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हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम् |
"दादा नगर खेड़ा (दादा बड़ा बीर/दादा खेड़ा/दादा बैया/दादा भैया/बड़े दादा/बाबा भूमिया)" |
मोर पताका: सुशोभम |
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समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर ज्योति गोकुला जी महाराज |
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"हरियाणा योद्धेय" की परिभाषा: इसमें "हरियाणा शब्द" इसके ऐतिहासिक प्राचीन वास्तविक स्वरूप को इंगित करता है जिसके तहत आज का हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान होते थे| "योद्धेय शब्द" हरियाणा की विभिन्न खापों में सर्वधर्म सर्वजतियों से समय-समय पर हुए वीरों-हुतात्माओं-दार्शनिकों के सम्बोधन में कहा जाता था| इस तरह दोनों शब्दों को जोड़ कर निडाना हाइट्स नें "हरियाणा योद्धेय" की श्रृंखला बनाई है, जिसके तहत हरियाणा यौद्धेयों के अध्याय प्रकाशित किये जा रहे हैं और प्रस्तुत अध्याय इसी श्रृंखला की कड़ी है| |
9 अप्रैल 1669 से 1 जनवरी 1670 का वो दौर जब बृजभूमि उबल उठी थी और हरियाणा के तिलपत में बजी थी
भारतीय इतिहास की सबसे दुःसाहसी और भयातम रणभेरी! |
प्रस्तुत है एक ऐसे सर्वखाप योद्धेय की कहानी, जिसने औरंगजेब के संधि प्रस्ताव पे कह दिया था कि " अपनी बेटी दे जा और संधि ले जा|"
सम्पसम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे| धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें दिखाई देती थी| जब राजे-रजवाड़े झुक चुके थे; फरसों के दम भी दुबक चुके थे| ब्रह्माण्ड के ब्रह्म-ज्ञानियों के ज्ञान सूख चुके थे| हर तरफ त्राहि-त्राहि थी, ना धर्म था ना धर्म के रक्षक| तब निकला था उमस के तपते शोलों से वो शूरवीर, तब किरदार में अवतारा था वो यौद्धेयों का यौद्धेय " समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर-ज्योति गोकुला जी महाराज"|
जिसके शौर्य, संघर्ष, चुनौती, वीरता और विजय की टार और टंकार महाराणा प्रताप से ले शिवाजी महाराज और गुरु गोबिंद सिंह से ले पानीपत के युद्धों से भी कई गुणा भयंकर हुई थी| एक तरफ जहाँ अपने राज बचाने को मुग़लों से अपनी बेटियाँ ब्याहने तक के समझौते हो रहे थे, वहीँ एक ऐसा खापवीर हुआ जिसने औरंगजेब जैसे मुग़लों के सिरमौर को संधि के लिए मजबूर किया था और जब संधि का प्रस्ताव आया तो कहलवा दिया कि, "अपनी बेटी दे जा और संधि ले जा|" पेश है ऐसे उस जाटनी के जाए शेर की जिंदगी का वो हिस्सा, जो ऊपर किये दावों से भी आगे जा के उसके जीवन को महान और उसको हिन्दू धर्म का हुतात्मा बनाता है| परन्तु दुःख की बात यह है कि तथाकथित हिन्दू धर्म के संरक्षक सामान्य परिस्थितयों में तो इस वीर और इसकी वीरता को क्या सराहें और लिखेंगे, उसकी इस असीम वीरता पर भी उनके मुख और कलम से उसकी स्तुति में दो शब्द ना निकले कभी| शायद वास्तविक वीरता क्या होती है वो जब उनकी लेखनी से भिन्न निकली तो इस लज्जा में ना लिख सके होंगे|
समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर-ज्योति गोकुला जी महाराज जी का जौहर (दाईं ओर चित्र में):
सन 1666 का समय था और मुग़ल बादशाह औरंगजेब के अत्याचारोँ से हिँदू जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। मंदिरोँ को तोङा जा रहा था, हिँदू स्त्रियोँ की ईज्जत लूटकर उन्हेँ मुस्लिम बना दिया जाता था। औरंगजेब और उसके सैनिक पागल हाथी की तरह हिँदू जनता को मथते हुए बढते जा रहे थे। हिँदुओँ पर सिर्फ इसलिए अत्याचार किए जाते थे क्योँकि वे हिँदू थे। औरंगजेब अपने ही जैसे क्रूर लोगोँ को अपनी सेना मेँ उच्च पद देकर हिँदुस्तान को दारुल हरब से दारुल इस्लाम मेँ तब्दील करने के अपने सपने की तरफ तेजी से बढता जा रहा था। सारा राजपुताना उसके आगे झुक चुका था| |
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अब्दुन्नवी का सिरोहा में गोकुला जी से सामना: हिँदुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया| अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला। सिनसिनी गाँव के "सरदार गोकुला सिंह" के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया| मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए और संघर्ष शुरू हो गयाl तभी 9 अप्रेल 1669 को औरंगजेब का नया फरमान आया – “काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं“. फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया| कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे | और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार| अब्दुन्नवी और उसके सैनिक हिँदू वेश मेँ नगर मेँ घूमते थे और मौका पाकर औरतोँ का अपहरण करके भाग जाते थे। अब जुल्म की इंतेहा हो चुकी थी। तभी दिल्ली के सिँहासन के नाक तले समरवीर धर्मपरायण जाट योद्धा गोकुला जाट और उसकी किसान पंचायती सेना ने आततायी औरंगजेब को हिँदुत्व की ताकत का अहसास दिलाया। 12 मई 1669 मेँ अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा| क्रान्तिकार जाट गोकुलासिंह ने सर्वखाप पंचायत के सहयोग से एक बीस हजारी सेना तैयार कर ली थी| गोकुलासिंह अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे| मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी| फौजदार गोली प्रहार से मारा गया| बचे खुचे मुग़ल भाग गए| गोकुलासिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी. इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं. दिखाई भी क्यों नही देतीं. साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था. मथुरा ही नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए थे. निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ|
सैफ शिकन खाँ का गोकुला जी से सामना: अब्दुन्नवी की चीखेँ दिल्ली की आततायी सल्तनत को भी सुनाई दी। मुगलोँ की जलती छावनी के धुँए ने औरंगजेब को अंदर तक हिलाकर रख दिया। औरंगजेब इसलिए भी डर गया था क्योँकि गोकुला जी की सेना मेँ जाटोँ के साथ गुर्जर, अहीर, ठाकुर, मेव इत्यादि भी थे। इस विजय ने मृतप्राय हिँदू समाज मेँ नए प्राण फूँक दिए। औरंगजेब ने सैफ शिकन खाँ को मथुरा का नया फौजदार नियुक्त किया और उसके साथ रदांदाज खान को गोकुला जी का सामना करने के लिए भेजा। लेकिन असफल रहने पर औरंगजेब ने महावीर गोकुला को संधि प्रस्ताव भेजा।
गोकुला जी द्वारा औरंगजेब का संधि प्रस्ताव ठुकरा देना:
इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे| मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए. क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया| अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि
1) बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं|
2) वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें|
3) वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे|
गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा ? तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है. दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है?
इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ था. गोकुलसिंह ने कोई गुंजाइस ही नहीं छोड़ी थी| औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह को भी 'राजा' या 'ठाकुर' का खिताब देकर रिझा लिया जायेगा और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जायेगा| हिंदुस्तान को 'दारुल इस्लाम' बनाने की उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहेगी| मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूट नीति बुरी तरह मात खा गयी|
गोकुला जी ने औरंगजेब का संधि प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया क्योँकि गोकुला जी कोई सत्ता या जागीरदारी के लिए नहीँ बल्कि धर्मरक्षा के लिए लङ रहे थे और औरंगजेब के साथ संधि करने के बाद ये कार्य असंभव था। गोकुला जी ने औरंगजेब का उपहास उङाते हुए कहा कि "अपनी लङकी दे जाओ और संधि और माफ़ी दोनों ले जाओ।" इस उपहास को पढ़ कर औरंगजेब की मनोदशा पर कवि बलवीर सिंह कहते हैं:
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।
इस उपहास ने औरंगजेब को खुद दिल्ली से कूच करने पर बाध्य कर दिया और गोकुला जी युद्ध लड़ने को 28 नवंबर 1669 में मथुरा में छावनी आन डाली| औरंगजेब ने मथुरा मेँ अपनी छावनी बनाई और अपने सेनापति हसन अली खान को एक मजबूत एवं विशाल सेना के साथ मुरसान भेजा। ग्रामीण रबी की बुवाई मेँ लगे थे तो हसन अली खाँ ने ने गोकुला जी की सेना की तीन गढियोँ/गाँवोँ रेवाङा, चंद्ररख और सरकरु पर सुबह के वक्त अचानक धावा बोला। औरंगजेब की शाही तोपोँ के सामने किसान योद्धा अपने मामूली हथियारोँ के सहारे ज्यादा देर तक टिक ना पाए और जाटोँ की पराजय हुई।
तिलपत की धरती पर हुई थी धरती को दहला देने वाली रणभेरी, जिसकी वजह से गोकुला जी महाराज समरवीर कहलाये (दिसंबर 1669): इस जीत से उत्साहित औरंगजेब ने अब सीधा गोकुला जी से टकराने का फैसला किया। औरंगजेब के साथ उसके कई फौजदार और उसके गुलाम कुछ हिँदू राजा भी थे (हिन्दू धर्म में एकता का राग अलापने वालों ने पता नहीं आज तक भी क्यों नहीं इन कमियों को दूर किया है जब 2013 आ चुका है)| खैर, वीर गोकुला जी के विरुद्ध औरंगजेब का ये अभियान शिवाजी जैसे महान राजाओँ के विरुद्ध छेङे गए अभियान से भी विशाल था। औरंगजेब की तोपोँ, धर्नुधरोँ, हाथियोँ से सुसज्जित विशाल सेना और गोकुला की किसानोँ की 20000 हजार की सेना मेँ तिलपत का भयंकर युद्ध छिङ गया। कवि बलबीर सिंह इस युद्ध की भयावहता का कुछ यूं वर्णन करते हैं:
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा लप-लप लेती फटका निकली।
4 दिन तक भयंकर युद्ध चलता रहा और गोकुला की छोटी सी अवैतनिक सेना अपने बेढंगे व घरेलू हथियारोँ के बल पर ही अत्याधुनिक हथियारोँ से सुसज्जित और प्रशिक्षित मुगल सेना पर भारी पङ रही थी। इस लङाई मेँ सिर्फ पुरुषोँ ने ही नहीँ बल्कि उनकी चौधरानियोँ ने भी पराक्रम दिखाया था।
चौधराणियों के पराक्रम की पराकष्ठा थी तिलपत की रणभूमि: मनूची नामक यूरोपियन (हमारे धर्म और इतिहास के ठेकेदारों और वीरता के सर्टिफिकेट देने वालों ने जाटों की तरफ तो नजर कभी घुमाई ही नहीं, भला हो इन बाहर वालों का) इतिहासकार ने जाटोँ और उनकी चौधरानियोँ के पराक्रम का उल्लेख करते हुए लिखा है कि, « अपनी सुरक्षा के लिए गोकुला जी की सेना कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में शरण लेते, स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं। जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी । इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे,जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे । जब वे बिल्कुल ही लाचार हो जाते, तो अपनी पत्नियों और पुत्रियों को गरदनें काटने के बाद भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे"। मुगल सेना इतने अत्याधुनिक हथियारोँ, तोपखाने और विशाल प्रशिक्षित संख्या बल के बावजूद जाटोँ से पार पाने मेँ असफल हो रही थी।
युद्ध के पांचवें दिन हसन अली खान और ब्रह्मदेव सिसोदिया की टुकड़ियों का घेराव: 4 दिन के युद्ध के बाद जब गोकुला जी की सेना युद्ध जीतती हुई प्रतीत हो रही थी तभी हसन अली खान के नेतृत्व मेँ 1 नई विशाल मुगलिया टुकङी आ गई और इस टुकङी के आते ही गोकुला जी की सेना हारने लगी। तिलपत की गढी की दीवारेँ भी तोपोँ के वारोँ को और अधिक देर तक सह ना पाई और भरभराकर गिरने लगी। युद्ध मेँ अपनी सेना को हारता देख जाटोँ की औरतोँ, बहनोँ और बच्चियोँ ने भी अपने प्राण त्यागने शुरु कर दिए। हजारोँ नारियोँ जौहर की पवित्र अग्नि मेँ खाक हो गई। तिलपत के पत्तन के बाद गोकुलासिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया.अगले दिन गोकुलासिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर.
गोकुला जी महाराज और औरंगजेब के अंतिम संवाद: इन सभी को आगरा लाया गया। लोहे की बेङियोँ मेँ जसभी बंदियोँ को औरंगजेब के सामने पेश किया गया तो औरंगजेब ने कहा, "जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो और रसूल के बताए रास्ते पर चलो। बोलो क्या इरादा है इस्लाम या मौत?"
अधिसंख्य धर्म-परायण जाटों ने एक सुर में कहा, "बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना l"
गोकुला जी महाराज ने शरीर के अंगों को एक-एक काटे जानी वाली मौत को गर्व से गले लगाया: गोकुला जी की बलशाली भुजा पर जल्लाद का बरछा चला तो हजारोँ चीत्कारोँ ने एक साथ आसमान को कोलाहल से कंपा दिया। बरछे से कटकर चबूतरे पर गिरकर फङकती हुई गोकुला जी की भुजा चीख-चीखकर अपने मेँ समाए हुए असीम पुरुषार्थ और बल की गवाही दे रही थी। लोग जहाँ इस अमानवीयता पर काँप उठे थे वहीँ गोकुला का निडर और ओजपूर्ण चेहरा उनको हिँदुत्व की शक्ति का एहसास दिला रहा था। गोकुला ने एक नजर अपने भुजाविहीन रक्तरंजित कंधे पर डाली और फिर बङे ही घमण्ड के साथ जल्लाद की ओर देखा कि दूसरा वार करो। परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे. उन्हें ऐसे ही निर्देश थे| दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे. उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थ| अनेकों ने आँखें बंद करली. अनेक रोते हुए भाग निकले. कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी. एक को दूसरे का होश नहीं था. वातावरण में एक ही ध्वनि थी- “हे राम!…हे रहीम !! दूसरा बरछा चलते ही वहाँ खङी जनता आंर्तनाद कर उठी और फिर गोकुला के शरीर के एक-एक जोङ काटे गए। 1 जनवरी 1670 के उस काले दिन जब गोकुला जी का सिर जब कटकर धरती माता की गोद मेँ गिरा तो मथुरा मेँ केशवराय जी का मंदिर भी भरभराकर गिर गया। यही हाल उदय सिँह और बाकी बंदियोँ का भी किया गया।
गोकुला जी महाराज की वीरता की समीक्षा: इतिहासकारोँ ने लिखा है कि गोकुला जी के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, ना ढाल बनाने को महाराणा प्रताप की हल्दी घाटी और अरावली की पहाड़ियाँ, न ही शिवाजी महाराज के महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश| इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व व अतुलनीय है|
इतिहासकारोँ ने लिखा है कि भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो, हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था, पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुला जी महाराज का युद्ध पांचवे दिन भी चला l
गोकुला जी सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वक, सन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी।
विश्व के भयावह युद्धों में गिना जाता है तिलपत का युद्ध: इस युद्ध को दुनिया के भयानक युद्धों में गिना जाता है| इस युद्ध में 5000 सर्वखाप सैनिक मुगलिया सेना के 50000 सैनिकों को कत्ल कर जान पर खेल गए| इस युद्ध में 4000 मुग़ल सैनिक मारे गए थे| 7000 किसानों को बंदी बनाकर आगरा की कोतवाली के सामने बेरहमी से कत्ल कर दिया गया.
शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके। कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा हिंदू समाज और इसके इतिहास रचियता|
चलते-चलते:
तिलपत की लड़ाई के बाद चांदनी चौक दिल्ली में सर्वखाप के 21 यौद्धेयों द्वारा हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु सहादत: सत्ता की लडाई में दारा शिकोह का साथ देने के कारण औरंगजेब ने अब सर्वखाप पंचायत को सबक सिखाने के लिए एक घिनौनी चाल चली. उसने सुलह सफाई के लिए सर्वखाप पंचायत को दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा. सर्वखाप ने निमंत्रण स्वीकार कर जिन 21 नेताओं को दिल्ली भेजा उनके नाम थे- राव हरिराय, धूम सिंह, फूल सिंह, शीशराम, हरदेवा, राम लाल, बलि राम, माल चंद, हर पाल, नवल सिंह, गंगा राम, चंदू राम, हर सहाय, नेत राम, हर वंश, मन सुख, मूल चंद, हर देवा, राम नारायण, भोला और हरिद्वारी. इनमें एक ब्रह्मण, एक वैश्य, एक सैनी, एक त्यागी, एक गुर्जर, एक खान, एक रोड, तीन राजपूत, और ग्यारह जाट थे. इन 21 नेताओं के सामने औरंगजेब ने धोखा किया और इनके सामने इस्लाम या मौत में से एक चुनने का हुक्म दिया. दल के मुखिया राव हरिराय ने औरंगजेब से जमकर बहस की तथा कहा कि सर्वखाप पंचायत शांति चाहती है वह टकराव नहीं. औरंगजेब ने जिद नहीं छोड़ी तो इन नेताओं ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इनकार कर दिया. परिणाम स्वरुप सन 1670 ई. की कार्तिक कृष्ण दशमी के दिन चांदनी चौक दिल्ली में इन 21 नेताओं को एक साथ फंसी पर लटका दिया गया. जब यह खबर पंचायत के पास पहुंची तो चहुँओर मातम छा गया. इसके बाद धर्मान्तरण की आंधी चलने लगी. साथ ही सर्वखाप पंचायत का अस्तित्व खतरे में पड़ गया.
विशेष: गोकुला जी महाराज की जीवनी के बहुत से पहलु अभी शोधाधीन हैं जो समयानुसार इस लेख में जोड़े जाते रहेंगे|
जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर
लेखक: पी. के. मलिक
दिनांक: 08/11/2013
प्रकाशन: निडाना हाइट्स
प्रकाशक: नि. हा. शो. प.
उद्धरण:
- जाट इतिहास
- बृजमंडल किसान विद्रोह
- तिलपत का युद्ध
- नरेन्द्र सिंह वर्मा (वीरवर अमर ज्योति गोकुल सिंह)
- नि. हा. सलाहकार मंडल
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