लेकर 60 हजार से लेकर 1 लाख सैनिकों तक की सेना गठित कर ली जाए तथा भिन्न-भिन्न खापों के मध्य शान्ति एवं एकता कायम रखी जाए।

इसी प्रकार 1197 ईस्वी में बड़ौत के स्थान पर एक सर्वखाप पंचायत सम्पन्न हुई थी। इसमें बारह खापों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था और पंचायत ने दिल्ली विद्रोह को दबाने के लिए अपनी सेना भेजी जिसमें नब्बे हजार वीर सैनिक थे। सुल्तान की सेना के साथ डटकर लड़ाई हुई जिसमें नौ हजार सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। अन्तत: कुतुबुदीन ने पंचायती सैनिकों का लोहा मान लिया।

वर्ष 1205 ईस्वी में खोखर खाप के विद्रोह को दबाने के लिए शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी (1192-1206 ईस्वी) फिर भारत आया और उसने विद्रोह को दबा दिया। परन्तु विद्रोह दबाया गया था ख़त्म नहीं हुआ था। इसलिए जब वह वापिस गजनी जा रहा था तो 15 मार्च, 1206 ईस्वी को धम्यक के स्थान पर 25 हजार खोखर जाटों की सेना ने उस पर धावा बोल दिया और उसको मौत के घाट उतार दिया गया (यहाँ गौरी की हत्या पृथ्वीराज द्वारा होने का दावा करने वाले ध्यान दें कि गौरी ने पृथ्वीराज को 1192 में गजनी ले जा कर मार दिया था, जबकि वो खुद 1206 में खोखर खाप के जाटों द्वारा मारा गया था)|


2) सन् 1206 से 1857 ईस्वी तक: इस अवधि के दौरान सर्वखाप पंचायतों ने बड़े उतार चढ़ाव देखे। बादशाहों के साथ घमासान युद्ध किये और उन्हें हराया। कभी-कभी तो इन्हें सन्धि करने को विवश होना पड़ा और कभी इन्होंने अपनी शर्तें भी मनवाई। 650 वर्ष के इतिहास में सर्वखाप पंचायतों ने कई युद्धों में भाग लिया जिनमें मुख्य रूप से मुल्तान युद्ध, हिन्डन और काली नदी के स्थान पर अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ईस्वी) के साथ युद्ध, तैमूरलंग के विरुद्ध हरियाणा सर्वखाप पंचायतों का जमावड़ा (1398 ईस्वी) तथा अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की सहायतार्थ सर्वखापों की भूमिका प्रमुख है। शासन से पंचायती सर्वखापों के टकराव के मुख्य कारण राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, प्रशासनिक आदि थे जिसका विस्तृत विवरण इस प्रकार है :

सुल्तान अल्तमश (1210-1236 ईस्वी) ने खाप पंचायतों से समझौता किया और शान्तिपूर्वक राज किया। इसके उपरान्त बहुत थोड़े समय के लिए हरियाणा की सर्वखाप पंचायत ने रजिया बेगम (1236-1240 ईस्वी) की सहायता के लिए वर्ष 1236 में अपनी सेनाएं भेजीं और जिसके फलस्वरूप रजिया बेगम ने प्रसन्न होकर 60 हजार दुधारू गाय व भैंसें पंचायत के पहलवानों तथा सैनिकों को दूध पीने के लिए प्रदान कीं। वर्ष 1266 ईस्वी में गंगा स्नान के पर्व पर भिन्न-भिन्न खापों ने पूजा स्थानों और धार्मिक पर्वों पर लगाए गये जजिया कर को बन्द कराने के लिए बादशाह नसीरुद्दीन मोहम्मद शाह प्रथम (1246-1266 ईस्वी) के पास प्रतिनिधि भेजे जिसने पेश की गई शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

खाप पंचायत के सन्दर्भ में ‘शोरम’ गांव एक विशेष स्थान रखता है क्योंकि सर्वखाप पंचायत का यह गांव एक तरह से मुख्यालय रहा जो कि खाप पंचायतों के आरम्भ से स्वतन्त्रता प्राप्ति तक चला आया है। यह ‘शोरम’ गांव मुजफ्फरनगर शहर से 15 मील दूर पश्चिम में स्थित है।

इसी प्रकार 1266 ईस्वी में ‘शोरम’ गांव में जाकर बादशाह बलबन (1266-1286 ईस्वी) ने मंगोल हमलावरों को देश से भगाने के लिए सर्वखाप पंचायत की सहायता मांगी थी जिसे सहर्ष प्रदान किया गया था। उल्लेखनीय है कि सेना के 65 हजार मल्ल योद्धाओं को सर्वखाप पंचायतों ने मंगोलों को खदेड़ने के लिये युद्ध में भेजा था।

1297 ईस्वी में सर्वखाप पंचायत का सम्मेलन ‘शिकारपुर’ में हुआ, जिसमें लगभग 300 जाट प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अलाउदीन खिलजी (1296-1316 ईस्वी) ने भी पंचायत की तमाम शर्तों को मंजूर किया और पंचायतों के साथ मित्रता स्थापित की। 1326 ईस्वी में मुहम्मद शाह तुगलक (1325-1351 ईस्वी) का शासन था और बादशाह की जनता के प्रति कठोर नीति थी। आनंद सिंह राणा की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायतों की बैठक हुई और पंचायत के झण्डे के नीचे एकत्र होकर शाही लूट से किसानों तथा जनता को बचाया। सर्वखाप पंचायत का सबसे महत्वपूर्ण सम्मेलन सन 1352 में हुआ था जिसमें 210 वीरों को छांटकर फिरोजशाह तुगलक (1351-1388 ईस्वी) के दरबार में दिल्ली भेजा गया। इन 210 वीरों के बलिदानी दल में 66 जाट, 25 ब्राह्मण, 15 अहीर, 15 गुर्जर, 10 वैश्य, 9 हरिजन, 8 बढ़ई, 6 लुहार, 5 सैनी, 5 जुलाहे, 5 तेली, 4 कुम्हार, 4 खटीक, 4 रोड़, 3 रवे, 3 धोबी, 2 नाई, 2 जोगी, 2 गुंसाई और 2 कलाल शामिल थे।

इन वीरों ने कार्तिक पूर्णिमा को ‘गढ़मुक्तेश्वर’ में गंगा स्नान करके दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। दिल्ली पहुँचकर बादशाह के सामने अपनी मांगे रखीं। बादशाह ने इनकी कोई बात नहीं मानी और इनको कत्ल करने का हुक्म दे दिया। इस तरह इन सभी वीरों ने अपना बलिदान समाज के लिए दे दिया। इससे सारे देश में अव्यवस्था फैल गयी और बादशाह की खुली अवहेलना हुई।

1398 ईस्वी में तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण कर दिया। खाप पंचायतों द्वारा नियुक्त वीरों ने तैमूर की सेना से अनेक स्थानों पर टक्कर ली। दिल्ली से सहायता न मिलने के बावजूद सर्वखाप पंचायत के वीर सेनानियों ने तैमूर लंग के दान्त खट्टे कर दिए थे।

सन् 1490 में सिकन्दर लोदी शासनकाल में सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन ‘बड़ौत’ में हुआ और बढ़े हुए जजिया का विरोध किया गया। विरोध इतना तीव्र था कि सिकन्दर लोदी (1489-1517 ईस्वी) ने घुटने टेक दिये और 1505 ईस्वी में सर्वखाप पंचायत के मुख्य कार्यालय ‘शोरम’ गाँव में आकर 500 अशर्फियां पुरस्कारस्वरूप प्रदान कीं।

इब्राहिम लोदी (1517-1526 ईस्वी) के विरुद्ध उसके सगे भाई जलालुद्दीन लोदी ने बगावत कर दी थी जिसे दबाने के लिए इब्राहिम लोदी ने सर्वखाप पंचायत से मदद मांगी थी। यह सहायता सर्वखाप पंचायत ने 49 हजार वीर सैनिक भेजकर की।

राणा सांगा ने बाबर (1526-1530 ईस्वी) के विरुद्ध1527 ईस्वी में खानवा के युद्ध में सर्वखाप पंचायत से सहायता मांगी। सर्वखाप पंचायत ने 25 हजार वीर सैनिक महाराजा धौलपुर के नेतृत्व में राणा सांगा की ओर से बाबर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजे। हालांकि देसी सेनाएं हार गइ लेकिन खाप के पराक्रम व संगठन को देखकर बाबर इनसे बेहद प्रभावित हुआ। सन 1528 में बाबर हरियाणा सर्वखाप पंचायत के मुख्यालय गाँव ‘शोरम’ में पहुँचा। शोरम गांव के चौधरी को 1 रुपया सम्मान का और एक सौ पच्चीस रुपये पगड़ी के तौर पर जीवनभर देने का वायदा किया।

‘आईन-ए-अकबरी’ के अनुसार सर्वखाप पंचायत ने बादशाह जलालुद्दीन अकबर (1556-1605 ईस्वी) के आदेश को भी ठुकरा दिया था। यह एक अद्वितीय उदाहरण है। सन 1576 में महाराणा प्रताप द्वारा अकबर की सेनाओं के विरुद्ध हल्दीघाटी में लड़े गये युद्ध में सर्वखाप पंचायतों ने बीस हजार सैनिक भेज कर सहायता की थी।

औरंगजेब के शासनकाल में सर्वखाप पंचायतों को शासन का कोपभाजन बनना पड़ा और इसके दौरान सर्वखाप पंचायतों की कमर तोड़ दी गयी। औरंगजेब के अत्याचारों के विरोध की ज्वाला सामूहिक रूप से तेज हो उठी। इसके बहुत बाद सन 1855 में गढ़गंगा पर 5 अक्तूबर को एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें लिये गये एक निर्णय के अनुसार अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजा दिया गया।

सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्राता संग्राम में खाप पंचायतों का संगठन पुन: चरम सीमा पर पहुंच गया। इस दौरान पंचायती सेना में मुख्य तौर पर जाट, अहीर, राजपूत और गुर्जर थे। हरियाणा सर्वखाप पंचायत के संगठन ने अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक कार्य किए। सबसे पहले विरोध का झण्डा ऊँचा किया गया। इस विरोध के केन्द्र जमुना नदी के दोनों ओर थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलन्द शहर, बहादुरगढ़, रेवाड़ी, रोहतक, सिरसा, हिसार और पानीपत में जबरदस्त विद्रोह हुआ था। ‘विद्रोह’ में हिस्सा लेने वालों को पकड़ कर सजा के तौर पर गिरड़ी के नीचे पेला गया और उनकी जायदादें छीन लीं गयी जिनकी नीलामी हुई थी। देशभक्तों को सरे आम वृक्षों पर फांसी पर लटका दिया गया।

23 जून, 1857 को दिल्ली में सर्वखाप पंचायत के 1000 प्रमुखों को सम्राट बहादुर शाह जफर ने सम्बोधित करते हुए स्पष्ट कहा था -‘सर्वखाप पंचायत के नेताओ! अपने पहलवानों को लेकर फिरंगियों को निकालो। आप में शक्ति है और जनता आपके साथ है। आपके पास योग्य और वीर नेता हैं। शाही कुल में नौजवान लड़के हैं। परन्तु उन्होंने कभी युद्ध नहीं किया, बारूद का धुंआ नहीं देखा। आपके जवानों ने अंग्रेजी सेना की शक्ति की कई बार जांच की है। आजकल यह राजनीतिक बात है कि नेता राज घराने का हो। परन्तु राजा और नवाब गिर चुके हैं। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली है। आप पर देश को अभिमान और भरोसा है। आप आगे बढ़ें और फिरंगियों को देश से बाहर निकालें। निकालने पर एक दरबार किया जाए और राजपाट स्वयं पंचायत संभाले। मुझे कुछ उजर न होगा।’

इसी तरह 1 जुलाई, 1857 को सम्राट बहादुरशाह जफर ने सर्वखाप पंचायत के प्रधान को एक विशेष पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपने दिल की बात रखते हुए लिखा था -‘सर्वखाप पंचायत के प्रधान मुल्क हिन्द में रहने वाले हर कौम और मजहब के लोगों से मेरी इल्तजा है कि इस नामुराद फिरंगी कौम से मुल्क की हुकूमत को छीनकर मुल्क के काबिल और समझदार व खुदापरस्त लोगों की एक पंचायत इक्कट्ठी करो और उनके हाथ में मुल्क का आईन (विधान) बनाकर हुकूमत को चलाएं। मैं अपने सारे अख्तियार उस पंचायत को बड़ी खुशी के साथ देता हूँ।’ बादशाह के उपरोक्त पत्र के मिलने के पश्चात सर्वखाप पंचायतों ने अपनी सैनिक शक्ति का संग्रह करना आरम्भ कर दिया और अन्य शक्तियों से सम्पर्क बढ़ाया। हरियाणा सर्वखाप पंचायत के 5 हजार मल्ल योद्धा सैनिक 2 जुलाई को मुहम्मद बख्त खां की रूहेलों की फौज के साथ, जिसमें 14 हजार पैदल सैनिक थे, दिल्ली पहुंच गये। सम्राट ने अपने अयोग्य पुत्र मिर्जा मुगल को सेनापति पद से हटाकर बख्त खां को प्रधान सेनापति और दिल्ली का गर्वनर नियुक्त कर दिया। 3 जुलाई को बख्त खां ने दिल्ली के लाल किले के सामने 52 हजार सैनिकों की परेड कराई और 4 जुलाई को अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया। इसी सिलसिले में बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह की सेना दिल्ली की पूर्वी सीमा पर तैनात हुई और बख्त खां ने इस मोर्चे की कमान भी राजा नाहर सिंह को थमा दी।

हरियाणा सर्वखाप पंचायत ने दिल्ली के चारों तरफ 165 मील के क्षेत्र में मुनादी करा दी कि भारतीय सेनाओं को रसद व जरूरी सामान मुहैया कराया जाएगा। अत: हरियाणा निवासियों ने सेना को खाद्य सामग्री एवं जरूरी चीजें अंग्रेजों के साथ युद्ध के दौर में उपलब्ध करवाई| सर्वखाप सेनाओं की इस घेराबन्दी से डरकर ब्रिटिश इंडिया के प्रथम वायसराय लार्ड कैनिंग (1856-1862 ईस्वी) ने इस मोर्चेबन्दी को तोड़ने के लिए और दिल्ली पर अधिकार करने के लिए जी तोड़ कोशिश की। इसी सिलसिले में 9 जुलाई, 1857 को अंग्रेजी सेना, जिसकी संख्या 2500 थी, यमुना नदी पर किश्तियों का पुल बनाकर लालकिले के पिछवाड़े उतरी। पंचायती सैनिकों ने अंग्रेजों से जबरदस्त टक्कर ली और अनेक को मौत के घाट उतार दिया। इस मोर्चे पर सर्वखाप पंचायत के जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत वीरों ने अधिक संख्या में भाग लिया। यह लड़ाई लगभग तीन महीने चली। दोनों पक्ष खूब वीरतापूर्वक लड़े और खून की नदियां बह गई| दुर्भाग्यवश 24 सितम्बर, 1857 को अंग्रेजी सेना ने दिल्ली पर पुन: कब्जा कर लिया। फिर अंग्रेजों ने जो दमनचक्र चलाया उसके सामने नादिरशाह और तैमूरलंग भी बौने पड़ गए थे।


3) सन 1857 से 1947 तक: सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्राता संग्राम में सर्वखाप पंचायतों की भूमिका के मद्देनजर अंग्रेज सरकार ने सर्वखाप पंचायतों तथा भाईचारा पंचायतों को जड़ से उखाड़ने की नीयत बना ली। फिर भी भाईचारा व गोत्र पंचायतों ने किसी न किसी रूप में ग्रामीण समाज में अपना अस्तित्व बनाए रखा।

अंग्रेजी राज ने सर्वखाप पंचायतों की लोकप्रियता और मान्यता को देखते हुए इन्हें झूठमूठ के अधिकार देने का प्रयत्न किया। यद्यपि लार्ड रिपन (1880-1884 ईस्वी) जो स्वायत्त शासन के पिता माने जाते हैं, उन्होंने भी उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में ही पंचायतों के लिए सराहनीय कार्य किए। परन्तु खाप पंचायतों की स्वायत्तता पर प्रहार होते रहे। खाप पंचायतों की प्रथा का असर धीरे-धीरे कम करने के लिए इनके बराबर में सरकारी पंचायतें खड़ी करने का प्रयत्न किया गया। इसी संदर्भ में ज्ञातव्य है कि सन 1857 से 1947 तक दमनचक्र और राजनैतिक अनिश्चितता के चलते सर्वखाप पंचायत की औपचारिक बैठक कभी नहीं बुलवाई गयी। वर्ष 1907 ईस्वी में एक रॉयल कमीशन बैठाया गया। इस कमीशन ने कुछ सिफारशें कीं जिनमें पंचायतों को बहुत कम भागीदारी प्रशासन में दी गई। डाक्टर एनी बेसेन्ट ने उन सिफारिशों के प्रतियुत्तर में कहा था -‘बच्चे के हाथ पैर बांधकर आज़ाद छोड़ दो और उससे कहो कि वह चलना सीखे। वह अपंग हो जाएगा। फिर इसे खोलकर कहो कि वह चलना नहीं सीख सकता। अत: उसे आज़ाद नहीं छोड़ा जा सकता।’ उसी प्रकार से अंग्रेजी हकूमत में पंचायतों को कभी भी स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने का अवसर प्राप्त नहीं होने दिया। इस प्रकार सर्वखाप पंचायतों का असर कम होता चला गया।

सर्वप्रथम उत्तरी भारत के हरियाणा प्रदेश में पंजाब ग्राम पंचायत एक्ट-1912 पास किया गया जोकि लागू नहीं हो सका और ग्रामीणों द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया। लोगों ने पुरानी परम्परा पर चलने वाली गोत्र व भाईचारा वाली पंचायतों को ही महत्त्व दिया। सरकारी पंचायतों का बहिष्कार किया। इससे सबक लेकर सन 1921 में कुछ सुधारों के साथ दूसरा एक्ट पास किया गया जिसका पहले की भांति बहिष्कार हुआ।

सन 1911 ईस्वी में सर्वगोत्र मुखियाओं का एक महासम्मेलन बुलाया गया था। यह महासम्मेलन दहिया खाप के प्रसिद्ध गांव बरोना, तत्कालीन जिला रोहतक लेकिन वर्तमान में जिला सोनीपत में आयोजित हुआ था। इसके मुखिया दहिया चालीसा के प्रधान मटिण्डू गांव के चौधरी एवं जैलदार पीरूसिंह थे और उस समय के ब्रिटिश राज के अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षक भेजने की भी आवश्यकता पड़ी थी। इसके उपरान्त एक खाप पंचायत तत्कालीन जिला रोहतक लेकिन वर्तमान में जिला झज्जर के गांव बेरी में हुई थी। गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट-1935 पर आधारित पंजाब ग्राम पंचायत-एक्ट पास हुआ था। इसमें पंचायतीराज का ढांचा कानूनी आधार पर बनाया गया और भाईचारे वाली पंचायतों का सरकारीकरण कर दिया गया।

यद्यपि द्वितीय महायुद्ध के चलते इस एक्ट के तहत पंचायतों की ओर अंग्रेज सरकार का कोई विशेष ध्यान नहीं था फिर भी पंचायतों ने इस दौरान बताए हुए पथ पर चलकर आधुनिक रूप प्राप्त किया और आज़ादी से पूर्व भाईचारा व खाप पंचायतों को भी फिर से जीवित करने का सफल प्रयत्न किया।


4) सन 1947 से 2008: भारत के संविधान के अध्याय चार में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्त दिए गये हैं। इस अध्याय के अनुच्छेद 40 में यह भी लिखा है कि ‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।’

इसी प्रावधान के अन्तर्गत पंचायत के इतिहास में एक नया मोड़ आया और केन्द्रीय सरकारों ने सार्वजनिक कार्यों को सामूहिक रूप से करने के लिए तथा ग्रामीण समाज का कद ऊँचा उठाने के लिए पंचायती राज की स्थापना नए सिरे से की ताकि ग्रामोन्नति के लिए पंचायतों को जिम्मेदार बनाने का भरसक प्रयत्न किया जा सके। सन 1952 में पंजाब ग्राम पंचायत एक्ट पास कर दिया गया, जिसमें यह प्रयत्न किया गया कि बापू के स्वप्न का ग्राम राज स्थापित किया जा सके।

खाप पंचायत मुखिया सम्मेलन, रोहतक:
8 सितम्बर, 2002 को सर्वगोत्र मुखिया सम्मेलन का आयोजन गैर सरकारी संस्था हरियाणा नवयुवक कला संगम ने किया था। इस सम्मेलन का संचालन ले. कर्नल चन्द्र सिंह दलाल ने किया था जिसका अध्यक्ष स्वर्गीय प्रिंसीपल हुकम सिंह को बनाया गया था। सम्मेलन के उपरान्त लिए गये निर्णयों के विषयों से सम्बन्धित एक विवरणिका का प्रकाशन व सम्पादन श्री सतीश कुण्डू द्वारा किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सम्मेलन ऐतिहासिक दीनबन्धु सर छोटूराम धर्मशाला के सभागार में सम्पन्न हुआ था जिसमें 90 की संख्या में गोत्र मुखिया एवं सैंकड़ों की संख्या में गोत्र प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें सामाजिक दिक्कतों एवं संबंधित विषयों पर छह घण्टे तक खुल कर विचार विमर्श किया गया था। सर्वसम्मति से दो निर्णय लिये गये: (1) विवाह के लिये किये जाने वाले रिश्ते के लिये केवल मां और अपने गोत्र की ही मान्यता प्रमुख होगी जिसके लिये दादी का गोत्र मानना केवल वैकल्पिक होगा। (2) जिस गांव में अल्पसंख्यक गोत्र भू-भाई के तौर पर रहता हो और न केवल उनकी अच्छी-खासी संख्या हो वरन उनका पृथक चौपाल भवन एवं नंबरदार हो तो ऐसे में उस गोत्रा की कन्या गांव में वधू बन कर नहीं आ सकती।


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर


लेखक: लेफ्टिनेंट कर्नल चन्द्र सिंह दलाल

दिनांक: 18/10/2013

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

उद्धरण:
  • नि. हा. सलाहकार मंडल

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इ-चौपाल के अंतर्गत मंथित विषय सूची
निडाना हाइट्स के इ-चौपाल परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

इ-चौपाल:


हरियाणवी में लेख:
  1. त्यजणा-संजोणा
  2. बलात्कार अर ख्यन्डदा समाज
  3. हरियाणवी चुटकुले

Articles in English:
    General Discussions:

    1. Farmer's Balancesheet
    2. Original Haryana
    3. Property Distribution
    4. Woman as Commodity
    5. Farmer & Civil Honor
    6. Gender Ratio
    7. Muzaffarnagar Riots
    Response:

    1. Shakti Vahini vs. Khap
    2. Listen Akhtar Saheb

हिंदी में लेख:
    विषय-साधारण:

    1. वंचित किसान
    2. बेबस दुल्हन
    3. हरियाणा दिशा और दशा
    4. आर्य समाज के बाद
    5. विकृत आधुनिकता
    6. बदनाम होता हरियाणा
    7. पशोपेश किसान
    8. 15 अगस्त पर
    9. जेंडर-इक्वलिटी
    10. बोलना ले सीख से आगे
    खाप स्मृति:

    1. खाप इतिहास
    2. हरयाणे के योद्धेय
    3. सर्वजातीय तंत्र खाप
    4. खाप सोशल इन्जिनीरिंग
    5. धारा 302 किसके खिलाफ?
    6. खापों की न्यायिक विरासत
    7. खाप बनाम मीडिया
    8. खाप बनाम तैमूर-लंग
    हरियाणा योद्धेय:

    1. हरयाणे के योद्धेय
    2. दादावीर गोकुला जी महाराज
    3. दादावीर भूरा जी - निंघाईया जी महाराज
    4. दादावीर शाहमल जी महाराज
    5. दादीराणी भागीरथी देवी
    6. दादीराणी शमाकौर जी
    7. दादीराणी रामप्यारी देवी
    8. दादीराणी बृजबाला भंवरकौर जी
    9. दादावीर जोगराज जी महाराज
    10. दादावीर जाटवान जी महाराज
    11. आनेवाले
    मुखातिब:

    1. तालिबानी कौन?
    2. सुनिये चिदंबरम साहब
    3. प्रथम विश्वयुद्ध व् जाट

NH Case Studies:

  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
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