अपने अग्रज दादावीर गोकुला जी महाराज के धर्म व् मातृभूमि के नाम बलिदान के बाद मुगलों को लोहे के चने चबवाने वाली रणचंडी की अमर गाथा है यह, जिसकी तेजस्वी वीरता पर कवि के मुख से स्वर कुछ यूं फूट पड़ते हैं:
अबलाएं करती थी श्रृंगार,
वे बनी सिंहनी क्षत्राणी|
केवल श्रृंगार नहीं सूझा,
तलवार धार में था पानी|
कितने ही यवनों को काटा,
जैसे हो फसल को काट रहीं|
रणचंडी बनकर देखो वे,
अरि रक्त को चाट रहीं|
Complete article coming soon................ |
|