भूमिका: यह लेख लेखक के अंतर्मन का उदगार है, जब लेखक ने सुना कि मेरी खापों को जिनके संस्कार से ले पहचान तक मेरे खून में जीती है वो किसी एक जज की अल्पमति की वजह से असवैंधानिक करार दे दी गई हैं, तो लेखक ने समाज को टटोलना चाहा कि
ऐसा दूसरा कोनसा समाज है जो उन संभावित त्रुटियों से रहित हो और मैं खाप-समाज को छोड़ उनको अपना सकूँ तो लेखक ने अपने आकलन में पाया कि उस पंचकुला के साहनी जो खापों के विरद्ध याचिका दायर करता है ना ही तो उसका समाज और सम्भवत: वह जज भी इन्हीं नीचे आंकलन किये समाज के किसी तबके से रहा होगा तो ना ही उसका समाज मुझे त्रुटी रहित मिला, कम से कम उन त्रुटियों से रहित तो बिलकुल नहीं जिनके आक्रोश में आ ये लोग इनके ऐसे खिलाफ खड़े हुए| लेखक को यह उनकी एक जलन मात्र ही लगी, हाँ तो यह जलन नहीं तो और क्या कही जाए कि जो त्रुटी स्वंय के समाज में है, उसी को ले आप दूसरे समाज के खिलाफ जा खड़े होते हैं? यह तो वही बात हुई ना कि
"कुम्हार की कुम्हारी पे तो चले ना, जा के गधे के कान खींचे"|
और फिर खाप कोई ऐसा तो है नहीं कि इसमें 5-10 लोग ही पंचायती होते हैं, {खाप पंचायत तन्त्र की प्रणाली जानने हेतु इस पृष्ठ पर दिया गया
लेखा-चित्र (चार्ट) देखिये} इनके तो हर स्तर पर व्यक्ति को अपनी योग्यता और सामाजिक समझ के मुताबिक पंचायती बनने तक का मौका दिया जाता है| सो अगर इनके नीचले स्तर पर किसी से गलती हुई भी हो तो यहा कोनसा तरीका कि पूरे कौम के आस्था-बिंदु को ऐसे रोंदा जाए? ये तो वही बात हुई ना कि
"घुन के साथ गेहूं पीसना", जबकि होना इसका उल्टा चाहिए कि
"गेहूं के साथ घुन पीसना"| अत: अगर खाप का कोई व्यक्ति ऐसा है भी तो उस व्यक्ति और उसकी सम्बन्धित खाप का नाम ले उसको सजा सुनाने के बजाए ये क्या तुक हुआ कि एक सामान्यीकृत फैसला दे पूरे ही खाप-तन्त्र की सम्प्रभुता को आघात दिया जाए?
लेखक चाहता है कि अपने-आप को सभ्य बताने की होड़ का ये कोनसा तरीका है कि
आप दूसरे समाज को कटघरे में खींचों और वो भी तब जब वो चीजें या ऐसी ही दूसरी समकक्ष चीजें आपके खुद के समाज में मौजूद हैं| ये तो उनका नूर-कुश्ती का तरीका हुआ ना या फिर सिर्फ जलन मात्र, जैसे कि ये साहनी साहब?
और आपका उद्देश्य बुराई को खत्म करने का होना चाहिए ना कि पूरे-के-पूरे समाज को ही प्रतिबंधित करने या करवाने का, क्योंकि यह एक ऐसी प्रतिस्पर्धा है जो अगर शुरू हुई तो हर-समाज दूसरे समाज पर आक्षेप करता नजर आएगा और सांप्रदायिकता का भयंकर संकट उत्तपन हो जायेगा|
अब नीचे के भाग में लेखक द्वारा दूसरे समाजों का किया हुआ आंकलन पढ़िए:
परिवेश: हर बुद्धिजीवी एक ख़ास सामाजिक संस्था खाप (असल में विचारधारा, संस्था नाम तो इसको मीडिया ने दिया है, यह संस्था नहीं एक विचारधारा, संस्कृति है, लेकिन इस लेख में आगे इसको संस्था कह के ही सम्बोधित कर रहा हूँ) को हर इस-उस बात पे तालिबानी बोल के अपनी घृणा का जहर उनपे उगलता दीखता है| क्या घृणा का जहर इन नीचे लिखे हुए तथ्यों पर भी उतनी ही श्रदा और सिद्दत से फेंकेंगे जितना कि खापों पे लगे रहते हैं? और जिनके उदहारण अभी नीचे प्रस्तुत करने जा रहा हूँ वो बाकायदा खापों से कहीं अधिक जागरूक, पढ़े-लिखे और सभ्य भी कहे जाते हैं या खुद को मानते हैं| बताइए मुझे इनमें से कौन तालिबानी नहीं: |
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हमारे पूजनीय मंदिर और उनके पुजारी-महंत:
- इक्कीसवीं सदी में आ के भी खापों में ये-वो चीजों-मान्यताओं के जस-की-तस होने की दुहाई दे-दे, पानी पी-पी कर इनको कोसने वाले क्या बताएँगे कि क्यों इक्कीसवीं सदी में आ-कर भीं हर मंदिर या प्रतिशत में कहो तो 99% मंदिरों में पुजारी केवल पुरुष ही होते हैं, जैसे सिर्फ पुरुष के लिए ही इस पद को आरक्षित किया गया हो? तालिबान तो उसी को कहते हैं जहां औरतों को हक़ नहीं दिया जाता? तो कहाँ है औरतों का हक़ यहाँ? क्या यह पैतृक सत्ता नहीं? क्या इसे तालिबान नहीं कहेंगे?
- क्यों इक्कीसवीं सदी में आकर भी मन्दिरों के पुजारी, मंदिरों के आगे से स्वर्ण-दलित की तख्तियां व् प्रतिबंध नहीं हटवाते? क्या हर मंदिर का पुजारी एक बार यह फैसला करके जनता को कह दे कि इस मंदिर में स्वर्ण हो या दलित हर कोई बराबर आ जा सकता है, तो क्या समाज से छूवाछूत और नश्ल-भेद पल भर में ना हवाई हो जाए? नहीं यहाँ पर भी भेदभाव को दूसरी जातियों के मथ्थे मढ़ के पल्ला झाड़ जाते हैं| और इस समाज के लोग असली जगह चोट करने के बजाये यानी चोर की माँ को पकड़ने के बजाये चोर के पीछे लगे रहते हैं, ये नहीं कि उस माँ को समझाओ कि आगे से ऐसी परवरिश मत दियो कि एक और कपूत बने| अरे जिस समाज में इक्कीसवीं सदी में आ के भी समान पूजा के हक़ पर प्रतिबन्ध लगते हों, वो भला किस सूरत में तालिबान से बेहतर हो सकता है?
- 2012 के साल और इक्कसवीं सदी में आ के भी ये चीजें क्यों नहीं बदल रही? क्यों मंदिरों की पुजारिन औरतें नहीं बनाई जा रही? क्यों आज भी मंदिरों को स्वर्ण-दलित में बाँट रखा है? आखिर यह तुगलकी सोच कब तक चलेगी?
और क्यों नहीं कोई मीडिया वाला इस बात की वकालत तक भी करता नहीं दीखता कि ऐसे मंदिरों जहां पुरुष के साथ कम से कम एक पुजारिन न हो और दलित-स्वर्ण की तख्ती जिसके आगे लगी हो उनको गैर-सवेंधानिक घोषित करवा बंद करवा दिया जाए? उदहारण के तौर पर क्या एन.डी. टी.वी. वाले अभिज्ञान प्रकाश और रविश कुमार, जो खापों पे स्पेसल प्रोग्राम करके उसमें बार-बार खापों को असवेंधानिक सिद्ध करने पे तुले हुए दीखते हों, क्या वो उपरलिखित संस्थाओं और विचारधाराओं को भी, ऐसी ही सिद्दत से गैर-सवेंधानिक करार करने के लिए कोई ऐसा ही प्रोग्राम करने की हिम्मत दिखायेंगे?
हमारे ग्रन्थ क्यों पुरुष-प्रधानता से भरे हुए हैं?:एक समय, स्थिति, परिस्थिति, कारण-विकारण के चलते एक समय में बनाई गई, चीज उस समय के अनुरूप सही हो सकती है तो जरूरी नहीं कि वो सवर्था और सार्वकाल के लिए सही हो के तर्क दे के खापों पे अपनी वाक्-चपलता के तीर छोड़ने वाले, क्या बताएँगे की त्रेता, सतयुग, दवाप्र में रचे/लिखे गए पौराणिक किस्से-कहानियां जो कि सर्वदा पैत्रिक सत्ता, पुरुष-प्रधानता एवं रंग-नश्ल भेद से भरे रहे हों, वो कैसे इक्कीसवीं सदी में आ के भी समाज के लिए तर्क-संगत बने हुए हैं?
और अंधकार तो ये कि इनको हमारे बच्चों को टी. वी. के जरिये परोषा जाता है| ऐसे पुरुष-प्रधान ग्रन्थ बच्चों को दिखाओगे और ये भी अपेक्षा रखोगे कि वो बड़े हो कर औरत-लड़की को बराबर की दृष्टि से देखें?
हालाँकि मैं इनको यहाँ लिखकर इनके प्रति कोई अनादर भाव नहीं दर्शाना चाहता क्योंकि ये सब मेरे लिए भी उतने ही आदरणीय रहे हैं जितने कि किसी आम भारतीय के लिए,
लेकिन आज इनके अंदर के पुरुष-प्रधानता और वर्ण-भेद को यहाँ उजागर कर एक नई बहस जरूर शुरू करना चाहूँगा कि जिस इक्कीसवीं सदी में पैत्रिक सत्ता, पुरुष-प्रधानता एवं रंग-नश्ल भेद को मिटाने की लहर
(पता नहीं सच्ची है कि थोथी हवा का झोंका) चल रही हो उसमें एक तरफ बच्चों को टी. वी. आदि के जरिये इनको परोसोगे और साथ ही उपर-लिखित त्रुटियों से रहित समाज भी चाहोगे तो क्या यह किसी भी वास्तविकता के धरातल पर संभव है? आइये जरा देखें कि कैसे हमारे सामाजिक और धार्मिक मूल्यों में ही पुरुष-प्रधानता और वर्ण-भेद बसती आई है:
- क्यों इंद्र देवता को अहिल्या जैसी सति नारी के सतीत्व को भंग करने के बाद भी उसको उस स्वर्ग का कर्ता-धर्ता बने रहने का संरक्षण जारी रखा या कहो कि आज इक्कीसवीं सदी में आने तक भी जारी है? जिस स्वर्ग में जाने के लिए आप-मैं, हर कोई अंधे हुए मूर्खों की तरह ताउम्र दुआ करने में गुजार देते हैं कि मुझे स्वर्ग मिले? क्या आपने कभी सोचा है कि जिस स्वर्ग का संरक्षक स्यवं इंद्र जैसा बलात्कारी है आप उसी बलात्कारी की सरपरस्ती में आने वाले स्वर्ग में जाने की दुआ करते आये हैं? क्या यह जानते हुए भी कोई ग्रहणी स्वर्ग जाने की कामना रखना चाहेगी?
और ऊपर से गौतम ऋषि जो कि अहिल्या के पति भी थे उन्होंने भी अपने श्राप की गाज अहिल्या को ही पत्थर बना के गिराई, जिसका कि देखो तो कोई दोष भी नहीं था| क्यों नहीं उन्होंने इंद्र को पत्थर का बना दिया उसी वक्त, और मह्रिषियों की सभा कर उससे उसकी स्वर्ग का कर्ता-धर्ता होने की पदवी छीन ली गई? अत: जो सतयुग के बलात्कारियों को संरक्षण दे कलयुग में भी उनकी पदवी और रुतबे को यथावत रखें वो भला तालिबानी शब्द से कैसे बच सकते हैं?
- रामायण में ये कह कर सीता जी की अग्नि-परीक्षा ली गई कि वो 10 महीने तक पति से दूर रही, इसलिए उनका अग्नि में प्रवेश कर अपना सतीत्व सिद्ध करना अनिवार्य है ? मैं पूछता हूँ कि क्या राम जी नहीं 10 महीने सीता जी से दूर रहे? तो फिर उनको भी सीता जी के साथ अग्नि में प्रवेश क्यों नहीं करवाया गया? क्या यह तालिबानी सोच नहीं थी, जो कि आज तक भी जारी है? पता नहीं कैसे लोग उस युग को सतयुग कह देते हैं जहां अग्निपरीक्षा देगी तो वो एक स्त्री, रावण के द्वारा अपहृत कर ली जाएगी तो वो एक स्त्री, गर्भवती होते हुए घर से निकाल वन में दर-दर भटकने को छोड़ दी जाएगी तो वो एक स्त्री, धरती फाड़ के उसमें समाएगी तो वह एक स्त्री? क्या ये समाज की पुरुष-प्रधानता की मानसिकता की देन नहीं? हाँ, रहा होगा वो सतयुग लेकिन सिर्फ पुरुषों के लिए, नारी के लिए नहीं| बस औरत को तो सति नारी होने का झुनझुना पकड़ा के सारे इतिहास में दरकिनार करते आये हैं|
मुझे पता है कि मेरे ऊपर कई उँगलियाँ उठेंगी कि राम जी तो पुरुषोत्तम थे, उनपे यह सख्श कैसे ऊँगली उठा रहा है? मेरे ऊपर वही ऊँगली उठाएंगे जो पुरुष-प्रधानता की सोच के शिकार हैं वरना बताओ एक गर्भवती महिला को अकेली वन में छुड़वा देने में कहाँ की पुरुषोत्तमता? फिर से वन जाना ही था तो राम जी साथ क्यों नहीं गए? क्या राज उस वक्त नहीं चला था जब भरत ने उनकी पादुकाएं सिंहासन पर रखकर चौदह साल तक राज को चलाया था, राज तो अब भी वैसे ही चल जाता, नहीं? इसीलिए अगर फिर से एक धोबी के कहने से राजधर्म निभाने की भीड़ आन पड़ी थी तो फिर रख देते पादुकाएं सिंहासन पर और स्वयं भी जाते सीता जी के साथ| और उसी वक़्त वापिस आते जब जनता को अपनी गलती का अहसास होता, पर नहीं| और आप उम्मीद करते हैं कि आम आदमी की सोच पुरुष-प्रधानता से ऐसे ही बैठे-बिठाए रिक्त हो जाए? ये बातें करने वाले क्यों समाज को झूठी दिलासा में जिलवाते हैं?
उस युग में नर-नारी की समानता होती तो राम जी के वन जाने की स्थिति में राजपाट भरत की जगह उनकी माता कौशल्या भी संभाल सकती थी, क्या नहीं? क्या जरूरत थी वन जा के राम जी की पादुकाएं लाने की? जब तक चारों भाइयों की माताएं जीवित थी, तब तक पादुकाएं किस बात की सिंहासन पर? और उन तीनों माताओं के जीवित होते हुए भी भरत का वन जा के पादुकाएं लाना साफ़ दिखाता है कि वह एक पुरुष-प्रधान युग था| जिसको आज इक्कीसवीं सदी में आ के भी टी.वी. के द्वारा बच्चों को परोसा जाता है| और फिर उनसे ये भी उम्मीद की जाती है कि वो औरत-लड़की को सम्मान की और समान दृष्टि से देखें?
- महाभारत में युधिष्ट्र ने द्रोपदी को जुए में दांव पे लगाने से पहले क्या द्रोपदी की आज्ञा मांगी थी? नहीं, पर फिर भी ऐसे नारी के सम्मान की धज्जियाँ उड़ाने वाले को धर्मराज की पदवी आज इक्कीसवीं सदी में आ कर भी बदस्तूर जारी है| जहां धर्मराज तक नारी से आज्ञा नहीं लेता हो वहाँ के समाज में तुम अपेक्षा करते हो कि आम-आदमी आज्ञा लेगा? यहाँ भी वही कहानी क्यों हुई कि चीरहरण होगा तो नारी का, जुए में दांव पे लगेगी तो नारी? इक्कीसवीं सदी के समाज में भी उसको तर्कसंगत बनाए रखना और जोर-शोर से इसका टी. वी. प्रसारण व् प्रोत्साहन जारी रखना, इसको तालिबान नहीं तो क्या कहोगे?
- नारी! ना तेरा सतयुग था, ना द्वापर, फिर कलयुग तो होगा कैसे......मुझे एक बात समझ नहीं आई कि महाभारत पुराण के लेखक ने कान्हा के चरित्र में ऐसा क्यों लिखा कि एक तरफ तो देश-फर्ज का हवाला देते हुए राधा को उनसे छुड़वाया और दूसरी तरफ रुक्मणी को अगवा करके ब्याह करवा दिया? कहते हैं रुक्मणि कान्हा से प्यार करती थी और इसका संदेशा जैसे ही लेखक कान्हा तक पहुँचवाते हैं तो कान्हा उनको अगवा करके ब्याह करेंगे ऐसा लिखे देते हैं, तब लेखक देश-फर्ज किधर भूल गए? मुझे समझ नहीं आई महाभारत के लेखक की मति कि जो प्यार में मारी-मारी फिरी, जिससे रास रचाए यानी राधा जी (जिनके कि गाँव और गोत्र भी अलग थे हालाँकि वो तो रुक्मणी के मामले में भी अलग थे पर कारण को मजबूती देने को लिखा कि राधा जी के मामले में ऐसी भी कोई अड़चन नहीं थी) उनसे तो ब्याह नहीं करवाया उनका और इधर रुक्मणी जिनसे कान्हा पहले कभी मिले भी नहीं उनका अगवा करके ब्याह होना लिख दिया? क्योंकि ऐसा भी नहीं था, कि एक रुक्मणी का ही ब्याह उनकी मर्जी के विरुद्ध हो रहा था, राधा जी का भी तो उनकी मर्जी के विरुद्ध हुआ था| वैसे तो राधा जी के कान्हा के साथ के बाद की जिंदगी कम ही देखने को मिलती है पंरतु जय हो अपनी "एकता कपूर माता" की जिन्होनें उनके महाभारत के सीरियल में यह दिखा के मेरी दुविधा दूर कर दी कि राधा जी का रिश्ता हुआ था, उनके रिश्ते की बातें भी ठीक वैसे ही चली थी जैसे कि रुक्मणी जी के रिश्ते की चली थी|
कुछ भी किया हो लेखक ने, परन्तु शादी से पहले के प्यार में भी पुरुष-प्रधानता घुसाने से बाज नहीं आये, कि देख ओ नारी, तू जितना प्यार कर, पर मर्द चाहे तो तुझे शादी से पहले भी छोड़ सकता है| और ऐसी-ऐसी प्रेम-कहानियां समाज में आदर्श हैं शायद इसीलिए तो 90% प्यार का दम भरने वाले लड़के, लड़कियों को धोखा देने से नहीं कतराते या कहो कि डंप (dump) कर जाते हैं। और यहाँ तो मानवाधिकारों की डुगडुगी बजाने वाले तथाकथित डेमोक्रेटिक संगठनों को भी दुविधा ही रहती है क्योंकि जब कहीं समाज किसी प्यार में रोड़ा बनता है तो ऐसे मोर्चा संभालते हैं जैसे कि तालिबान की जलाला को स्कूल जाने से रोका गया हो; लेकिन इन 90% मामलों पे कभी विश्लेषण तक नहीं करते कि ये निजी-स्तर पर इतनी डमपिंग क्यों होती है? धंधा है भाई धंधा है, दुविधा के मध्य सुविधा चुनने का धंधा। फिर तो प्यार अँधा होता है कहने वाले भी गायब हो जाते हैं, है ना अचंबा कि प्यार अँधा होने पर भी 90% डमपिंग होती है|
इस डंप (dump) करने के चैप्टर ने 70-80 के दशक की फिल्मों के हीरो की माओं को बड़े दुःख दिए क्योंकि जिस फिल्म में देखो या तो विलेन बेचारी औरत का बलात्कार करके भाग जाते थे या फिर पिता होते हुए भी बड़ी-दुनियाँ की चकचौंध सी जिंदगी जीने के लिए निरूपा रॉय जी जैसी बोरिंग बीवियों को छोड़ किसी dainted-painted (माफ़ी अभिजित मुखर्जी जी आपका कहा हुआ कटाक्ष शायद यहाँ सही बैठ जाए, वैसे जूते पड़वाएंगे आप मेरे को भी) को बगल में रखते थे| और इधर फिर वो माँ उस बच्चे को ये कसमें दिलाते हुए पालती थी, कि बेटा तुझे बड़ा हो के तेरी माँ का बदला लेना है और सारा बॉलीवुड का दर्शक पागल हुआ रहता था ऐसी फिल्मों के पीछे| शायद इसलिए क्योंकि हमारे समाज का दिल बड़ा पसीजा हुआ है ना, औरत को जितने कष्ट में देखता है उतनी बड़ी सहानुभूति बरसाता है और बरसा दिया इन फूहड़ स्क्रिप्ट की फिल्मों पे घड़ियाली आंशुओं वाली सहानुभूति का प्रलाप| अरे क्या ख़ाक पसीजा हुआ समाज है, यह तो हमारे समाज का चरित्र है कि उसको औरत अच्छी ही तब लगती है जब वो बेचारी कष्टों से गुजर के जीवन जीती है| सीधे से सुख-संपन्न जीवन जीने वाली को देवी का ओहदा थोड़े ही मिलता है अपने यहाँ? फिर ऐसे में मर्द-समाज की मति भी ऐसी ही है कि नारी तुझे महान बनना है तो ये-ये कष्ट पहले सह के दिखा| बताओ तालिबान कहाँ नहीं? बताएँगे खापों को तालिबान कह-के कोसने वाले कि तुम्हारे हजारों साल पुराने पुरुष-प्रधानता से भरे आदर्श आज भी क्यों नहीं बदले?
- "ढोल-गंवार-शुद्र-नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी" क्यों आज इस इक्कसवीं सदी में भी इन पंक्तियों को ग्रन्थों में तथाकथित स्थान और महत्व प्राप्त है? जिनमें खुल्लेआम सिर्फ पुरुष-प्रधानता और जातिपाति की बू आती है|
- क्यों आज भी इज्जत (हॉनर) के नाम पे अपनी स्वयं की माँ का शीश काटने वाले महऋषि परशुराम की पूजा की जाती है, प्रभात फेरियां निकाली जाती हैं? और वो भी इक्कीसवीं सदी में आके, जहां नर और नारी को समान नजर से देखनें की वकालतें होती हैं? सत्य है कि उन्होंने पृथ्वी से पाप का अंत किया लेकिन उनके साथ जुड़े इस काले अध्याय को क्यों बार-बार टी. वी. वगैरह पे परोसा जा रहा है? हॉनर किल्लिंग पे कुछ समूह विशेषों और क्षेत्र विशेष को मंशामंडित हो घसीटने वाले जवाब दें इस बात का|
- इक्कीसवीं सदी में आ कर भी माता लक्ष्मी को विष्णु जी की सर-शैय्या पर उनके पैरों में ही बैठा दिखाओगे तो क्या उम्मीद करते हो कि तुम्हारे बच्चे औरतों को पैरों की जूती समझना छोड़ देंगे?
मैं नहीं कहता कि हमारा पौराणिक और धार्मिक साहित्य औचित्यहीन है लेकिन समय के अनुसार उसमें क्या बदलाव हों यह तो देखना ही होगा। हमारे धार्मिक साहित्य जिसमें कि आज की भाषा में ये सभी त्रुटियाँ
(जो की उनकी रचना के समयानुसार सही रही होंगी) हों उनको शोध के लिए छोड़ दिया जाए, अन्यथा इक्कीसवीं सदी में बैठ के सुविधानुसार समाज सुधार के नाम पर ये दिशाहीन नूरा-कुश्ती बंद हो|
धर्माधिकारी ही धर्म की परिभाषा को ले के गंभीर नहीं दीखते, इनसे यह प्रश्न कर दो तो कहते हैं कि ये तो तुम्हारे अधिकार में है कि इससे तुम क्या अच्छा सीखो और क्या बुरा? अरे ये धर्म है कोई सब्जी मंडी में बिकती गाजर-मूली नहीं कि अच्छी-बुरी देख के खरीदी जाए या कोई फिल्म नहीं जिसको एक साधारण मानव की कृति मान के अच्छा-बुरा छांटने में संकोच ना हो? यह धर्म है जिसको इंसान की पहचान से जोड़ा जाता है|
और
क्या इसे धर्माधिषों की असफलता नहीं कहा जाए कि उनकी इन ताकियानूसी तालिबानी सोच, जिसमें ना मर्द-औरत की बराबरी का सिद्धांत है ना ही जातिगत दृष्टि से सबको एक देखने का, उसके चलते ही अन्य सामाजिक संगठन अपने अलग से संगठन बना लेते हैं?
फिर वो बुद्ध धर्म रहा हो, सिख-जैन या फिर ये हिन्दू धर्म में होते हुए ही गैर-ब्रह्मिन्वादी करार ठहरा दी गई खापें? लेकिन खापों को गैर-ब्रह्मिनवादी कहने वाले ये भूल जाते हैं कि ये वही खापें हैं जिन्होंने एक ब्रह्मिन स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा दिए आर्य समाज को सबसे ज्यादा गले लगाया और स्वीकार किया, जो यह भी साबित करता है कि खापें अंधी नहीं जागरूक रही हैं| उन्होंने धर्म को अंधे हो के नहीं पूजा बल्कि स्वामी दयानंद जैसे सच्चे धर्माधिकारी और पाखंडियों में परख कर धर्म की मानना की| और जब-जब कोई ब्रह्मिन स्वामी दयानंद बनेगा तो ये लोग उसको ऐसे ही सर आँखों पे बैठाएंगे| लेकिन कुछ धर्माधिकारियों से आर्य-समाज की सफलता नहीं पची और उसमें भी मिलावट शुरू हो गई| बजाय इनके साथ बैठ, इनको वापिस अपने से जोड़े रखने की कोशिश करने के,
उनको ब्राह्मिनवादी एवं गैर-ब्राह्मिनवादी में बाँट खुद धर्म की हानि भी करते हैं और समाज को तितर-बितर भी|
दरअसल मुझे तो यह खापों को तालिबान कहने का सिर्फ एक दर मात्र ही दीखता है क्योंकि कहने वाले शायद खुद जानते हैं कि सबसे बड़े तालिबानी तो वो ही हैं| सो इससे पहले कि वो पहचाने जाएँ इसका ठीकरा दूसरों के सर फौड़ दो या अध्ज्ञानी सामाजिक संगठनों के जरिये फुडवा दो| वो हरियाणवी में कहते हैं ना कि
"ला कें बण म्ह आय्ग, दमाल्लो दूर खड़ी"|
अब बात सिखों की करते हैं: जिस धर्म में उसको ना मानने की सजा गुरुद्वारों के लंगर के झूठे बर्तन साफ़ करवा या गुरुद्वारे के द्वार पे बैठा जूते साफ़ करवाने जैसी हो वो धर्म भला तालिबानी शब्द से कैसे बच सकता है? कैसे स्वर्गीय सुरजीत सिंह बरनाला से लंगर के झूठे बर्तन साफ़ करवाने और श्री बूटा सिंह से जनता के जूते साफ़ करवाने के बावजूद भी ये लोग अपने आप को तालिबानी ना होने का दम्भ भर सकते हैं? और अपने आपको जाति-रहित धर्म कहलवाने के बाद भी इस धर्म में जातियां क्यों हैं? और हैं तो इनको खत्म करने हेतु क्या किया जा रहा है?
क्यों गुरुद्वारे जातियों के नाम पर बने हैं? बाबा बुड्ढ़ा जी इतना महान होते हुए भी, उनको कभी भी गुरू गद्दी के लिए अधिकृत नहीं किया गया? क्यों एक सर्वजातीय धर्म होने के बजाये, यह एक जाति-विशेष का व्यक्तिगत सा नजर आता है? और ऐसे ही दूसरे जवलन्तशील सवाल|
मुस्लिम देशों से तो तालिबानी शब्द आया ही है तो उनकी कहने की जरूरत ही नहीं| लेकिन एक बात जरूर है कि भले ही इनके यहाँ लिंगभेद चरम सीमा का हो परन्तु ये मस्जिदों में जातिगत तख्तियां नहीं लगाते कि यहाँ सिर्फ स्वर्ण नमाज अदा करेगा, दलित नहीं|
खापों को जब देखो तब गैर-सवेंधानिक, करार देने वाले मुझे ये बताएं कि कोनसी सामाजिक संस्था, संगठन या धर्म भारत के विधान से मान्यता प्राप्त है और सवेंधानिक करार दिया गया है? क्या हर कोई अपनी-अपनी सामाजिक मान्यता और अनुयायिओं की स्वीकृति से नहीं चलते? आखिर ये बुद्धिजीवी बार-बार एक ही संगठन को गैर-सवेंधानिक बोल के साबित क्या करना चाहते हैं? उनको बाकी संस्थाएं क्यों नहीं दिखती?
अब जरा ग्रामीण-बनाम शहरी भी देख लीजिये: कई एन. जी. ओ. और महिला संगठनों की सदस्याएं, बीबीपुर में कन्या भ्रूण हत्या पे हुई पंचायत की बढाई करना तो दूर, उसमें भी नुक्स निकल लेती हैं| और मुद्दा उठा के लाती हैं पैतृक सम्पत्ति के बंटवारे का| बात सही भी है और बंटवारा बराबर का होना भी चाहिए| परन्तु मैं पूछना ये चाहता हूँ कि तुम्हारा मकसद इस बराबरी के अधिकार को उठाने से ज्यादा, गाँव को शहरों से नीचा दिखाने का या पिछड़ा हुआ बताने का क्यों दीखता है? क्योंकि तुमको मैंने शहरी सम्पत्ति के महिला-पुरुष में बराबर बंटवारे पे बोलते तो कभी नहीं सुना?
कितने लोग हैं शहरों में जो एक पति-पिता-भाई-पुत्र होते हुए, अपनी पत्नी-बेटी-बहन-बहु को अपनी चल-अचल सम्पत्ति जिसमें कि दुकानें-कारखाने-मकान-जायदाद-कोठियां-बंगले-पैसा-व्यापार-तनख्वा आते हैं को बराबर का बाँट रखा है या बाँटते हैं? औरों की तो छोडो क्या खुद ये मीडिया और NGO's वाले बताएँगे कि उनमें से कितनों ने इस इंसानियत को अपने घरों में लागू किया है? मेरे ख्याल से ये लोग गाँव वालों से ज्यादा पढ़े-लिखे, सभ्य, सुशील, मृदुल जितने भी ऐसे शब्द जो एक इंसान के गुणगान के लिए आप जोड़ सकते हैं जोड़ लीजिये, वो सब और क़ानूनविद, जागरूक क्या नहीं में, वो गाँव वालों से ज्यादा होते, तो जब वहाँ तो आप इस चीज की वकालत करती दिखती नहीं और जा के कूदती हैं गाँव के ऊपर?
तो क्या यह एक तालिबानी मानसिकता नहीं? कि शहर जिसमें कि आप रहती भी हैं वहाँ तो आपको ये चीज ना दिखती, ना करनी, बस हां उस ढर्रे पे चलना है कि
भगत सिंह हो जरूर पर मेरे घर में नहीं| समाज को सुधारने में मेरा नाम हो जरूर पर मेरे घर-आसपास या जहाँ मैं रहती हूँ वहाँ तो सब साफ़ है सब बराबर है, सच्ची में? आप जैसी बुद्धिजीवियों को ये मुद्दे बराबर से उठाने चाहिए ना कि शहर और गाँव को अलग-अलग रख के|
खापों के चबूतरों पे महिलायें ना होने का रोना रोने वाले और इनको पैतृक-सत्ताधारी ठहराने वाले, दें इन ऊपर के सवालों के जवाब| बड़े पैतृक सत्ता के नीतिकार ये हैं या खापें? जो उँगलियाँ उठाते हैं वो या तो पूरे समाज पे उठायें
अन्यथा थोथे धान पिछोड़ना बंद करें|
क्योंकि गाँव में भी उतने ही सभ्य लोग रहते हैं जितने शहरों में| सभ्य इसलिए कि
जिनको अनाज पैदा करके आपका पेट भरना आता हो-सारी ऍफ़.एम्.सी.जी. (FMCG) के लिए रा-मेटिरिअल देना आता हो, जिनको कपास पैदा करके आपका तन ढकना आता हो, जिनको दूध पैदा करके आपको दही-घी और चाय तक के लिए दूध देना आता हो, जिनको गन्ना पैदा करके आपकी चाय तक मीठी करनी आती हो, जिनकी फौजी सेना के पास भारत का एक-मात्र विक्टोरिया-क्रोस का सम्मान यह विस्वास दिलाता हो कि आप विश्व की सबसे शक्तिशाली जाति के शूरमाओं द्वारा संरक्षित हैं, तो वो किसी शहरी से किस मायने में सभ्य नहीं हुए?खापों पे ऐसे रोने वाले इतना समझ लें की आप अमरबेल हो और हम कीकर|
कल को अगर किसी करणवश समाज का चक्र टूट जाए तो कीकर तो अमरबेल के बिना रहे लेगी पर ये अमरबेल कहाँ जाएगी?
अब आज के जातिगत कानून और आरक्षण को ले लो: महाऋषि बाल्मीकि ने अपने ही परिवार से सीखा कि एक पिता के कर्मों के लिए पुत्र जिम्मेदार नहीं, पत्नी जिम्मेदार नहीं, तो एक दूसरी जाति में पैदा हुए पे जो जुर्म हुए हों उसके लिए अन्य जाति वाला वो भी अगली पीढ़ी का हो के कैसे जिम्मेदार हो सकता है?
मेरे पिता-दादा या परदादा के उनके समकक्ष दूसरी जाति के लोगों से कैसे सम्बन्ध थे यह देखते हुए मुझे रोजगार-नौकरियों में प्राथमिकता देना क्या यह तालिबान नहीं? मुझे कदम-कदम पे इस अहसास के साथ मारा जाना, मेरा मनोबल विखंडित करना कि तेरी जाति में किसी ने उसकी जाति में किसी को प्रताड़ित किया था, इसलिए आज तुझे नौकरी उससे पहले नहीं मिल सकती बेशक तुने परीक्षा और हर मापदंड पे उससे बेहतर प्रदर्शन किया हो? क्या यह एक ऐसी तालिबानी मानसिकता नहीं जो एक दलित का चोगा उतार दूसरे को पहनाने पे उतारू है?
और इसका सबसे बड़ा शिकार किसान जातियां ही होने जा रही हैं, कोई है इस तालिबान से इनको बचाने वाला?
और खापों पे राजनैतिक होने का रंग चढाने वाले या इनको अपनी जूतियाँ चमकाने वाला कहने वाले, मेरे इन सवालों का जवाब दें:
- क्या किसी खाप को देखा है कि इन्होनें सामाजिक सभा करके कभी अपने अनुयायिओं को ये कहा हो कि आप इस या उस पार्टी को वोट दीजिये?
- क्या कभी किसी खाप को देखा है किसी राजनेता की चुनावी सभा में मंच साझा करते हुए या उनके मंच से राजनीति पे बोलते हुए?
- खापों के कितने सामाजिक नेता MLA या MP हैं? आज तक मैंने तो एक भी नहीं सुना और वो भी बावजूद इसके कि इनको हर चुनाव के वक्त लगभग हर राजनीतिक पार्टी टिकट देने की पेशकस करती है| जिसमें सबसे बड़ा उदाहरण भारत की सबसे बड़ी गठ्वाला खाप के प्रधान दादा बलजीत सिंह मलिक हैं, जिनको कि हर चुनाव में इस या उस पार्टी से ऐसी पेशकस आती रहती हैं| लेकिन उन्होंने हर बार यह कहते हुए इन प्रस्तावों को नाकारा है कि मैं सामाजिक नुमाईन्दा हूँ सो मुझे समाज पे काम करना है| वर्ना इनपे ये तोहमतें लगाने वाले ये भी जानते होंगे कि सोनीपत में अकेली गठ्वाला खाप की इतनी वोट हैं कि इनको घर बैठे-बिठाए MP बना दें और ऐसे ही मेरठ और सहारनपुर में हैं| और यही कहानी इनके प्रभाव वाले अन्य जिलों की है|
- अपनी इतनी बड़ी उपस्थिति होने पर भी खापों ने कभी इस ताकत का गलत प्रयोग नहीं किया, वरना जैसी MNS या Shiv Sena मुंबई में खड़ी हैं, ऐसी तो एक-एक खाप खड़ी कर सकती है| इन्होने तो कभी नहीं किसी दुसरे राज्य के भाई को क्षेत्रवाद पे बांटा या बाँट के राजनीति की? जबकि मुंबई से कहीं ज्यादा दूसरे राज्यों के भाई-बहन, इन खापों के प्रभाव क्षेत्रों में आ के रोजी-रोटी कमाते हैं और यहीं बसते भी हैं| फिर इनपे कोई कैसे राजनितिक होने का इल्जाम लगा सकता है?
बजाय सामाजिक मुद्दों को सार्वजनिक देखने के, सिर्फ एक व्यक्ति के बयान को ले के पूरी सामाजिक संस्था और विचारधारा विशेष को कटघरे में खींचनें वाले, जवाब देना चाहेंगे इसपे? जिसको देखो खापों के पीछे पड़ा है, सामने आती बिल्ली को देख जैसे कबूतर आँखे मूँद लेता है सब ऐसे आँखे मूँद बैठे हैं|
खापों जैसी विचारधारा में सकरात्मक क्या है इसपे किसी का ध्यान नही:
- खापें वो हैं जो धरती माँ की तरह विशाल हैं| जो खेतों में काम करके तुम्हारा पेट पालती आई हैं, तन ढंकती आई हैं| और आज भी इस जिम्मेदारी को सबसे आगे खड़ी हो बड़ी सिद्दत से निभा रही हैं|
जबकि वो जातियां जिनको कि आज से तीस साल पहले डेड़-दो एकड़ जमीन सरकार ने खेती कर किसान बनने को दी थी वो सब उन्हीं जमीनों को बेच मैदान छोड़ भाग चुके हैं? क्या कोई मीडिया जा के देखेगा कि उस बंदर-बाँट का क्या हुआ?
- और स्वाभिमानी इतनी कि अपनी सुरक्षा के लिए किसी गरीब-लाचार की तरह किसी राजा का मुंह नहीं ताका बल्कि अपनी खुद कि सेनायें बना के रखी और उल्टा ऐसे राजाओं को गद्दियों से उतार फेंका जिन्होंने नपुंसकता या कार्यहीनता दिखाई| चाहे वो राजा फिर इन्ही की जाति या वंश के क्यों ना हुए|
- विधवा विवाह को सबसे पहले इन्होने अपनाया|
- कभी सुना है कि फलां हिन्दू राजा के पास सेना में महिला टुकड़ियाँ होती थी? जबकि हिन्दू खापों की सेना में बाकायदा महिला टुकड़ियाँ होती थी|
- उत्तर भारत के दिल्ली के चारों ओर के 300 किलोमीटर की रेडियस में हर 10 कोष पे खंडहर की हालत में जा चुके जितने भी गुरुकुल दीखते हैं वो सब इन्ही के खड़े किये हुए हैं|
- इनकी एक-एक सेना में इतने सैनिक होते थे कि उस वक्त की सिखों की सेना जितनी तो इनकी एक-एक खाप की सेना होती थी और बावजूद उसके भी कभी किसी खाप सेना के नायक ने अपने आपको गुरु या भगवान् नहीं कहलवाया और ना ही कहलवाना कभी स्वीकारा, जैसे कि दूसरे धर्मों में हैं| ये चाहते तो अपना गुणगान बड़े-बड़े अक्षरों में करवा सकते थे, पर धरती के सच्चे पूतों ने धरती से बड़ा कुछ नहीं माना| कभी अपने लिए मंदिर-गुरुद्वारे नहीं बनवाये, बनवाये तो केवल शिक्षण संस्थान, कन्या गुरुकुल और वो भी सभी जातियों के लिए| और जैसा कि लेख के प्रथम पहरे में भी कहा, इसीलिए यह एक विचारधारा कहलाई, संस्था या संगठन नहीं|
- इनपे दलित विरोधी होने वालों से ये पूछना चाहता हूँ कि वो यह क्यों भूल जाते हैं कि इनकी सेनाओं में हर दलित जाति के भी सैनिक होते थे और सिर्फ इतना ही नहीं उन सैनिको को पालने का, प्रोत्साहित करने का जिम्मा भी इनका खुद का था| फिर चाहे वो उनके खाने-पीने का ख्याल रखने का रहा हो या उनकी सेहत का, सब ये खाप वाले लोग अपने खर्च पे उठाते थे| क्या सुना है कभी किसी राजा-रजवाड़े की सेना में दलित सैनिक थे? पर इन खापों की सेना में थे| और मेरे गाँव का प्राचीन काल का "निडाना प्रोटेक्सन फोर्स - पहलवान दस्ता" का दस्ता इसका सबसे बड़ा उदहारण है|
- समाज में खापों की उपयोगिता पे सवाल उठाने वाले, यहाँ पढ़ें: खापों के समय-समय पर समाज हित में लिए जाते रहे फैसले और यहाँ पढ़ें और यहाँ पढ़ें और यहाँ पढ़ें
- खापों की बातों से करंट खाने वाले, खापों के उन प्रस्तावों को भी देखो जिनमें वो हर साल समाज हित में "दहेज़ ना लो ना दो", "ब्याह-शादियों में खर्चे कम करो" जैसे सुझाव समाज के समक्ष रखते रहते हैं? अगर इनकी बातों का समाज और मीडिया पे इतना ही प्रभाव पड़ता है तो अब तक तो देश-समाज से ये दहेज़ और दिखावे के दानव खत्म हो जाने चाहिए थे, नहीं? वो इसलिए नहीं क्योंकि इनकी इन सकारात्मकताओं पर इतना गंभीर हो के कोई बोलता ही नहीं कि इनकी यह विचारधारा समाज में जन-जन तक पहुंचे|
- ये वही खापों के लोग थे जिनकी सिरसा से ले दिल्ली तक की पट्टी पे 1947 के भारत विभाजन के वक्त सबसे ज्यादा पाकिस्तानी पंजाबी भाई आके बसे थे| इतने तो खुद आज के दिन पंजाब कहलवाने राज्य में भी नहीं बसाए गए, जितने इन खापों के हरियाणा के हर गाँव और शहर में बसाए गए और इन लोगों ने इनको तहे दिल से गले लगा इनका स्वागत किया था? चाहे तो आज की युवा पीढ़ी पूछ सकती है अपने बुजुर्गों से कि कैसे खाप की जनता ने उनकी यहाँ बसने में मदद की थी|
फिर भी जिसको देखो इनके सर पे चढ़ के बैठता है| अभी हरयाणा में ताजे हुए बलात्कार कें मामलों पर आये इनके ब्यान पे मीडिया इनके सर पे नाच रहा है उसको ले के मुझे यह लेख लिखना पड़ा| खापों के ब्यान को तूल देने जैसा कुछ था ही नहीं और वो क्यों नहीं था वो मेरे
इस लेख पे क्लिक करके पढ़ लीजिये|
अंत में यही कहूँगा कि अगर इनसे कोई गलत सुझाव हो भी जाता है तो कृपया इनके लिए वो आदर बना के रखिये जिसकी आप इनसे अपेक्षा रखती हैं या रखते हैं| और मुझे हर वो खाप पे कूदने वाले से मेरे ऊपर उठाये सवालों पे जवाब की दरकार रहेगी, कि
भारत में सबसे बड़ा तालिबान कहाँ है, कौन है, शहरों में या गाओं में, धर्मों में या जातिगत संस्थाओं में? या तो यह स्वीकारा जाए कि समाज में जातिगत-सामाजिक संस्थागत आक्षेप नहीं होंगे और हर समस्या को समस्या देख के हल किया जायेगा, समस्या को जातिगत-संस्थागत आलोचना के लिए प्रयोग नहीं किया जायेगा या फिर ये समाज को सुधारने वाले ऐसे ठेकेदार अपने आपको महान समझने की भूल में ना बैठें|
अपील: या तो पंचकुला वाले साहनी साहब और वो जज जो खापों को असवैंधानिक बता प्रतिबंधित करने की बात करते हैं, वो मुझे ऐसा समाज दिखाएँ जो उनके ही द्वारा उठाई गई त्रुटियों
(उनसे अलग जो उनके समाज में हैं उनको भी अगर मिला लो तो बात बिलकुल ही असम्भव सी लगेगी, जो कि मैं उनके समाज को धारण करने की सूरत में जरूर देखना चाहूँगा क्योंकि अगर मैं उनके द्वारा बुरी ठहराई गई किसी चीज को छोड़, उनकी को अपनाऊंगा तो यह अपनाने से पहले यह तो सुनिश्चित करना ही चाहूँगा कि मैं कुँए से निकल खाई में तो नहीं गिरने जा रहा|) से रहित हों और मैं खाप-समाज को छोड़ उनको अपनाऊं अन्यथा इतने सभ्य होते हुए भी यह सांप्रदायिकता का जहर अन्यथा जगह उगलें, और अपने आपको समाजसुधारक और चिंतक दिखने हेतु मेरी खापों को प्रयोगशाला समझना बंद करें|
विशेष: इस लेख को पढने के बाद अगर कोई यह कहे कि यह तो दूसरे पे कीचड़ उछालना हुआ तो मैं उनसे निवेदन करूँगा कि इसको कीचड़ उछालना न समझा जाए बल्कि मैंने जो एक सामाजिक मुद्दे पे एक समूह या विचारधारा विशेष को निशाना बनाते हैं, उनसे ये प्रश्न किये हैं| आज से पहले मैंने इन विषयों पर इस दृष्टि से कभी नहीं सोचा परन्तु कुछ मीडिया और NGOs द्वारा एक सामाजिक समूह और संस्था विशेष पे निंरतर उगले जाने वाले जहर ने मुझे इन प्रश्नों के साथ ला खड़ा किया|