बोलना सिर्फ उसी का, जिसकी देश की अर्थव्यवस्था और नीति-निर्धारण में जितनी गहरी पैठ! और किसान को यह पैठ एक ही सूरत में मिल सकती है यदि वह अपने उत्पाद का मूल्य दूसरों द्वारा निर्धारित करने की बंधुआ मजदूरी वाली प्रथा की बेड़ियां काटे और इसको अपने हाथ में ले तो|
भूमिका: एक समाज और संस्कृति तभी तक फल-फूल सकती है जब उसकी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था में बराबर की भागीदारी व् समन्वय हो| और शायद इसी तरह की वेदना सर छोटूराम की यह कहते हुए रही होगी कि "ऐ मेरे भोले किसान! तू मेरी दो बात मान ले, «एक बोलना ले सीख और दूजा दुश्मन पहचान ले»। बचपन से ले कर आज तक जितनी भी चिंतन की समझ बना पाया हूँ, उसके पनपने में रहबरे-हिन्द की इस बात ने गहरी छाप छोड़ी है| |
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सही तारीख का तो पता नहीं कि रहबरे-हिन्द ने यह बात कब कही थी लेकिन जब कही थी तब भी इसकी मार्मिकता और आशय उतना ही औचित्यपूर्ण था और आज भी उतना ही औचित्यपूर्ण है| किसान को सीख, भाषण और डांट लगाने वाले आज भी गाहे-बगाहे उसको इन पंक्तियों का हवाला देते हैं, जैसे कि यह पंक्तियाँ भाषण हेतु सामग्री मात्र बन के रह गई हों और आज लगभग एक सदी बीत जाने के बाद भी ये पंक्तियाँ यूँ की यूँ यथावत किसान जाति के मत्थे पर जमी खड़ी हैं|
क्या यही स्थाई भाग्य है किसान का? क्या यह पंक्तियाँ कभी बदलेंगी नहीं? क्या इनको मिटाने का कोई हल नहीं? इन्हीं सब झंझावट भरे सवालों के उत्तर तलाशने हेतु एक प्रयास है यह लेख|
बात की तह तक जाने से पहले "बंधुवा मजदूरी" क्या होती है इसपे चर्चा करते चलना होगा:
जब मैंने बड़े-बड़े कॉम्युनिस्टों से ले नीति-निर्धारकों से पूछा कि आखिर क्यों नहीं किसान को उसके उत्पाद का मूल्य निर्धारण का हक़ दिया जाता भारत में?
तो उन्होंने जवाब दिया कि हमें शंका है कि यह हक़ भारत में तो क्या पूरे विश्व में भी कहीं हो किसान के पास?
तो मैंने कॉम्युनिस्टों
(जो कि मजदूरों के हकों के लिए लड़ने और बंधुवा मजदूरी के खिलाफ आवाज उठाने वालों में विश्व-विख्यात व् अग्रणी होते आये हैं) से खासकर पूछा कि तो क्या यह बंधुवा मजदूरी का एक रूप नहीं?
तो वो बोले कि किसान तो जमींदार होता है वह बंधुवा मजदूर कैसे हुआ?
मैंने कहा कि क्या नहीं जानते कि बंधुवा मजदूर वो होता है जिसको, उसके काम के बदले उससे काम लेने वाला जो दाम पकड़ा दे उसको बिना किसी मोल-भाव के चुपचाप एक गुलाम की तरह पकड़ लेना होता है?
तो वह बोले कि हाँ यही परिभाषा होती है एक बंधुवा मजदूर की|
तो फिर मैंने कहा कि तो
किसान भी तो बंधुवा मजदूर ही हुआ? वो भी तो उसकी मेहनत यानि उसकी फसल रुपी उत्पाद के वही दाम पकड़ लेता है या उसको पकड़ने होते हैं जो सरकार या व्यापारी उसको पकड़ा दे? उसके आगे मोल-भाव करने का विकल्प कहाँ दिया गया है?
और वो जमींदार और उनका जमींदारा भी तभी तक होते हैं जब तक सरकार और व्यापार उनपे मेहरबान हैं| जिस दिन ये दोनों करवटें बदलते हैं, उस दिन किसान को उसकी जमीन से ऐसे अलग करके बैठा दिया जाता है जैसे अंग्रेज भारतीय रियासतों के राजाओं को उनकी सत्ता से बेदखल कर पेंशन दे के बैठा दिया करते थे और फिर उस रियासत में जो चाहे मनमानी करते थे; नहीं?
तो वो कहते हैं कि हाँ आप तो सच कह रहे हैं, वास्तव में तो 'किसान-जमींदार' बंधुवा मजदूर हुआ; और हैरान होते हुए बोले कि हमने तो ऐसा पहले सोचा ही नहीं कभी|
तब मैंने कहा कि और मेरा मानना है कि इसी बंधुवा मजदूरी में सर छोटूराम वाले "
एक बोलना ले सीख और दूजा दुश्मन पहचान ले" की जड़ और हल दोनों छुपे हैं|
तो वो बोलते है कि वो कैसे?
तो मैंने कहा कि उसको समझने के लिए पहले आपको
"थ्योरी ऑफ़ बिज़नस एंड थ्योरी ऑफ़ मनी एअरनिंग विद नीड ऑफ़ इंटरेक्शन एंड कम्युनिकेशन (theory of business and theory of money earning with need of interaction and communication) समझनी होंगी|
थ्योरी ऑफ़ बिज़नस (theory of business) का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है आदमी का आदमी द्वारा रिझाना, जो कि किसान के मामले में फसल को मंडी तक लाने तक सिमित कर दिया गया है| मंडी वो जगह है जहां से थ्योरी ऑफ़ बिज़नस (theory of business) और थ्योरी ऑफ़ मनी एअरनिंग (theory of money earning) चलती है| किसान द्वारा जो उत्पन्न किया गया वो
थ्योरी ऑफ़ हार्ड एंड ऑनेस्ट वर्क टू गॉड (theory of hard and honest work to God) है, लेकिन मंडी से ले के मंडी से उठाये उत्पाद से बने प्रोडक्ट (product) जब वापिस किसान की दहलीज तक पहुंचाने का जो खेल होता है उसको कहते हैं थ्योरी ऑफ़ इंटरेक्शन एंड कम्युनिकेशन (theory of interaction and communication), जहां से किसान ही गायब है|
इस चक्र में नीचे की तरफ किसान को रोक दिया गया है मंडी तक और ऊपर की तरफ किसान को रोक दिया गया है दुकान के दरवाजे तक, जहां से वो उसी के उत्पाद से बनी चीजें उनके निर्धारित दामों पर खरीदता है|
और यहीं पर शुरू होता है किसान से उसी का माल उनके (व्यापारियों/सरकारों के निर्धारित दामों पर) द्वारा ले उसी को उनके (व्यापारियों/सरकारों के निर्धारित दामों पर) निर्धारित दामों पर खरीदने के इस चक्र में किसान को इससे बाहर रख उसपे "बोलना ले सीख" जैसी डांट मार उसको दब्बू, गंवार, गांवटी, मोलड़ बनाये रखने का खेल|
और जब तक यह चक्र नहीं टूटेगा या इसको तोड़ने को कोई आगे नहीं आएगा, सर छोटूराम की कही पंक्तियाँ अनंतकाल तक प्रलयकाल बन किसान को ऐसे ही सालती रहेंगी| उसको बंधुवा मजदूर बना के रखेंगी| और वैसे भी इतिहास और तारीखें गवाह रही हैं कि बंधुवा मजदूर को सर्व तो बोलने का हक़ नहीं होता और कोई बोलने दे भी तो उसकी बात को आदर नहीं मिलता, वजन व् महत्व नहीं मिलता| और वो महत्व इसलिए नहीं मिलता क्योंकि उसके हाथ में सिर्फ मेहनत के अलावा उससे काम लेने वालों ने, उसके मालिकों ने कोई हक़ नहीं छोड़ा होता| और किसान की बंधुवा मजदूरी के मामले में छुपे छदम भेष में हैं व्यापारी और सरकार| और जिसके पास हक़ नहीं होता, उसका स्वाभिमान सिमित होता है, परिधियों में बंधा हुआ होता है| और यही वो व्यथा है जिसकी बेड़ियां काटने का वक्त आ गया है|
और क्योंकि स्वाभिमान और अकड़/दुर्व्यवहार एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती (inversely proportional) होते हैं; इसलिए स्वाभिमान कम तो दुर्व्यवहार ज्यादा और स्वाभिमान ज्यादा तो दुर्व्यवहार कम| और किसान का स्वाभिमान एक सीमित दायरे से ज्यादा बने, उसके तमाम रास्ते सदियों से बंद हैं| वो उस सीमित स्वाभिमान वाले दायरे की अकड़ को ही अपना अक्खड़पन समझ के जीवन बिताता है, जबकि असली अक्खड़पन की चरमसीमा तो कई पायदानों ऊपर है, जहां व्यापारी और सरकारें कुंडली मार के बैठे हैं|
इसलिए अगर किसान की इन बंधुवा मजदूरी वाली बेड़ियां तोड़ने की पहल अगर विश्व में आजतक कहीं नहीं हुई है तो भारत से शुरू करनी होगी, भारत में भी कहीं नहीं हुई तो हरियाणा (खापलैंड) से ही सही पर यह शुरू करनी होगी| इन बेड़ियों को काटने हेतु, किसान के स्वाभिमान पे खींची इन परिधियों के डोरों को काटने हेतु किसान को इस "बोलना ले सीख" की बात को अब आगे ले के चलना होगा|
"बोलना ले सीख" की व्याधा किसान की जिंदगी में झील के ठहरे पानी सी क्यों जमी हुई है?:
जैसे कि ऊपर देखा एक बंधुवा मजदूर की अपनी कोई मर्जी नहीं होती और जितनी मर्जी उसके लिए छोड़ी जाती है वो उसकी मेहनत का मोल निर्धारित करने वालों द्वारा सिर्फ इस हद तक छोड़ता है कि मजदूर सिर्फ जीने के लिए रेंग सको| और रेंग के जीना कोई जीना नहीं होता| और इन ऊपर-चर्चित कारणों की वजह से किसान के जीवन में यह रेंगना झील के पानी की तरह ठहर चुका है|
इसपे एक-आध बड़े-जमींदार घरानों के लोग बोल सकते हैं कि हमें क्या कमी है हम तो राजा हैं| हो सकता है आप राजा हों पर ऐसे राजा जो अपनी स्व्छंदता से समाज नहीं चलाता, अपने तथाकथित दस-बीस-पचास एकड़ के राज्य के उत्पादों में लगी मेहनत का मूल्य स्वंय निर्धारित नहीं करता|
यह बंधुवा रुपी थोथी जमींदारी और क्या-क्या थोथापन भरती है एक किसान के जीवन में:
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अभी विगत 10 नवंबर की गोहाना रैली में मुख्य्मंत्री हरियाणा ने घोषणा करी कि एक मजदूर को न्यूनतम दिहाड़ी 8100 रुपते प्रति माह होगी? लेकिन क्या मुख्यमंत्री साहब ने यह सोचा कि एक किसान इस बढ़ी मजदूरी को कहाँ से पूरी करेगा? क्या किसान नहीं चाहता कि वो भी सही कानूनी प्रक्रिया से मजदूर को अनुबंध पे रखे? लेकिन वो चाहता भी होगा तो कैसे रख पायेगा, क्योंकि पहले की 4700 रूपये प्रतिमाह वाली दिहाड़ी की जगह, यह लगभग दोगुनी नई दिहाड़ी का बढ़ा हुआ पैसा वो कहाँ से निकालेगा, जबकि उसके उत्पाद का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार तक उसके पास नहीं, ताकि वो बढ़ी लागत तो फसल की लागत में जोड़, उसी हिसाब से फसल का दाम बढ़ा ले?
और सरकारों-व्यापारियों की कारगुजारी और किसानों की अनभिज्ञता इतनी कि उनके लिए एक कृषि मंत्रालय तक किसानों के लिए नहीं देश में, जो कि अगर हो तो ऐसे मामलों में किसानों की ऐसी आवाजों और ऐसी नई घोषणाओं से किसानों पे पड़ने वाले अतिरिक्त आर्थिक बोझों से सरकार को अवगत तक करवा सके| तो ऐसे में उसके पास विकल्प ही क्या बचता है सिवाय मुनीमों वाले कच्चे अनुबंध या मौखिक अनुबंध पे एक मजदूर को खेत में लगाने के? मतलब किसान की बंधुवा मजदूरी का सबसे बड़ा नुकसान उसको यह है कि एक मजदूर तक को खेतों में लगाने के लिए उसको सरकार और देश के कानून की नजर में अपराधी बनना पड़ता है| तो इसका दोषी कौन? सरकार और व्यापारी तो किसान को कृषि मंत्रालय खोल के देने से रहे, और किसान कृषि मंत्रालय खोलने को प्रेरित हो उसके रास्ते भी लगभग बंद हैं| हाँ, शायद इसीलिए यही संवेदनहीनताएं रही होती हैं जो ऐसे गाने बन जाते हैं कि "कैदियाँ नूं जेल तरसूं, पुत्त जट्टां दे जे प्यार नाळ रहण के"| और किसान इन गानों में ही अपनी तकदीर ढूँढ़ते हुए अपना भाग्य जीता है|
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ऊपर चर्चित सारी की सारी थेओरिएस (theories) को किसान सीख ही नहीं पाता, और उसको जो कम्युनिकेशन (communication) आती है वो सिर्फ मंडी के दरवाजे तक जाने वाली और दुकानदार के दरवाजे से सामान उठाने वाली ही आती है, जबकि उसके बीच की सारी थेओरिएस (theories) से किसान बाहर है| इससे होता यह है कि किसान कभी व्यापारी और सरकारी मुलाजिम के आगे बोलने लायक ही नहीं बन पाता, जिसको कि व्यापारी और सरकारी महकमा किसान के ऊपर अपनी गुणवत्ता समझ लेता है और किसान की नालायकी| और अगर किसान थोडा बहुत भी अपनी उपज बेचते या उनकी दुकान से सामान खरीदते वक्त मोलभाव करने की कोशिश करता है तो उसको मोलड़/गंवार जैसे तान्ने दे कर चुप करा दिया जाता है या कराने की कोशिश होती है| और यही वो लम्हे होते हैं जब अगर किसान के पास उसके उत्पाद का मूल्य निर्धारण का हक़ हो तो व्यापारी घुटनों के बल हो के किसान की बात भी सुने और किसान को अच्छा दाम मिल| और अच्छे दाम मिलने के आकर्षण वाली नीयत से किसान भी अच्छे से अच्छा बोलने की कोशिश करे| जबकि वर्त्तमान हालात में जो किसान बोलता है वो उसकी कुंठा होती है|
- वह हरियाणा जो अपने ग्रामीण आँचल की बोल-चाल की हाजिर जवाबी के लिए जाना जाता है उसी ग्रामीण की बोलने की कला में मंडी में जाते ही ऐसी क्या कमी आ जाती है कि उसको आज भी "बोलना ले सीख" की दरकार है? वो सिर्फ इसलिए कि जब वह मंडी में जाता है तो उसकी उस हाजिर-जवाबी वाली स्व्छंदता पर नकेल लगी होती है और वो नकेल होती है उसके उत्पाद के मोल-भाव का अधिकार उसके हाथ में ना होने की कुंठा की| उसको पता होता है कि तू चाहे जैसे बोल ले भाव वही मिलेगा जो ये देंगे| एक बार यह कुंठा दूर हो जाए तो फिर देखने लायक होगा कि किसान को कैसे बोलना नहीं आता| अगर व्यापारी भी हरियाणवी अंदाज वाली "फूफा-फूफा" कहके उस किसान के इर्द-गिर्द ना डोले तो|
इसलिए तो कहा है कि बोलना उसी का जिसका अर्थव्यवस्था पे नियंत्रण और किसान का यही नियंत्रण उससे छीन के उसको कहा जाता है कि "तुझे बोलना नहीं आता"। और तब तक ऐसे ही कहा जाता रहेगा, जब तक कि किसान अर्थव्यस्था में अर्थ-चक्र पर नियंत्रण के अपने इस जायज हक़ को इनके हाथों से नहीं ले लेता|
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व्यापार का आधार होता है जिधर से मौका मिले उधर से ही किसान को काट के खाना| और किसान की यह बंधुवा मजदूरी वाली जमींदारी व्यापारी को यह करने की खुल्ल्म-खुल्ला छूट देती है|
तो सार यह निकलता है कि अगर किसान को "बोलना ले सीख" से आगे बढ़ना है तो उसे अपने इस सदियों पुरानी बंधुवा मजदूरी वाली तथाकथित जमींदारी वाली भयावहता को ख़त्म करवा, अपना हक़ लेना होगा| और उस हक़ को लेने के क्या फायदे किसान को होंगे/हो सकेंगे वो इस प्रकार हैं:
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उत्पाद का अधिकार मिलने से वो व्यापारियों के समकक्ष खड़ा हो सकेगा और उनकी नज़रों में नजरें डाल स्वाभिमान से मोल-भाव कर सकेगा|
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किसान और किसान के बेटों को खेती घाटे का और हीनता का कार्य ना लग स्वाभिमान और मुनाफे का काम लगेगा| और खेती से सम्बंधित व्यापारों में उसकी भागीदारी बढ़ेगी|
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किसान के बच्चे अपने उत्पाद के मूल्य-निर्धारण करने की प्रक्रिया ठीक वैसे ही सीखेंगे जैसे एक दुकानदार की दुकान पे बैठ उसका बच्चा सीखता है| जिससे कि आर्थिक-व्यवस्था और अर्थ-चक्र की जागरूकता और जिज्ञासा बढ़ेगी| और किसानों के बच्चों में नए आत्मविश्वास का संचार होगा और वो स्वावलंभी बनने को प्रेरित होंगे|
- अपने उत्पाद का मोल-भाव करना किसान के हाथ में होगा तो उसके बच्चे भी इसको घर से ही सीखेंगे और एकाउंटेंसी (accountancy/CA) जैसे कार्य जैसे कि बही-खाते का हिसाब रखना आने से वो कमोडिटी मार्किट - शेयर बाजार (commodity market - share market) में बिना खौफ प्रवेश करेंगे, जो कि आज के दिन इक्का-दुक्का ही किसान का बेटा कर पाता है|
- किसान का बच्चा मोल-भाव करेगा तो फसल को कम-ज्यादा दाम पर बेचने की महत्वता जानेगा - इसको जानेगा तो उसको माल खरीदने वाले को लुभाने की ललक पैदा होगी - लुभाने की ललक पैदा होगी तो लुभाने हेतु बोलने वाली कला सीखेगा और वो कला सीखा तो समझो निकल गया "बोलना ले सीख" की जरूरत से आगे| यानि जब तक जिस चीज की जरूरत ही नहीं दिखाई जायेगी तो उसको सीखने की प्रेरणा कहाँ से मिलेगी| वैसे ही थोड़े कहा गया है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है| लेकिन जब आवश्यकता ही छीन ली गई हो तो अविष्कार कहाँ से होंगे?
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और वो व्यपारियों वाली लुभाने वाली बोलने की कला आ गई तो सामने वाले का दिमाग भी समझना आ गया और दिमाग समझना आ गया तो समझो वो नीति-निर्धारक बन गया और जब नीति-निर्धारक बन के देश की अर्थव्यवस्था में उतर गया तो समझो उसको "वहाँ बैठे किसान के असली दुश्मन भी पहचानने आ गए" और दुश्मन पहचानने आ गए तो समझो सर छोटूराम की कही बात का दूसरा हिस्सा यानि "दुश्मन ले पिछाण" भी पूरा हो गया|
- फसल विविधीकरण (crop diversifcation) का सपना: इससे किसानों में जलवायु व् भूमि प्रकार के अनुसार फसल उगाने को बढ़ावा मिलेगा| जैसे कि कुरुक्षेत्र का किसान गेहूं-चावल ज्यादा उगाएगा क्योंकि वहाँ इन फसलों का कम लागत में अधिकतम उत्पाद लिया जा सकता है| और भिवानी की तरफ का किसान दलहन फसलें ज्यादा उगाएगा क्योंकि वहाँ की जलवायु और भूमि इन फसलों के उत्पाद के लिए ज्यादा अनुकूलित है| जबकि अब होता यह है कि गेहूं की फसल कुरुक्षेत्र में उगाई जाए या भिवानी में, दोनों जगह के किसानों को एक ही दाम मिलता है, जबकि अगर दोनों जगह की फसल उत्पादन लागत देखो तो दिन-रात के अंतर में मिलती है| और जब लागत में दिन-रात का अंतर तो फिर बिक्री मूल्य दोनों जगह का एक जैसा कैसे? तो उत्पादन का अधिकार हाथ में होने से कुरुक्षेत्र का किसान वही फसल उगाएगा जो वहाँ की जलवायु व् भूमि क्षमता के अनुकूल है और भिवानी का भी वही उगाएगा जो वहाँ के अनुकूल है| इससे फसल विविधीकरण (crop diversifcation) का सपना भी पूरा हो जायेगा|
इसमें अड़चनें व् अपवाद क्या-क्या पैदा किये जायेंगे:
यह राह इतनी आसान नहीं होगी, क्योंकि सबसे बड़ा सवाल लाया जायेगा कि घर-घर में व्यापारी कैसे बन सकते हैं? किसान जमाखोरी करना, गठबंधन करके अपने उत्पादों के दाम ऊपर-नीचे करके छोटे किसानों को खा जाना शुरू कर देगा| हाँ विषय चिंतनीय हैं, लेकिन हल भी उतने ही आसान हैं जितने कि दूसरे व्यापार क्षेत्रों के, जैसे कि:
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एक कृषि मंत्रालय बनाना होगा, ठीक वैसे ही जैसे कि "इंडियन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स एंड ट्रेड" (Indian Chamber of Commerce and Trade) व् अन्य व्यापारिक नीति निर्धारक संस्थान हैं| ऐसे ही चैम्बर ऑफ़ एग्रीकल्चर (chamber of agriculture) बना के इन चीजों की नीतियां और कानून बनाये जाएँ जिससे कि बड़े किसान द्वारा छोटे को खाने का खतरा पैदा ना हो| ठीक वैसे ही जैसे बड़े व्यापारी द्वारा छोटे को खाने के खिलाफ धाराएं, निर्देश व् कानून हैं|
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बिचौलिया को इससे कोई खतरा नहीं होगा, सिर्फ इतना फर्क आएगा कि पहले जहां तोल-भाव में बिचौलिए की एक तरफ़ा मनमानी चलती थी अब वो किसान के हाथ बराबरी की होगी| बाकी तंत्र वैसे ही चलेगा|
निष्कर्ष: बहुत से ऐसे बिंदु अभी छूट गए हैं जो इस लेख में लिखने के लिए सोचे गए थे, लेकिन लेख की लम्बाई को ध्यान में रखते हुए, उनको एक अन्य लेख के लिए बचा लिया गया है| और जो सबसे जरूरी बिंदु थे वो इस लेख में उकेरे गए हैं| अंत में निष्कर्ष यही है कि सिमटती खेती के जोतों, बढ़ते भूमि-अधिग्रहण के चलते नए रोजगार पैदा करने हेतु, सदियों से चली आ रही इस बंधुवा किसानी से छुटकारा पाने हेतु और सबसे बड़ी किसान के सर से "बोलना ले सीख और दुश्मन ले पिछाण" वाली पंक्तियों से यदि किसान को आगे बढ़ना है तो उसको अपने इस अधिकार के लिए अश्वयम्भावी खड़ा होना होगा|