खाप के पुराने प्रारूप, मंशा, उद्देश्यों को अगर आज के दिन यूँ का यूँ लागू किया जाए तो वः विश्व का सबसे बड़ा सत्ता विकेंद्रीकरण का तन्त्र साबित होगा, वो कैसे उसको जानने हेतु इस लेख को नीचे तक पढ़िए:
खाप शब्द का अर्थ: ख+आप=ख का अर्थ है आकाश, आप का अर्थ है जल अर्थात पवित्र एवं शांतिदायक पदार्थ। अर्थात जो सब स्थानों पर आकाश की भांति व्यापक हो और जल की भांति निर्मल और शांतमय हो। सर्वखाप का अर्थ है: व्यापक अर्थात सभी खापों का मिलाप। ये खापें भारतवर्ष के उत्तर में सिंध, पश्चिम में गुजरात, दक्षिण में वर्तमान मध्यप्रदेश का मध्यभाग तथा पूर्व में वर्तमान बिहार के पश्चिम बिहार तक विद्यमान थीं| इनका जन्म कब हुआ, इसका इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सत्य है कि खापें आदिकाल से विद्यमान थीं। |
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सत्ता विकेंद्रीकरण का सबसे बड़ा लोकतंत्र: सातवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के अंतिम राजा हर्षवर्धन
(जो स्वयं बैंस गोत्री जाट राजवंशी थे) का राज इन्हीं खापों के क्षेत्र पर स्थापित था। इन बिखरी हुई खापों की शक्ति को राज की मान्यता देकर उन्हें संगठित करने के लिए महाराजा हर्षवर्धन ने बल्लभीपुर, गुजरात के राजा ध्रुवभट्ट सैन की सहायता से कन्नौज में 699 विक्रमी संवत्(सन् 643) चैत्र सुदी प्रतिपदा को राज सम्मेलन करवा के इनका नामकरण सर्व खाप पंचायत के तौर पर किया गया। ये उस काल में एक महान प्रजातांत्रिक क्रांति थी, क्योंकि महाराजा हर्षवर्धन ने अपनी राजकीय शक्तियों का विकेंद्रीकरण करके अपनी शक्ति की बागडौर का एक हिस्सा आम आदमी के हाथ तक पहुंचाने का कार्य किया, जो उस काल में ऐसा विचार करना कठिन ही नहीं, असंभव था। एक खाप का क्षेत्र निश्चित था, जिस क्षेत्र में रहने वाली सभी जातियों के लोग इसमें सम्मिलत थे। इस क्षेत्र में कोई एक गांव या घर खाप से बाहर नहीं था।
जातीपाती/भाई-भतीजावाद से रिक्त जनतन्त्र: इनके गठन में जात-पात का कोई भेदभाव नहीं था, प्रजातांत्रिक तरीके से जिस जाति व गौत्र के गांव का बाहुल्य था, उसी के नाम से खाप का नाम दिया गया।
इसलिए आज भी हरियाणा व उत्तरप्रदेश में कुछ खाप ब्राह्मण, अहीर, राजपूत और गुजरों के नाम पर भी हैं। पहले पंजाब के होशियारपुर क्षेत्र में एक खाप सैनी के नाम से भी हुआ करती थी तथा इन सभी खापों, जिनकी संख्या उस समय लगभग 360 थी, को सर्वखाप पंचायत का नाम दिया गया।
सर्वखाप का मुख्यालय सौरह्म गांव में निश्चित किया गया, जो वर्तमान में उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में पड़ता है। खाप तथा सर्वखाप पंचायत की बनावट इस प्रकार तय की गई कि प्रत्येक खाप का एक खाप प्रधान तथा एक सचिव होता था। इसके बाद खापों को निचले स्तर पर कन्नियों, पालों तक बांट दिया गया था। खाप स्तर पर केवल दो ही पदाधिकारी-खाप प्रधान व खाप सचिव होते थे। सर्वखाप स्तर पर केवल एक सचिव होता था, जो हमेशा सौरह्म गांव से होता था, जहां पर सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय है।
खाप के प्रधान का चुनाव: सर्वखाप का कोई प्रधान नहीं होता था। जब भी कभी सर्वखाप की पंचायत होती, तो उसी दिन, उसी जगह सर्वखाप पंचायत का प्रधान सर्वसम्मिति से मनोनीत किया जाता था, जो कभी स्थायी नहीं होता था। आमतौर पर जिस खाप में सर्वखाप की पंचायत होती थी, उसी खाप के प्रधान को उसी दिन के लिए सर्वखाप का प्रधान मनोनीत किया जाता था। सर्व खाप की पंचायत कराने की सूचना देने की जिम्मेवारी तथा कर्तव्य सर्व खाप सचिव का होता था, जो किसी राजा या खाप की प्रार्थना पर बुलाई जाती थी। इसके बंदोबस्त की जिम्मेवारी राजा की या उस खाप की होती थी, जिस क्षेत्र में सर्व खाप की पंचायत होती थी। ये परंपराएं लगभग सभी की सभी आज तक प्रचलन में हैं, केवल राजा वाली बात को छोडक़र। न्याय करने वाले पंचों की घोषणा मौके पर ही होती थी और कार्यवाही खुले प्रांगणों में आम जनता के समक्ष होती थी
और यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके तहत रिश्वत लेने या देने की संभावनाएं नगण्य होती हैं, क्योंकि जब प्रधान और न्याय करने वाले पञ्च मौके पर चुनें जायेंगे तो अपराधी पक्ष और पीड़ित पक्ष को अंतिम क्षण तक यह तो पता होगा कि न्याय करेंगे तो समाज के ज्ञानी लोग ही, लेकिन करेगा कौन वो नहीं पता होता था| और जब पता ही नहीं होगा तो कोई रिश्वत दे के खरीदेगा भी किसको| इसलिए इस तन्त्र में रिश्वत लेने की सम्भावना नगण्य होती थी|
खापों के परम्परागत कार्य: खापों को उस समय तीन प्रकार के अधिकार तथा जिम्मेवारिया थीं:
- सबसे पहले खापों को सेना रखने का अधिकार था, जिसमें खाप के गांव के मल्ल (पहलवान) सैनिक माने गए, जो राजनैतिक स्तर पर अवैतनिक होते थे परन्तु उनके खान-पान, वस्त्र, स्वास्थ्य और प्रशिक्ष्ण का खर्च गाँव के समर्थ लोग मिलकर वहन करते थे|
- दूसरा, खापों को सामाजिक न्यायालयों का दर्जा प्राप्त था, जिसमें उनको सामाजिक तौर पर होने वाले अपराधों व झगड़ों को निपटाने का पूरा अधिकार था।
- तीसरा, समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर करना तथा सामाजिक परंपराओं को बनाए रखने तथा उनमें समय के अनुसार सुधार करने का पूरा अधिकार था।
ये सभी कार्य अवैतनिक होते थे। जहां तक सेना रखने का अधिकार था, इसके लिए गांव के मल्लों को गांव स्तर पर लड़ाई लडऩे का अभ्यास कराया जाता था, जिसके लिए गांव स्तर, खाप स्तर तथा सर्वखाप स्तर पर बाकायदा कोच निर्धारित होते थे। इसी प्रकार सर्वखाप की तरफ से भी मुख्य कोच होते थे।
सर्वजातीय तन्त्र होने का प्रमाण: सर्वखाप पंचायत के रिकार्ड से पता चलता है कि कोच निर्धारण के बारे में किसी प्रकार का जातिगत भेदभाव नहीं था।
यहां तक कि दलित समाज के लोगों को भी इसके लिए पूरा-पूरा अधिकार ही नहीं, सम्मान भी था। उदाहरण के लिए तैमूरलंग के विरूद्ध लड़ाई में पंचायती सेना का उप सेनापति धूला बाल्मीकि था, जो कई वर्षों तक सर्वखाप की तरफ से मुख्य कोच रहा। इसी प्रकार एक मात्तेन नाम का बाल्मीकि एक महान मल्ल योद्धा कोच थे, जो अपनी 81 वर्ष की आयु तक अखाड़ों मे घूम-घूमकर परीक्षण और निरीक्षण दोनों ही किया करते थे। पंचायती सेना की आवश्यकता पडऩे पर राजा के बुलावे पर निश्चित स्थान पर इकट्ठी होती थी, जहां पर उसी दिन सेना के सेनापति तथा उप सेनापतियों की घोषणा की जाती थी।
इसमें जाति-पाति का कोई प्रश्र ही नहीं था। वास्तव में भारतवर्ष में जाति-पाति का प्रभाव आठवीं सदी में शंकराचार्य के आगमन के बाद आरंभ हुआ था। स्वयं राजा हर्षवर्धन ने पंचायती सेना का इस्तेमाल करते हुए स्थानीय 90 छोटे-बड़े राज्यों को मिलाकर एक महान साम्राज्य खड़ा किया, जिसमें पंचायती सेनाओं का पूर्णतया इस्तेमाल किया गया। पंचायती रिकार्ड से यह स्पष्ट है कि सन् 712 में जब सिंध की आलौर के हिंदू राजा दाहिर पर बिन कासिम ने हमला किया, तो राजा की मदद से लेकर सन् 1857 में बहादुरशाह जफर तक का साथ देकर पंचायती सेना ने हमेशा देश हित में लड़ाइयां लड़ी, जिसका एक विस्तृत इतिहास है, जिसको पढऩे से स्पष्ट होता है कि इन लड़ाइयों में काबलियत के अनुसार भिन्न-भिन्न जातियों से सेनापति व उप सेनापति बनते रहे।
उदाहरणस्वरूप, गुरदास सैनी, शंकर देव जाट, शिवदयाल सिंह गुज्जर, शीतलचंद रोड, हरीराम जाट, रामकुमार अहीर, जाटवाण जाट, भीमदेव राठी जाट, देवकुमार ब्राह्मण, चंडीराम राजपूत, ओझाराम जांगड़ा, सूरजप्रकाश जाट, हरबीर गुलिया जाट, यहां तक कि 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में पंचायती सेना का उप सेनापति साईं फकरूद्दीन मुस्लिम था। जिस प्रकार पुरूष मल्लों की सेना होती थी, इसी प्रकार स्त्रियों की भी पंचायती सेना होती थी, जिसमें उसी प्रकार बगैर किसी जाति या भेदभाव के काबलियत अनुसार सेनापति तथा उप सेनापति बनाए जाते थे।
उदाहरण के लिए, सेनापति बीबी साहेब कौर जाटनी, बिशनदेवी बाल्मीकि, सोमादेवी जाटनी, हर्षशरण कौर जाटनी, सोमादेवी बाल्मीकि तथा सोनादेवी जाटनी का नाम उल्लेखनीय है। खाप क्षेत्र जाट बाहुल्य होने के कारण जाट/जाटनियों के नाम अधिक हैं।
सर्वखाप के पंचों और फैसलों की अहमियत: सर्वखाप पंचायत व खापों के सामाजिक फैसले बहुत अह्म हुआ करते थे, जो पंच परमेश्वर के नाम से सत्य पर आधारित सर्वमान्य फैसले होते थे, जिनकी कभी कोई आलोचना नहीं हुई। डॉ एम.सी. प्रधान ने अपने शोध में खापों के फैसलों को उच्च कोटि का माना और उन्हें इनको क्रमबद्ध लिखा है।
इस शोध को 1966 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के द्वारा अंजाम दिया गया तथा इसकी रिपोर्ट भी वहीं पर अंगेजी में छपी थी। इसी प्रकार सर्वखाप पंचायत ने पूरे उत्तर भारत में एक संगठित सामाजिक आधार पर विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरने वाली परंपराए निर्धारित कीं, जिनका विश्व में कोई जवाब नहीं है। इसके अतिरिक्त इन खापों के पंचों को राजा और नवाब भी अपने यहां फैसले निपटाने के लिए बुलाते थे। ऐसे अनेकों उदाहरण खाप के अभिलेखागार में उपलब्ध हैं।
अंग्रेजों की प्रतिक्रिया का प्रकोप: लेकिन सन् 1857 के स्वतंत्रता अभियान में खापों ने पूरे उत्तर भारत में अंग्रेजों के नाक में दम ला दिया था। इसी वजह से अंग्रेजों ने विजयी होने पर सबसे पहले सर्वखाप और खापों पर पाबंदी लगा दी थी, यहां तक कि जमना के आर-पार शादियों पर भी पाबंदी लगा दी गई थी और इसके उल्लंघन करने पर पांच साल की सजा मुकर्रर की गई थी। इसके बाद खापों में सेना रखने की परंपरा समाप्त हो गई|
आज़ादी के बाद खापों का पुनर्गठन: देश आजाद होने के बाद सर्वखाप की पहली पंचायत 93 वर्ष के बाद सन् 1950 में श्री जगदेव सिंह सिद्धांती जी की अध्यक्षता में 60 हजार लोगों की उपस्थिति में सौरह्म गांव में सामाजिक मुद्दों को लेकर संपन्न हुई। उसके बाद इन पंचायतों का कार्य छोटे-मोटे सामाजिक झगड़ों को निपटाना तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने तक ही सीमित रह गया। यूनाइटिड प्रोविंस बनने के बाद उत्तरप्रदेश में यह खापें केवल पश्चिम उत्तरप्रदेश में सिमटकर रह गईं तथा राजस्थान, मध्यप्रदेश व पूर्वी गुजरात में मुगल राज आने के बाद हिंदू राजाओं ने मुगलों की शरण लेने पर
(महाराणा प्रताप, महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह और महाराजा शिवाजी आदि को छोडक़र) इन क्षेत्रों में खापें स्वयं ही दम तोड़ती चली गईं। पंजाब में सिख धर्म आने पर खापों का स्थान मोर्चों ने ले लिया, जिस कारण पंजाब अर्थात सिंध आदि क्षेत्र में भी खापें समाप्त हो गईं। वर्तमान में केवल हरियाणा के फतेहाबाद से लेकर उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ तक तथा उत्तरप्रदेश के बिजनौर से लेकर राजस्थान के भरतपुर के बीच ही मुख्य रूप से खापें रह गई हैं,
बाकी जगह जो भी गैर सरकारी पंचायतें कार्य कर रही हैं, वे आमतौर पर सभी जाति आधार पर हैं।
सौरह्म में है विधिगत खाप-इतिहास: सन् 643 से लेकर वर्तमान तक लगभग 1400 वर्ष तक का पंचायती इतिहास का रिकार्ड सौरह्म गांव में स्व. चौ. कबूलसिंह, पूर्व सचिव सर्वखाप के घर पर बड़ी सूझ-बूझ से कठिन समय से ही छिपाए रखा गया और
इस रिकार्ड के आधार पर अभी तक डॉ. एमसी प्रधान, डॉ. मैनफोर्ट, डॉ. जीसी द्विवेदी, तथा डॉ. बालकिशन डबास जैसे अनेकों विद्धान शोध करके पीएचडी की डिग्रियां प्राप्त कर चुके हैं। बादशाह बाबर से लेकर बादशाह अकबर तक कई बादशाह, राजा व नवाब स्वयं सर्वखाप के मुख्यालय सौरभ गांव में पहुंचकर सर्वखाप के सम्मान में सर्वखाप के सचिव को पगड़ी बांधकर एक रूपए से सम्मानित करते रहे। इनके पत्र फारसी भाषा में लिखित पंचायती दस्तावेजों में उपलब्ध हैं। ये पंचायती रिकार्ड कई किलो वजनी है, जिसमें से काफी रिकार्ड शोधकर्ता अपने साथ ले जा चुके हैं और अधिकतर वापिस नहीं कर पाए।
वर्तमान परिस्थिति: आजादी के बाद खापें केवल सामाजिक फैसलों तक सीमित रह गईं और धीरे-धीरे उनमें जातियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा। वर्तमान खापों के क्षेत्र में जाट बाहुल्य होने के कारण लोग इन्हें केवल जाटों की खाप मानने लगे तथा स्वयं जाट भी ऐसा ही समझने लगे और स्थिति यहां तक आ पहुंची कि आज जब दूसरी जातियों को सम्मिलित करने की बात आती है, तो उन्हें सर्वजातीय खाप कहना पड़ रहा है, जबकि खापें तो शुरू से ही सर्वजातीय थीं और इनका नाम केवल खाप और सर्वखाप था। वर्तमान में कोई भी 15-20 व्यक्ति इकट्ठे होकर कोई फैसला कर लेते हैं और उसे खाप का नाम
(मीडिया के अंजान पत्रकारों द्वारा) दे दिया जाता है, जबकि खाप की पंचायत बुलाने का तौर-तरीका निश्चित है। ऐसे ही कुछ लोगों ने
(जिनका खापों से कोई लेना-देना नहीं) इकट्ठा होकर एक जाट लडक़ा और एक जाट लडक़ी, जो विभिन्न गौत्र के होते हुए एक ही गांव के थे, आपस में शादी करके पहले ही गांव छोड़ चुके थे, को इन्हें दोबारा से बहन-भाई बनाने का फतवा जारी कर दिया गया, जो बहुत ही शर्मनाक था,
जबकि इसके लिए खापें बदनाम हुईं, हालांकि उनका कोई रोल नहीं था। इसी प्रकार कुछ लोग खापों के नाम से बयान देते रहे कि पुश्तैनी जमीन में लडक़ी का हिस्सा नहीं होना चाहिए, कुछ ने बयान दिया कि शादी के लिए लडक़ी की उम्र 16 वर्ष हो। उत्तरप्रदेश में खापों के नाम से तो यहां तक कह दिया गया कि लड़कियों को जींस पैंट नहीं पहननी चाहिए
(जबकि वो पंचायत मुस्लिम समाज की थी) और मोबाइल फोन नहीं रखने चाहिंए। यहां तक कि 40 वर्ष से कम उम्र की औरतों को अकेले बाजार में नहीं जाना चाहिए। ये फैसले जिन लोगों ने भी लिए, मूर्खतापूर्ण थे, लेकिन बदनाम खापें हुईं और दुष्प्रचार का प्रभाव यह हुआ कि ऑनर किलिंग का ठीकरा भी खापों के सिर फोड़ दिया गया और इन्हें तालिबानी कहा जाने लगा। लेकिन याद रहे, खाप रहें या न रहें, उत्तरी भारत की स्थानीय जातियां अपने ही गौत्र में शादी करने की कभी भी इजाजत नहीं देंगी क्योंकि ये प्रथा पूर्णतया विज्ञान पर आधारित है|
आत्म-मंथन: आज जरूरत है खापों को अपनी मूल संस्कृति और पहचान पर वापिस लौट आने की| अपनी सामाजिक चिंतन-मंथन, मानव एकता और सुद्रिड़ता की नीतियों पर सामूहिक रूप से वापिस लौटने की|
अपने समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को लिखने की, नई पीढ़ी के साथ बैठ उनकी तर्कसंगत विवेचना की| आपके जो सिद्धांत आज के दिन इतिहास सा बने दीखते हैं, उनको नए सांचे में ढालने की| यकीन मानिए आपके ऐतिहासिक सामाजिक तन्त्र के मुकाबले का विश्वभर में कोई तन्त्र नहीं| बस जरूरत है तो इसको पुनर्जिवीत कर समाज के वर्तमान परिपेक्ष्य के अनुसार परिभाषित करने की| आज भी गावों के लोग आपको उसी आदर-सत्कार से न्याय और मानवता की छवि में देखना चाहते हैं जो आपकी पहचान रही है| अगर ऐसा कुछ नहीं किया गया तो विख्यात अधिवक्ता राम जेठमलानी का खापों को "तालाब का ठहरा पानी" कहना, आने वाले समय की बड़ी हकीकत ना बन जाए|
अब वो कहने का वक्त गुजर चुका है जब आपके खिलाफ प्रचार पे आप यह कहके संतुष्ट से दीखते थे कि कहने दो, लिखने दो, क्या फर्क पड़ता है? क्योंकि यह आपकी संस्कृति है जो दूसरों के समाज, धर्मों या मान्यताओं में कमियाँ नहीं देखते या उनको देख के नहीं चिढ़ते पर दूसरे ऐसे नहीं हैं| वो समाज में धर्म और मान्यता के नाम पर भी प्रतियोगिता चाहते हैं| आपसे आगे दिखने की होड़ में आप पर प्रश्न खड़े कर करते हैं, फिर भले ही उनके अपने समाज में हजारों मानवताएं पड़ी सुबकती हों| और इसीलिये अब फर्क पड़ने लग गया है:
- वरना एक हिन्दू साहनी पंजाबी 2005 में आपके विरोध में कोर्ट तक ना जाता|
- गाहे-बगाहे मीडिया आपको अस्वेंधानिक करार करने पे आमादा ना दीखता| जबकि मीडिया और खापों पर सवाल खड़े करने वाले खुद भी जानते हैं कि भारत में खापें तो क्या कोई भी धर्म, मठ, डेरा, ऐतिहासिक सामाजिक संस्था और मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा-चर्च तक को भारतीय सविंधान से कोई मान्यता प्राप्त नहीं है|
- समाज एक रिवाज एक होने पर भी, हर कोई समाज की बुराइयों और रूढ़िवादिता को आपके मथ्थे न मढ़ता|
- आज आप पर सिर्फ एक जाट जाति की संस्था होने का पटाक्षेप न लगता|
हालाँकि और क्योंकि आप अपनी इस सांस्कृतिक विरासत को बचाने को सबसे आगे खड़े दीखते हो और इसमें अपना गौरव और गर्व मानते हो जबकि वोट, आरक्षण और जातिगत कानून की गन्दी राजनीती के चलते दूसरी जातियां आपसे दूरी पे नजर आती हैं|
पर हो सकता है उनको अपनी इस सदियों पुरानी गर्व से अभिभूत ख्याति का स्वाभिमान ना हो सो इसलिए उनको जहाँ नजर आना है आयें, जहाँ जाना है वहाँ जाएँ| पर हमें तो अपने इस तन्त्र को बचाना होगा, उसके लिए अगर आज समय की जरूरत आपको
"एकला चलो रे" को कहती है तो इससे भी आपको झिझकना नहीं चाहिए| मेरा विश्वास है कि अगर आप अपने ऐतिहासिक अंदाज में एक बार निकल पड़ें तो जो दूर जा चुके हैं वो भी वापिस लौट आयेंगे|