आप ने जब हाँसी-हिसार के टीलों की रण भेरियों में कुतुबुद्दीन ऐबक से रण लिया तो उसको ऐसा छकाया कि वो अपनी सेना की हुई दुर्गति को देख, दिल्ली जा यह कहते हुए रोया था कि काश मैंने जाटों को नहीं छेड़ा होता तो मेरी सेना की यह दुर्दशा नहीं होती| आपके जौहर को सुन मौहम्मद गौरी तक ग़ज़नी में बैठा थर्रा गया था|
आप रोहतक के जाटों के प्रसिद्ध नेता थे| शहाबुद्दीन गौरी ने जिस समय पृथ्वीराज को जीत लिया और दिल्ली में अपने एक सेनापति को, जो कि उसका गुलाम था, विजित देश के शासन के लिए छोड़ गया, तो जाटों ने विद्रोह खड़ा कर दिया, क्योंकि वे पृथ्वीराज के समय में भी एक तरह से स्वतन्त्र से थे। अपने देश के वे स्वयं ही शासक थे, पृथ्वीराज को नाममात्र का राजा मानते थे। उन्होंने देखा कि कुतुबुद्दीन जहां उनकी स्वतन्त्रता को नष्ट करेगा, वह विधर्मी भी हैं। अतः इकट्ठे होकर मुसलमानों के सेनापति को हांसी में घेर लिया। वे उसे मार भगाकर अपने स्वतन्त्र राज की राजधानी हांसी को बनाना चाहते थे। इस खबर को सुनकर कुतुबुद्दीन घबरा गया और उसने रातों-रात सफर करके अपने सेनापति की हांसी में पहुंचकर सहायता की। जाटों की सेना के अध्यक्ष जाटवान ने दोनों दलों को ललकारा| ‘तुमुल मसीर’ के लेखक ने लिखा है कि दोनों ओर से घमसान युद्ध हुआ। पृथ्वी खून से रंग गई। बड़े जोर के हमले होते थे। जाट थोड़े थे, फिर भी वे खूब लड़े। कुतुबुद्दीन स्वयं चकरा गया, उसे उपाय न सूझता था। जाटवान ने उसे पास आकर नीचे उतर लड़ने को ललकारा, किन्तु कुतुबुद्दीन इस बात पर राजी नहीं हुआ। जाटवान ने अपने चुने हुए बीस साथियों के साथ शत्रुओं के गोल में घुसकर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा की। कहा जाता है, जीत मुसलमानों की रही, किन्तु उनकी हानि इतनी हुई कि वह रोहतक के जाटों को दमन करने के लिए जल्दी ही सिर न उठा सके।
कुतुबद्दीन ने कैसे धोखे से जाटवान जी को खाई में पैर फिसलवा के मारा इसका वृतांत शीघ्र ही डाला जायेगा|
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जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर
लेखक: ......
दिनांक: ......
प्रकाशन: निडाना हाइट्स
प्रकाशक: नि. हा. शो. प.
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