वैसे तो पी. चिदंबरम साहब पहले भी खापों के खिलाफ ऐसे ब्यान देते रहे हैं सो जब पांच फरवरी वाला उनका ब्यान पढ़ा कि "खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं", तो कोई अचरज की बात नहीं लगी कि उन्होंने फिर से ऐसा ब्यान दिया| हालाँकि यह ब्यान आगामी लोकसभा चुनावों की संध्या के मद्देनजर दिया गया है या इसका कोई तार्किक महत्व भी है यह तो चिदंबरम बाबू ही जानें| लेकिन फिर भी आशा कर सकता हूँ कि ऐसे क़ानून, राजनीति
और अर्थव्यवस्था के ज्ञाता को यह ब्यान देते वक़्त इतनी तो समझ रही ही होगी कि भारत एक ऐसा देश है जहां की हर गली-मोहल्ले और हर दस कोस पर कल्चर भी बदलते हैं और वाणी भी| उम्मीद कर सकता हूँ कि जनाब यह भी जानते होंगे कि भारत की धरती पर ऐसा कोई सर्वमान्य कल्चर नहीं पाया जाता जिसको कि यह देश एक मत एक स्वर से स्वीकार करता हो, इंगित करता हो| ना ही भारत में कोई धार्मिक अथवा सामाजिक संस्था, संस्थान या विचारधारा ऐसी है जो भारतीय सविंधान से मान्यता प्राप्त हो अथवा देश के सविंधान के अंतर्गत सवैंधानिक मानी या माना गया हो और बावजूद यह सब जानते हुए भी आप ऐसी बयानबाजी करते हैं तो इसमें या तो आपकी खापों को ले आपकी अज्ञानता कहूंगा, या आपका उनसे सीधा-सीधा विरोधाभाष अथवा अगर आगामी इलेक्शन के मद्देनजर इसका कोई अर्थ लिया जाए तो यह तो जनसाधारण ही निर्धारित करे| |
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लेकिन क्योंकि आप जैसी बहुमुखी प्रतिभा और प्रतिष्ठा की धनी हस्ती का खापों को लेकर यह दूसरा ब्यान है और आपका ब्यान देश के जन-मानस पर छाप छोड़ता है तो इसलिए अब आपको यह बताना जरूरी हो जाता है कि क्या वाकई में खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं? क्या वाकई में अगर भारतीय संस्कृति से खापों को निकाल दिया जाए तो क्या भारत में (उत्तरी भारत में खासकर) धर्म-रक्षक, संस्कृति पालक, सत्ता विकेंद्रीकरण के नाम पर कुछ बच पायेगा? इसलिए आइये चिदंबरम साहब आपको एक झलक दिखलाता हूँ कि खापें भारतीय संस्कृति का कितना बड़ा हिस्सा रही हैं| हालाँकि मैंने कभी भारत को उत्तर-पूर्व-पश्चिम-दक्षिण में बाँट के नहीं देखा और ना ही यह मेरी संस्कृति मुझे सिखाती| अत: इस लेख को पढ़ने वाले से अनुरोध करूँगा कि मुझे और चिदंबरम साहब को उत्तर-दक्षिण में बाँट के इस लेख को ना जांचा जाए, इसको सिर्फ संयोग मात्र ही समझा जाए कि वो दक्षिण भारत से आते हैं और मैं उत्तर भारत से| मैं एक देशभक्त संस्कृति की जड़ों से निकला पौधा हूँ, जिसको सबसे पहले सर्वधर्म और सर्व-जात का आदर करना सिखाया जाता है; इसलिए सबसे पहले तो यही जान लीजिये कि यही खाप संस्कृति का सबसे बड़ा मूल है|
भारत की तमाम तरह की अन्य सामाजिक अथवा सरकारी पंचायतों से अलग हैं खापें: खाप कोई समूह नहीं, खाप कोई सामन्तवादिता नहीं, खाप कोई दबंगई नहीं, खाप अराजक भी नहीं जैसे कि आमतौर पर लगभग हर छोटे-बड़े मीडिया द्वारा विगत के वर्षों से लगातार दिखाया जा रहा है| खाप एक विचारधारा है, खाप एक मनोविज्ञान है, खाप एक लोकतंत्र है, जो सिर्फ तब जागता है जब पूरी मानवता, देश, समाज या स्टेट पर किसी भी प्रकार का असामाजिक खतरा चढ़ आता हो| इसके चौधरी तब खाप या सर्वखाप बुलाते हैं जब किसी मुद्दे को ले कर तमाम बिरादरियों में महसूस की जाती हो और तमाम बिरादरियों में महसूस उस अहसास का ही भाष होता है कि बिना प्रचार और लाग-लपेट के खाप-पंचायते जब भी होती हैं तो उनमें लोग सैंकड़ों-हजारों में पहुँचते हैं| खाप किस विचारधारा पर कार्य करती हैं, उसके लिए आप इस लेख पर बताये गए "सर्वखाप पदक्रम आदर्श लेख" को पढ़िए:
http://www.nidanaheights.com/Panchayat.html
खाप क्या नहीं है: खाप आपके दक्षिण में होने वाली कट्टा पंचायतें नहीं हैं| खाप कोई गली-मोहल्ले पे इकठ्ठा हुए कुछ मनचलों या दबंगों का टोला नहीं हैं| खाप कोई सौ-पचासों का समूह नहीं हैं| बीते सप्ताह कुछ मीडिया वालों द्वारा एक बंगाल की पंचायत जो खाप बता के उछाली गई, खाप वो नहीं हैं| जो हॉनर किल्लिंग करते हैं वो खाप नहीं है| जो औरत पे अत्याचार को स्वीकृति दे खाप वो नहीं हैं| जो प्यार के जुर्म में सामूहिक बलत्कार का आदेश दे वो खाप नहीं|
क्योंकि ना ही तो इनका चरित्र खाप की मूल विचारधारा और सिद्धांत से मेल खाता और ना ही इन औरों का इतिहास कहीं खापों के बराबर खड़ा हो पाता| ये खापलैंड यानी प्राचीन हरियाणा के यौद्धेयों की खापें हैं, जिनका इतिहास किसी भी राजे-रजवाड़े से किसी भी स्तर पर कमतर नहीं; अपितु बहुत से मामलों में तो राजे-रजवाड़े ही इनके पास भी नहीं ठहरते| और यह बात मैं कितनी सत्यता और धरातलियता से कह रहा हूँ, इसका प्रमाण आपके ही अंदाज में यहाँ पढ़िए:
- अगर खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं होती तो इनकी मूल कार्यप्रणाली से प्रभावित हो 643 ईस्वी में ही महाराजा हर्षवर्धन इनके सत्ता-विकेंद्रीकरण के लोकतान्त्रिक मॉडल को स्वीकृति दे, इनको राजकीय मान्यता ना देते| आज इनको राजकीय मान्यता मिले या ना मिले, परन्तु यह भारतीय संकृति का कितना बड़ा हिस्सा रही हैं, इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है|
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अगर खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं होती तो क्यों मलिक खाप सर्वखाप का आह्वान कर हिन्दू व् सिख जनता को कलानौर (रोहतक) रियासत के नवाबों के कोला पूजन के जुल्मों से छुटकारा दिलाने हेतु उस रियासत की चूलें हिलाती और उन आततियों को धूल में मिलाती?
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अगर खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा ना होती तो क्यों बागपत से गर्जना लगा देश-खाप के दादा चौधरी बाबा शाहमल तोमर 1857 के प्रथम स्वंत्रता संग्राम में दिल्ली के उत्तरी छोर से अंग्रेजों की नाक भींचते, और बागपत से ले दिल्ली तक के यमुना नदी क्षेत्र में रण लड़ते? और क्यों इन खापों से ही तंग आ इनकी ताकत को विखंडित करने हेतु अंग्रेजों को प्राचीन हरियाणा के चार टुकड़े करने पड़ते? आशा करता हूँ कि आप इतना तो ही होंगे कि वो चार टुकड़े कौन-कौन से थे?
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अगर खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा ना होती तो क्यों 1669 में हरियाणा के तिलपत में औरंगजेब से वीर गोकुल जी महाराज सर्वखाप आर्मी ले के भिड़ते, और क्यों हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु आगरा के लालकिले पे अपने शरीर की बोटी-बोटी कटवाते? और भारतीय इतिहास के पहले धर्मरक्षक कहलाते?
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अगर खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा ना होती तो क्यों 1670 में संधि का बहाना दे औरंगजेब द्वारा बुलाये इक्कीस खाप योद्धा हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु, हँसते-हँसते अपने शीश उतरवाते| और इन इक्कीस यौद्धेयों में सब एक जाति के नहीं थे, इनमें ग्यारह जाट, तीन राजपूत, एक ब्रह्मण, एक वैश्य, एक सैनी, एक त्यागी, एक गुर्जर, एक खान (जी हाँ मुसलमान भी थे इनमे), और एक रोड थे| क्या देखी है ऐसी अनोखी मिशाल भारतीय संस्कृति के किसी अन्य अध्याय में? अगर किसी धर्म तक में भी ऐसी मिशालें मिलती हों तो, ला देंगे ढून्ढ के?
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अगर खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा ना होती तो क्यों गोहद की सर्वखाप किसान क्रांति खड़ी करती?
- क्यों बालियान खाप के चौधरी बाबा महेंद्र सिंह टिकैत हिन्दू-मुस्लिमों की एकता से बनी भारतीय किसान यूनियन खड़ी करते, जिसमें कि अगर मंच से नारा लगता "अल्लाह-हू-अकबर" तो जनता नारा लगाती "हर-हर महादेव", मंच से नारा लगता "हर-हर महादेव" तो जनता नारा लगाती "अलाह-हू-अकबर"! दिखाएंगे खापों को छोड़ कौनसी अन्य भारतीय संस्कृति में यह मिशाल देखने को मिलती है?
- खापें भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं होती तो बाबर जैसा बादशाह इनके दर पे शीश नवाने नहीं आता| मुझे नहीं पता आप किसको भारतीय संस्कृति मानते हैं, लेकिन क्या आपकी मान्यता वाली संस्कृति में दिखाएंगे कभी ऐसा कीर्तिमान हुआ हो कि विदेशी आक्रांता ने जा के जहाँ शीश नवायें हो?
- यही खापें अगर भारतीय संस्कृति का हिस्सा ना होती तो ब्राहम्णों तक पर जजिया कर लगा देने वाले औरंगजेब के खिलाफ सर्वप्रथम कौन आवाज उठाता? इन्हीं खापों ने 1669 में हरियाणा में तिलपत मचाया था, जो कि अंग्रेज इतिहासकारों नें भी विश्व की सबसे शौर्यतम व् भयंकर लड़ाइयों में एक बताई है| इस लड़ाई में सर्वखाप आर्मी ने औरंगजेब को संधि करने को मजबूर कर दिया था| जरा पलटिये इतिहास के इन् पन्नों को तब पता लगेगा आपको कि खापें कौनसी संस्कृति का हिस्सा हैं|
- ज़रा उठाइये इतिहास और देखिये कि कैसे इसी भारतीय संस्कृति के हिस्से सर्वखाप ने तैमूर लंग और गुलाम-वंश की ईंट-से-ईंट बजा दी थी|
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पढ़िए कि कैसे हांसी-हिसार के मैदानों में यौद्धेय शिरोमणी दादा चौधरी जाटवान जी जाट महाराज के नेतृत्व में गठवाला खाप की आयोजित सर्वखाप आर्मी द्वारा कुतुबद्दीन ऐबक के जुल्मों के विरुद्ध मचाई रणभेरी में क्या संग्राम छिड़ा था| ऐसा संग्राम जिसपे कि दिल्ली वापिस जा के कुतुबुद्दीन ऐबक खून के आंसू रो पछताया था, और फूट पड़ा था कि काश मैंने खापों के समाज को ना छेड़ा होता| यही वो खाप संस्कृति थी जिसने उसके मुंह से ऐसे उदगार निकलवा दिए थे|
- पूछिए दिल्ली की रजिया सुलतान के अंश से कि कैसे खापों ने शान बचाई थी उनकी और उनके राज की उनके विरोधियों से|
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पढ़िए खिलजी के कुलंच और देखिये जा के तुंगभद्रा नदी के मुहानों और मचानों पर, वो आज भी खापों के शौर्यों के किस्से गाते मिल जायेंगे|
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सिकंदर लोधी बतायेगा आपको कि क्यों आया था वो सर्वखाप के मुख्यालय शोहरम पर शीश नवाने, पूछिए उनकी जीवनी से कि खापें भारतीय संस्कृति का कितना बड़ा हिस्सा रही हैं!
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1857 में बहादुशाह जफ़र ने 1857 की क्रांति की कमांड खापों को सौंपते हुए लिखे गए ख़त की प्रति भी पढ़ लीजिये| आपकी सुविधा के लिए मैं इधर ही इसका लिंक भी दे देता हूँ, पढ़िए इस लिंक से http://www.nidanaheights.com/images/debate-sn/bahadurshah-to-sarvkhap.pdf और जानिये कि ये खापें ही थी जो बहादुरशाह को एक मात्र सहारा नजर आई थी भारतीय संस्कृति की लाज बचाने का|
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बीसवीं सदी में खापें कैसे भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही यह जानना है तो घूमिये एक बार खापलैंड की धरती पर| हर दस कोस पर खड़े विभिन्न विद्यालय, गुरुकुल और शिक्षालय जो आपको मिलेंगे वो इन्हीं खापों की सोच और पसीने का नतीजा रहे हैं|
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अभी हाल ही के वर्षों में देखना है तो जाइये देखिये हरियाणा में कि कैसे खापें कन्या-भ्रूण हत्या व् हॉनर किल्लिंग के खिलाफ मुहीम चलाये हुए हैं? उम्मीद है कि जब बीबीपुर की सर्वखाप ने कन्या भ्रूण हत्या को अपराध बता, ऐसा कुकर्म करने वालों के लिए मौत की सजा की मांग की तो वह खबर आपतक पहुंची होगी; तो क्या कोई असांस्कृतिक या असामाजिक सभा ऐसा निर्यण ले सकती है? ये इन्हीं खापों ने लिया है जो इसी भारत की संस्कृति का हिस्सा हैं|
उम्मीद करता हूँ कि इसको पढ़ने से दो उद्देश्य पूरे होंगे! एक आपको खापें क्या रही हैं और क्या हैं, इसका भान होगा और दूसरा खापों पे अपनी सोच को ले अपने गलत होने का अहसास भी यह लेख आपको दिलवा जाए|
अगर ये खापें ना होती तो अभी सितंबर 2013 में देश पर आये मानवता के संकट से इस देश और धर्मों को कौन उभारता? आपकी तमाम तरह की सरकारें तो जनता पर हो रहे जुर्म को एक तरफ़ा पक्ष ले मूक-बधिर हो देख रही थी| और अगर ये आगे ना बढ़ते तो अराजकता फैलनी सुनिश्चित थी| इससे यह भी साफ़ दीखता है कि आज भी उत्तर भारत की सभ्यता, संस्कृति व् धर्म को बचाये रखने में इनका कितना बड़ा स्वरूप है|
और एक विशेष बात, यह तो सिर्फ इनका इतिहास-वर्त्तमान और महत्वता बताई है, अगर इनके वंशों के राजे-रजवाड़ों का इतिहास और सुना दूं तो आप सोचने पे मजबूर हो जाओगे कि देशभक्ति और इसकी शक्ति-संचय के नाम पे जिनको आप भारतीय संस्कृति का हिस्सा मानते हैं, उन्होंने किया ही क्या है?
इसलिए जनाब यह पब्लिक appeasing की राजनीति करने के चक्कर में इतने भी मत बहकिये कि देश की संस्कृति पे सवाल खड़े कर धर्म और सभ्यता को ही संकट में डाल दें|
और आपने एक बात और कही कि मैं वकील के कपडे पहन कर स्वीमिंग पूल में नहीं जा सकता और स्वीमिंग पूल के कपडे पहन कर अदालत नहीं जा सकता?
तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि खेती-बाड़ी करने वालों की कोई ड्रेस कोड नहीं होना चाहिए अथवा नहीं होता?
क्या आप जानते हैं कि जीन्स पहन के गेहूं काटने से पायजामा या धोती बाँध के गेहूं काटना कितना आसान है? या दक्षिण भारत में लुंगी बाँध के खेतों में काम करना कितना आसान है, इतना तो आप जानते ही होंगे?
जो आम जिंदगी में जींस पहनते हैं जरा भेजिए उनको अबकी बार अप्रैल-मई की गेहूं कटाई के वक्त मेरे खेतों में, समझ में आ जायेगी उनको कि खापों के लिए भी ड्रेस कोड जरूरी क्यों होता है और क्यों यह जींस ठीक उसी प्रकार उनके कार्यक्षेत्र के अनुरूप नहीं, जैसे आप उदाहरण दे रहे हैं|
रही बात जब कॉलेज या स्कूल वगैरह में इनके बच्चे जाते हैं तो लगभग सारे के सारे पेंट-जींस ही पहन के जाते हैं| और जिसको आप पाबन्दी कहते हैं वो पाबन्दी नहीं, नसीहत होती है, ठीक वैसी ही नसीहत जैसी आपको कोर्ट में जाते वक़्त कोट-पेंट पहन के जाने की होती है अथवा स्वीमिंग पूल में जाते वक़त स्वीमिंग सूट की|