सदियों से किसान के कंधे से कन्धा मिलाकर काम करते आये अधिकतर खेतिहर मजदूर
(समाज की जातिगत भाषा में छोटी जातियों से होते आये), इनको इस पुश्तैनी काम से निजात और सम्मान मिले इसके लिए आरक्षण और जातिगत कानून बनाए गए| यह एक अति सराहनीय प्रयास था/है, जिसके तहत सदियों से दबे-कुचले, पीढ़ियों से एक ही प्रकार का काम रहे हैं/कर रहे थे इन वजहों के आधार पे इन कामगार जातियों के लिए आरक्षण और जातिगत कानून बनाए गए| इन कानूनों का एक किसान जिसकी दयनीय हालत पे यह कहावत मशहूर हुई कि
"दो पाटन के बीच साबत बचा ना किसान" और वही सदियों से एक ही प्रकार का काम
(किसानी) करने वाले पे क्या असर पड़ा ?
ऐसी नीतियां बनाने वाले किसी भी नेता, समाज सुधारक या युगपुरुष ने यह कभी क्यों नहीं सोचा कि इन नीतियों के कारण एक किसान को आर्थिक और संसाधनों-
(जिसमें कि मशीनी और कारीगर दोनों थे) की जो कमी इन कानूनों के चलते आएगी उसकी आपूर्ति कैसे होगी? मैं जितना इस बात का समर्थक हूँ कि हर किसी को बराबर तरक्की और विकास के मौके मिलें, उतना ही इस बात पे भी गहन चिंतन करता हूँ कि इन आरक्षण और जातिगत कानूनों की वजह से किसान की हालत पर क्या असर पड़ा?
ऐसे ही कुछ परिणामों का लेखा-जोखा:
खेती-मजदूरों की कमी: जब मैं यह सवाल उठाता हूँ तो मेरा मतलब यह नहीं होता कि जो सदियों से मजदूरी करते आये उनकी पीढियां भी मजदूरी ही करें, नहीं बिलकुल नहीं अपितु मेरी चिंता और हालात की वास्तविकता यह है कि इन नीतियों से खेती के लिए मजदूरों का अकाल सा पड़ता जा रहा है| जिसकी कमी पूरी करने के लिए किसान को या तो मशीन खरीदनी पड़ती हैं या फिर कई बार जितना उत्पादन वो देश के गौदामों में भर सकता था, संसाधनों-मजदूरों की कमी के चलते उतना नहीं दे पाता| इससे वो विस्फोटक स्थितियां बन गई हैं जिसके चलते किसान को अतिरिक्त धनराशी लगानी पड़ती है| या तो मशीनें खरीदे या फिर मजदूर ना मिलने की मजबूरी के चलते जितनी खेती वो कर सकता था उससे कम में सब्र करे| और यहाँ
सरकार या नीति बनाने वालों की इस मुद्दे पर सोच बंजर नजर आती है कि एक तरफ किसान के हाथ से मजदूर छिनने वाली नीति के बदले किसान के ऊपर पड़ने वाले इस अतिरिक्त भार को कैसे निबटाया जायेगा? मैं फिर से कहना चाहता हूँ कि मैं किसान के लिए अतिरिक्त धन या साधन की बात करता हूँ ना कि एक मजदूर को मजदूर ही बनाए रखने की|
खेती-मजदूर के बढ़ते दाम: बावजूद सारी विषम कहानियों के, पहले के जमाने में जहाँ मजदूर और किसान का पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिश्ता था और इस रिश्ते की उत्तम पराकाष्ठा यह थी कि दोनों एक दूसरे को नौकर-मालिक नहीं बल्कि सीरी-साझी मानते थे वो तो टूटी ही, साथ ही समय-समय पर दी जाने वाली आर्थिक, जमीनी और अन्य तरह की सुख-सुविधाओं के अलावा नौकरी और पढ़ाई में आरक्षण ने आरक्षित जातिओं के लिए दूसरे रास्ते खोले तो उधर उनमें से कम-पढ़े लिखों ने खेतों में काम करने के लिए अपने दाम बढ़ा दिए| अंतत: इस नीति के फलस्वरूप किसान पर अतरिक्त आर्थिक भार पड़ने लगा और आज उसकी स्थिति और भी दयनीय हो गई है| और उस पर हरियाणा और पूरे देश में किसान को आज भी सिर्फ यह कह कर कि
इनके पास तो जमीनें हैं, संसाधन हैं, वाले ढर्रे पर छोड़ा हुआ है| लेकिन जब उस जमीन पर काम करने के लिए मानव संसाधन जिसको कि आधुनिक भाषा में Human Resource भी कहते हैं वो नहीं होगा, उसके ऊपर अतिरक्त संशाधन जुटाने के लिए अतिरिक्त आर्थिक भार भी पड़ेगा तो पहले से ही विषम-जलवायु, महंगाई, और अन्य समस्याओं से जूझ रहे किसान के लिए वो जमीन भी कहाँ तक उपयोगी रहेगी? इससे जमीन की उपयोगिता और किसानी के काम में स्वाभिमान और गौरव की भावना भी दिन-ब-दिन घटती जा रही है| यह तो शुक्र है कि हरियाणा में समय-समय पर प्रवासी मजदूर आते रहते हैं वरना तो स्थिति और भी भयावह होती|
और जो प्रवासी मजदूर बनके आता है वो तब तक ही काम करता है जब तक कि उसको दिल्ली और राष्ट्रिय राजधानी क्षेत्र जैसी जगहों पर कोई मशीनी मजदूरी उदहारणत: "दिल्ली मेट्रो" में काम नहीं मिल जाता|
तो यहाँ प्रश्न यही उठता है कि या तो उन नीतिकारों को किसान को भी आरक्षण दे देना था या फिर इन नीतियों के विषम प्रभाव हेतु किसान के लिए अतिरिक्त आर्थिक एवं तकनीकी मदद का प्रावधान रखना था| वर्तमान परिस्थितियों के चलते जमीन भी किसान के लिए एक
"सफेद हाथी" बनती जा रही है और
वो कुत्ते की हड्डी वाला टुकड़ा साबित हो रही है जिसको ना निगले बनता है और ना ही उगले|
भाईचारे के तहत पैसा लेने वालों का जातिगत कानून का सहारा ले पैसा वापिस देने से इनकार करने का नया चलन:यह तो हम सभी जानते हैं कि हरियाणा ग्रामीण परिवेश में आज भी ९० प्रतिशत से ज्यादा लोग पैसे का लेन-देन भाईचारे या जान-पहचान के तहत ही करते हैं, जिसकी लिखत या तो बनियों द्वारा बही-खातों में की जाती रही है या लेनदार-देनदार के बीच तीसरे गवाह को रख कर आपसी निर्धारित शर्तों पे| सामाजिक भाषा में कहो तो निम्नजाति वाला उच्चजाति वाले को और उच्च जाति वाला निम्नजाति वाले को या एक ही जाति में यह लेन-देन इसी तरीके से सदियों से करते आये हैं|
लेकिन अब जब से जातिगत कानून बना है
(जो कि जरूरी भी था लेकिन) अब इस कानून के गलत प्रयोग भी दिखने लगे हैं| मामला निडाना गाँव के एक ऐसे स्वर्ण जाति के किसान का है जो अपने अच्छे व्यवहार और भाईचारे के लिए पूरे गाँव में विख्यात है| इस किसान से एक आरक्षित जाति वाले ने
तीन लाख रूपये का कर्ज लिया| जब यह कर्ज दिया गया तो इसको लौटने की मियाद और ऋण दर दोनों आरक्षित जाति के व्यक्ति के रिश्तेदारों की मध्यस्थता में निर्धारित हुए| जब कर्ज लौटाने की मियाद खत्म हुई तो किसान ने इस आदमी को याद दिलाया, लेकिन उसने इसको ज्यादा तवज्जो नहीं दी| तब किसान ने इसके उन्हीं मध्यस्थ रिश्तेदारों को इससे पैसा लौटाने को कहा तो इसनें उन लोगों की बात को भी सिरे से नकार दिया और किसान को धमकी दे डाली कि अगर अब मुझे और ज्यादा बार पैसे के लिए पूछा गया तो मैं तुम्हे
"SC/ST Act के तहत मेरे से बुरा व्यवहार किया बोल के जेल में डलवा दूंगा|"
उसके इस जवाब से किसान को जबर्दस्त धक्का लगा और उसको लकवा मार गया| जिस विश्वास के साथ उसने पैसे दिए थे वो तार-तार हो गया और आज भी वह अपनी इस घटना से पूर्व स्वास्थ्य स्थिति को अर्जित नहीं कर पाया है| यह कोई छोटी दस-पंद्रह हजार की रकम भी नहीं थी पूरे तीन लाख रूपये थे जो एक इंसान दूसरे को अति-विश्वास पे ही देता है|
हालाँकि इस घटना के बाद से किसान सावधान तो हुए हैं और अब लेन-देन कानूनी रजिस्ट्री के जरिये करने लगे हैं
पर उनका क्या जो इस जातिगत कानून का दुर्पयोग करने पे उतारू हैं?
एक तो किसान के ऊपर मजदूरों की कमी की मार, ऊपर से मजदूरों की महंगाई, संसाधनों की कमी की मार और ऊपर से ये नई प्रचलन में आ रही सामाजिक ज्यादतियां, कहीं तो अंत होगा इस पीड़ा का?
इस समय पर मुझे भगवान बाल्मीकि की वही एक कहानी याद आती है, जिसमें कि वो एक डाकू से भगवान् कैसे बने की घटना बताई गई है| इसको मैं यहाँ थोड़ा विस्तार से बताना जरूरी समझता हूँ:
जब डाकू होते हुए बाल्मीकि भगवान ने नारद मुनि के कहने पर अपने परिवार से पूछा कि जो मैं यह सब लूटमार करके घर चलाने हेतु लाता हूँ, कल को यदि इसकी वजह से मैं कहीं फंस जाऊं तो आप मेरा साथ देंगे ना?
तो उनके परिवार
(पत्नी, बच्चे और पिता समेत सभी) ने कहा था कि आप परिवार के मुखिया हैं, परिवार का पालन-पोषण आपकी जिम्मेदारी है, अब आप उसके लिए अच्छे काम करते हैं या बुरे, वो देखना आपका काम है हमारा नहीं| और उसके परिणाम स्वरूप जो भी फल होंगे उनके भुग्तभोगी अकेले आप होंगे, हम नहीं|
तो जब एक ही परिवार में बेटा, पिता के कर्मों के लिए, पत्नी, पति के कर्मों के लिए जिम्मेदार नहीं होते तो ऐसे ही मेरे-आपके पुरखों ने उसके-इसके पुरखों के साथ क्या किया, तार्किक भाषा में कहूँ तो दुत्कारा या दुलारा तो इसमें मेरी या मेरे से आगे आने वाली पीढ़ी का क्या दोष?
मेरा भविष्य कि मुझे आरक्षण मिलेगा या मैं सामान्य जाति का कहलाऊंगा, इसका आधार मेरे-आपके पुरखों के इसके-उसके पुरखों से कैसे रिश्ते थे उससे कैसे निर्धारित हो सकता है?
मैं-आप क्यों मेरी-आपकी आने वाली पीढ़ियों के बीच इस नए किस्म की खाई खड़ी करना कितना तार्किक है?
पहले से पड़ी हुई खाई को दूसरी खाई खोद के मिटाने का तरीका कितना तर्कसंगत है? जब खुद भगवान बाल्मीकि तक के कर्मों का फल उनके अपने परिवार ने ही वहन करने से इनकार कर दिया था तो फिर यहाँ तो जातियों की बात आ जाती है|
भगवान बाल्मीकि का उदाहरण यहाँ किसी ऐसे तथ्य को सुदृढ़ करने के लिए नहीं दिया गया जिसके तहत कि आरक्षण या जाति-विशेष कानूनों को हटाया जाए बल्कि इसलिए दिया गया है कि इन अधिकारों को समान रूप से लागू किया जाए|
अन्यथा कल को कहानी ये ना हो जाए कि एक दलित की दलितता को मिटाते-मिटाते समाज ने नए दलित खड़े कर लिए और वो दलित होगा किसान वर्ग| तो फिर क्या किसान से दलित बने की दलितता को खत्म करने के लिए और नए ऐसे ही कानून बनाए जायेंगे? यहाँ समझने की जरूरत यह है कि
यदि सदियों से उत्पीडन या एक ही प्रकार का कार्य करने वाले सिद्धांत पे ही अगर आरक्षण या जातिगत कानून बनते हैं तो इसका सबसे पहला अधिकारी एक किसान है क्योंकि खेती से सदियों पुराना कोई काम नहीं और दो पाटन के बीच सदियों से पिसते चले आ रहे मेरे किसान से पीड़ित दूसरा कोई नहीं|
आरक्षण के तहत दी जाने वाली सुविधाओं का कितना सार्थक उपयोग व् असर हुआ इसका भी कोई अवलोकन नहीं: जैसे कि आज से करीब तीस साल पहले आरक्षित जातियों को डेड एकड़ से दो एकड़ जमीन खेती करने के लिए दी गई थी| क्या कभी किसी सरकार या अफसर ने जा कर इस बात का पता किया कि उनमें से कितने उन जमीनों पर खेती कर रहे हैं और कितने उनको बेच कर दूसरी सरकारी नीतियों के तहत फिर से लाभान्वित हो रहे हैं?
मैंने अपनी खोज में पाया कि इन सरकारी जमीन से लाभान्वित लोगों ने नब्बे प्रतिशत से ज्यादा जमीनें बेच दी हैं| जिसके दो कारण बताये गए, एक तो यह सुनने में आया कि "जमीनों पे काम करना एक जाति-विशेष के ही बस की बात है, हमें यह काम नहीं आता या हमसे नहीं होता"| और दूसरा यह कि उनको आगे रास्ता दिखता है| रास्ता यह कि उनको अँधा-धुंध बिना पिछली योजनाओं के नतीजों का अवलोकन किये, हर रोज नई-नई अवतरित होती योजनाओं जैसे कि पढाई-नौकरी में आरक्षण, मकान बनाने हेतु मुफ्त प्लाटों का आवंटन, राशन-पानी के मूल्यों में रियायत से आश्वासन सा मिलता है कि जब सब कुछ यूँ ही मिल रहा है
तो फिर खेतों की मिटटी में कौन शारीर खपाए? और शायद इसी विचार के तहत कहानी ये है कि जहां भी ये डेड-दो एकड़ जमीनें आवंटित की गई थी वहाँ नब्बे प्रतिशत से ज्यादा बेचीं जा चुकी हैं|
लेकिन यह पहले से ही इतनी मार झेल रहा किसान कहाँ जाए? उसके पास तो ऐसे कोई रास्ते नहीं| और आज के दिन तो सत्तर प्रतिशत से ज्यादा किसान तो ऐसे हैं जिनके पास दो एकड़ से भी कम जमीनें हैं|
तो जब एक दो एकड़ जमीन वाले आरक्षित को यह विकल्प है कि वो सरकार के द्वारा दी हुई जमीन बेचकर भी, फिर से आरक्षण के तहत उपरलिखित योजनाओं और सुविधाओं का लाभ उठा सकता है तो यही विकल्प दो एकड़ वाले साधारण जाति के किसान के लिए क्यों नहीं? वास्तव में होना तो चाहिए सबके लिए अन्यथा दो या पांच एकड़ से कम के जमीन वाले किसान के लिए तो कम से कम हो| पांच एकड़ वाले की दुर्दशा की कहानी जाननी है तो
इस पृष्ठ पर पढ़िए| आज के दिन में पांच एकड़ वाले को शामिल करना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि तीस साल पहले दो एकड़ वाले की जो कहानी थी वो आज पांच एकड़ वाले की हो गई है|
इन विचारहीन नीतियों के आज के परिणाम:
-
पूरा हरियाणा एक जाति-विशेष बनाम अन्य जातियों के युद्ध का अखाड़ा बन गया है|
-
समाज से सहनशीलता की कोई नई लहर उठती नहीं दिखती अपितु जो थी वो भी खत्म हो चुकी है|
-
हर कोई अपने घर में दुबक के बैठा है, सामाजिक सम्मान और सम्मलेन ग्रामीण पृष्ठभूमि से गायब हो चुके हैं|
-
किसान घोर मानसिक निराशा का शिकार होता जा रहा है जिसकी वजह से कई बार तो उसको आत्महत्या ही आखिरी रास्ता सूझता है|
-
किसान का बेटा आपराधिक वारदातों में अग्रसर होता जा रहा है|
निष्कर्ष: मैं आरक्षण की नीतियों के खिलाफ नहीं, लेकिन सबको अपने कारोबार और जिंदगी के तरीके को बदलने के विकल्प समान रूप से उपलब्ध हों | आज कोनसी ऐसी मार है जो एक किसान पे इन नीतियों के दुष्परिणाम स्वरूप नहीं पड़ रही? एक तरफ दिन-ब-दिन महँगी होती खेती, लागत को भी पूरा ना कर पायें वो उत्पादों के छोटे दाम, फिर ये जातिगत कानूनों से गिरता मनोबल, खेती करने के अलावा दूसरा कोई ऐसा विकल्प नहीं कि जिसके तहत किसानों के बच्चे भी आसानी से अपना पुश्तैनी कारोबार बदल सकें|
तन ढंकने के लिए कपड़ा बनाने वाली कपास पैदा करे ये, पेट भरने के लिए बर्गर-पिज्जा-बिस्कुट-रोटी-ब्रेड के लिए अनाज-दालों से ले सब्जियां-मसाले पैदा करे ये, चाय तक को मीठा बनाने वाली चीनी के लिए गन्ना उगाये ये, चाय के लिए दूध तक पैदा करके दे ये और फिर भी इसी को इतना वंचित छोड़ दिया गया है? उसकी इस लोहे के चने चबाने वाली पीड़ा का कोई तो अंत होगा? |
|