दो शब्द: जिस महत्वपूर्ण योद्धेय जनपद को आधुनिक इतिहासकारों ने उपेक्षा कर के भुला ही रखा था उसके विषय में व्याकरण अष्टाध्यायी में महर्षि पाणिनी जी ने अनेक सूत्रों में चर्चा की है । इन आयुधजीवी सच्चे क्षत्रियों का इतिहास लिखने की प्रेरणा मेरे मन में अष्टाध्यायी के अध्ययन से ही हुई । -
श्री भगवान् देव आचार्य
हरियाणा का योद्धेय प्रदेश: योद्धेय गणराज्य शतद्रु (सतलुज) के दोनों तटों से आरम्भ होता था । पाकिस्तान बनने से पूर्व जो बहावलपुर राज्य (स्टेट) था वह इस के अन्तर्गत था । वहाँ से लेकर बीकानेर राज्य के उत्तरी प्रदेश गंगानगर आदि, हिसार, जींद, करनाल, अम्बाला, रोहतक, गुड़गावां, महेन्द्रगढ़, दिल्ली राज्य तक प्रायः समूचे उत्तरी, दक्षिणी और पूर्वी राजस्थान में फैला था । अलवर, भरतपुर, धौलपुर राज्य इसी के अन्तर्गत आ जाते थे । योद्धेयों के समूह के संघों में त्रिगर्त होशियारपुर, कांगड़ा तक प्रदेशों की गिनती होती थी । देहरादून, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलन्दशहर, अलीगढ़, मथुरा, आगरा मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली, बिजनौर, पीलीभीत, मुरादाबाद, शाहजहाँपुर और रामपुर जिला आदि सारा पश्चिमी उत्तरप्रदेश योद्धेयगण के अन्तर्गत था । एक समय तो ऐसा आया कि मुल्तान के पास क्रीडपक्के का दुर्ग तथा मध्यप्रदेश का मन्दसौर तक का प्रदेश भी योद्धेयों के राज्य में सम्मिलित था । भारत के इतने बड़े गणराज्य का इतिहास भारत के इतिहास में विशेष स्थान तथा महत्त्व रखता है । फिर ऐसे महत्त्वपूर्ण गणराज्य के विषय में इतिहास लेखकों ने आज तक क्यों प्रमाद वा उपेक्षा की, मुझे समझ नहीं आता ।
वैदिक नाम हरयाणा: जब ब्रह्मा जी ने वेद के आधार पर गुण, कर्म, स्वभावानुसार सभी अधिष्ठानों के नाम रक्खे उसी समय हरयाणा प्रान्त का नाम भी वेद के अनुसार ही रक्खा गया, जिसका आधार निम्नलिखित मन्त्र है -
ऋज्रमुक्षण्यायने रजतं हरयाणे ।
रथं युक्तमसनाम सुषामणि ॥ ऋग्वेद ८।२५।२२॥ |
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अभिप्राय यह है कि जिस प्रदेश में समतल होने के कारण आवागमन सुगमता से हो सके, वाहन (सवारी) तथा अन्य कृषि आदि कार्यों के लिए बैल आदि पशु जहां बहुतायत से उपलब्ध हो सकते हों । जो भूभाग निरुपद्रव और शान्तियुक्त हो उसका नाम हरयाणः हो सकता है । इस मन्त्र के अनुसार ब्रह्मा जी को इस प्रदेश में उपर्युक्त सभी गुण दिखलाई दिये अतः इसका नाम हरयाणः रक्खा गया, जिसकी प्रसिद्धि शिवजी महाराज के लोकप्रिय गुणों के कारण शीघ्र ही समस्त भूमण्डल पर हो गई, जिसे आप वर्तमान में हरयाणा नाम से स्मरण करते हैं, यह उस प्राचीन हरयाणः प्रदेश का ही एक अंग है ।
शिवजी महाराज के हर नाम के अनुसार उन्हीं के समान अपने ज्ञान आदि गुणों के द्वारा सारे संसार का कष्ट हरने के कारण भी प्रसिद्ध हो गया । सारा भारत हर हर महादेव की गूंज से घोषित हो उठा और यह नाद आर्यजाति का युद्धघोष बन गया । देवर्षि ब्रह्मा से लेकर महर्षि व्यास पर्यन्त इसी देवभूमि ब्रह्मर्षि देश हरयाणे में यज्ञ-याग करते आये हैं । इन्होंने अपने गुरुकुल और आश्रमों का निर्माण यहीं पर किया और इस पवित्र कुरुभूमि में ज्ञान-यज्ञ की ऐसी ज्योति प्रज्वलित की कि जिसने सारे संसार को वेदज्ञान की ज्योति से प्रकाशित कर दिया । मनु जी महाराज को भी विवश हो इस सत्य की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक बनाकर करनी पड़ी -
एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥
अभिप्राय यह है कि यहां इस ब्रह्मर्षि देश हरयाणे की पवित्र भूमि में बने देवों, ऋषियों और आचार्यों के आश्रमों तथा गुरुकुलों में सारे भूमंडल के लोग वेदज्ञानविहित चरित्र की शिक्षा लेते थे । फिर महादेव के समान देवता विद्वान् कुरुभूमि के निर्माता इस कुरुभूमि हरयाणे के स्वयं निवासी बनकर अपने विद्या के अगाध सरोवर में संसार के दुःखी लोगों का स्नान कराके, उनको पवित्र बना, उनके कष्टों को हरकर अपने हर नाम को क्यों नहीं सार्थक करते? अवश्य करते । वे तो इससे भी आगे बढ़े । अपने महाराणी पार्वती (गौरी), गौरीपुत्र गणेश और कार्त्तिकेय को इस कुरुभूमि के निर्माण में लगा दिया, सारे परिवार ने इसे अपने घर बना लिया । कार्त्तिकेय ने हरद्वार के निकट अपने वाहन (ध्वज) के नाम पर मयूरपुर नामक नगर बसाया, जो कनखल में अब भी मायापुर के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके अवशेष अब खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं । रोहतक को अपनी छावनी बना कर देव सेनापति ब्रह्मचारी स्कन्द ने महर्षि व्यास से महाभारत में इस इतिहास के तथ्य को कार्त्तिकेयस्य दयितं (भवनम्) रोहितकम् इस रूप में लिखवा दिया । अर्थात् कार्त्तिकेय का प्रियनगर और भवन (निवास स्थान) रोहतक था । आज तक प्रचलित महादेव पार्वती की सहस्रों कथायें यही सिद्ध करती हैं कि महेश का सारा परिवार इसी ब्रह्मर्षि देश में बहुत वर्ष तक निवास करता रहा और इसके निर्माण में अपना सर्वस्व लगाकर कुरुभूत हो गया ।
इसी कुरुभूमि हरयाणा में सभी शुभ कार्यों के आरम्भ में प्रचलित विध्ननिवारक विनायक गणेश की पौराणिक पूजा, देवी (पार्वती) और शिवजी के उत्सव वा वार्षिक तथा षाण्मासिक मेले, शिवालयों के रूप में प्रत्येक ग्राम नगर के ऊंची शिखर वाले बने मन्दिर, ये सभी इस सत्य इतिहास के प्रत्यक्ष प्रमाण और साक्षी हैं कि हर और उसका परिवार हरयाणे के कुरुभूत वा हरयाणाभूत हो गया था । इसी कारण हरयाणे ने भी अपने कुरुजांगल, कुरुभूमि, ब्रह्मर्षिदेश आदि अनेक प्रसिद्ध नाम भुला से दिये । हर के प्रेम में यह प्रदेश इतना मत्त वा पागल हो गया कि हर हर महादेव का घोष लगाते-लगाते केवल हरयाणे नाम का ही स्मरण रक्खा । यह प्रदेश हर का अनन्यभक्त वा श्रद्धालु आज तक है।
हरयाणा नाम इस प्रांत का वैदिक नाम था, किन्तु अपने इस पूर्वज शिवजी महाराज के हर नाम ने सोने पर सुहागे का काम दिया । हरयाणे के पूर्वज योद्धेयों ने भी अपनी मुद्रांक पर महेश्वर नाम अंकित किया और शिवजी के प्रिय शस्त्र त्रिशूल तथा परशु का भी चित्र अंकित कर डाला । यह मुद्रा हमें योद्धेयों के प्राचीन दुर्ग सुनेत से प्राप्त हुई है । इस पर ब्राह्मी लिपि में महेश्वर लिखा हुआ है । यह मोहर ईसा से पूर्व की है । इससे शिवजी के प्रति हमारे पूर्वजों की श्रद्धा प्रकट होती है।
योद्धेयों की मुद्रांक का यथार्थ चित्र है जिस पर परशु और त्रिशूल अंकित हैं और शिव का महेश्वर नाम ब्राह्मी लिपि में लिखा है।
योद्धेय गण की मुद्रांक राजधानी रोहतक से प्राप्त: दूसरी मुद्रांक (मोहर) पर शिव जी महाराज का प्रिय हरयाणा जाति का सुन्दर कुकुद्मान् नन्दी (सांड) है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि महासेनापति शिवजी महाराज का एक प्राचीन दुर्ग रोहतक भी था, जिसका एक नाम वीरद्वार था तथा शिवजी के पुत्र देवसेनापति कार्तिकेय का प्रिय नगर और भवन कार्तिकेयस्य दयितं (भवनम्) रोहितकम् रोहतक था । इस पर नन्दी के चित्र पर ब्राह्मी लिपि में लेख है - महासेनापतयस्य वीरद्वारे । यह ईसा से पूर्वकाल का ही प्रतीत होता है।
शिवजी महाराज तथा उनके परिवार को हरयाणे के रोहतक आदि नगर ऐसे ही प्रिय थे जैसे कैलाश पर्वत और काशी प्रिय थी । हरयाणे के आर्योपदेशक दादा पण्डित बस्तीराम जी ने भी कहा है -
काशी तीन लोक से न्यारी थी।
काशी शिवजी को प्यारी थी।
हरयाणे के पौराणिक भाई शिव की स्तुति अब भी भजनों द्वारा इस प्रकार किया करते हैं –
कर के मध्य कमण्डल, चक्र त्रिशूल विधर्ता,
जुगकर्त्ता जुगहर्त्ता दुःखहर्त्ता सुखकर्त्ता।
ओम् जय शिव ओंकारा॥
सत् चित् आनन्दसरूपा, त्रिभुवन के राजा।
चारों वेद विचारत, शंकर वेद विचारत।
ओढ़त म्रुगछाला, गुरु अनहद का बाजा ॥ओम०॥
हरयाणे के जंगम जोगी प्रत्येक ग्राम में घूम-घूमकर शिव-पार्वती का विवाह प्रतिवर्ष झूम-झूमकर जनता को गाकर सुनाते हैं, जिससे शिव पार्वती के प्रति उनकी अटूट भक्ति सिद्ध होती है।
देशोऽस्ति हरयाणाख्यः पृथिव्यां स्वर्गसन्निभः।
मुस्लिम काल में भी हरयाणा प्रदेश स्वर्ग के समान था, पुनः देवयुग में तो इसकी सम्पन्नता का अनुमान आप स्वयं कर सकते हैं । इस प्रकार स्वर्ग समान हरयाणा शिवजी महाराज को अत्यन्त प्रिय था तथा हरयाणेवालों को भी शिवजी महाराज और उनका परिवार सदा ही अत्यन्त प्रिय रहा है |
निष्कर्ष: हरयाणा का नाम हरयाणा, हरि (भगवान श्री कृष्ण) के समयकाल से युगों पहले हर (भगवान शिव) के समयकाल से ऋग्वेद में सर्वप्रथम उदरित हुआ है|
"हरयाणा के योद्धेय" का अध्यन करने से पहले मुझे यही ज्ञात था कि हरियाणा का नाम श्री कृष्ण भगवान के इस धरती पर अवतार लेने से पड़ा, लेकिन उन्होंने जहां अवतार लिया वो बृज-धरती आज के आधुनिक हरियाणा का वहां तक फैलाव होने को प्रमाणित करता है| दूसरा तथ्य यह सामने आता है कि हरियाणा भगवान कृष्ण के काल से भी पुराना नाम है| हरयाणा के योद्धेयों का इतिहास बताता हैं कि यह "हरियाणा" नहीं अपितु "हरयाणा" है और इसका "हर" शब्द भगवान शिव से सीधे तौर पर सम्बन्धित है| इसके प्रमाणिक तथ्य हेतु "हरियाणा के योद्धेयों" का इतिहास पढ़िए| "हर-हर महादेव" के नारे की जन्म व् उद्घोष स्थली हरियाणा की धरती है क्योंकि यही हरयाणा भगवान शिव के शैवकाल में उनकी जंगम-स्थली रही है|
विशेष: "हरियाणा के वीर योद्धेय" के चार अध्याय हैं| यह लेख इनमें से प्रथम अध्याय के आधार पर लिखा गया है| इनके द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय को मैंने अभी पढ़ा नहीं है| लेकिन इतना विश्वस्त जरूर हूँ की इन आगे के अध्यायों में आधुनिक हरयाणा तक की बहुत सारी ऐसी बातें जानने को मिलेंगी जो आपको एक हरयाणवी होने पर गर्व महसूस करने के अनेंकों कारण दे सकती हैं|
इस पुस्तक के सभी अध्यायों की प्रतिकापी आप झज्जर गुरुकुल, हरियाणा से प्राप्त कर सकते हैं|