माना कि मृणाल जी का हिन्दी भाषा पर बहुत अधिकार है और संप्रेषण सशक्त है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि एक वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार होने के नाते उन्हें सभी विषयों की भी समुचित जानकारी और अच्छी समझ हो जो कि आमतौर पर विशेष ज्ञान की मांग करते हैं जैसे कि कूटनीति, विदेश सम्बन्ध और इनसे बहुत गहराई से जुडी देश की सामरिक और सुरक्षा की जरूरतें जिसमें भारतीय सशस्त्र सेनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका की कभी अनदेखी नहीं की जा सकती.
दैनिक भास्कर के २३ जुलाई २०१४ के अंक में प्रकाशित प्रमुख लेख 'प्रथम विश्व युद्ध हमारा वीर पर्व नहीं' के माध्यम से वे यह प्रेषित करना चाहती हैं कि भारत के औपनिवेशिक वजूद की वजह से ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भरती होकर जिन भारतीय सैनिकों ने यूरोप, अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लिया, वीरोचित कर्म किया, वीर गति पाई और जर्मनी एवं इटली के सैनिकों को नाकों चने चबवाये, वह समूचा कर्म हमारे लिये आज के सन्दर्भ में कतई गर्व करने लायक नहीं है. दूसरे विश्व युद्ध में इसी भूमिका में रहे भारतीय फौजियों ने जर्मन फौजियों को धूल चटा दी थी और जनरल रोमेल तक को अहसास करा दिया था कि भारतीय फौजिओं से टक्कर लेना ही बड़ा मुश्किल काम है, उन्हें जीतना तो ख्वाब जैसा. जनरल मिंटगुमरी ने जो कहा था वह तो इतिहास बन गया है.
सवाल यह है कि यदि इंग्लैण्ड, जीत के किसी विगत अध्याय को एक पर्व के रूप में मनाते हुये भारतीय फौजियों के योगदान को आदर से स्मरण कर रहा है तो यह भारत के लिये अपमानजनक और यहाँ के कुछ लोगों की बर्दाश्त से बाहर का वाकया क्यों बन गया है? मुझे नहीं लगता कि मृणाल जी के परिवार में दूर-दूर तक भी किसी ने फौज में सेवा दी होगी, और यदि दी होगी तो उसने या उन्होंनें किसी भीषण युद्ध में सक्रिय तौर पर हिस्सा लिया होगा. मुझे संदेह है कि मृणाल जी ने आज तक किसी फ़ौजी छावनी को भीतर जाकर निकट से देखने की कोशिश भी नहीं की होगी.
वीर कर्म किसी दूसरे के लिये भी और स्वयं के लिये भी किया जा सकता है. क्या दोनों ही महायुद्धों में अंग्रेज़ लोग पीछे रहे और केवल भारतीय सैनिकों को ही उन्होंनें अग्रिम मोर्चों पर युद्ध की आग में झोंक दिया था? भारत के सैनिकों ने प्रथम और द्वितीय महायुद्ध अपने लिये -संभवतः भविष्य में, लडे थे.
यदि कोई बंधु विज्ञान कथाओं से परिचित है तो मेरा आशय समझ लेगा. विश्व में अधिकतर देशों और सभ्यताओं की परम्पराओं में किसी सैनिक की हिस्सेदारी सिर्फ जाति, धर्म और देश के लिये होती है. इस मामले में भारतीय फौजियों ने न तो अपनी और न ही अपनी जाति, धर्म और देश की कहीं, और कभी, निंदा होने दी हो. प्रथम विश्व युद्ध में पंजाब और हरियाणा के जवानों के किस्से तो लोक गीतों का हिस्सा भी बन चुके हैं.
इन युद्धों में मुख्य तौर पर जाट, सिख जट और मुसलमान हो गये राजपूत अर्थात रांघड सैनिकों की प्रमुख भूमिका रही थी. ऐसा नहीं था कि सीधे-सादे जाट और रांघड सैनिकों का किसी प्रकार से ब्रेन वाश किया गया था लेकिन
चौधरी छोटू राम जैसे चतुर और दूरदर्शी नेताओं ने यह जान लिया था कि
यह अंग्रेजों की नहीं अपितु भारत के सुरक्षित भविष्य के लिये युद्ध है. न कि गुलामी की मानसिकता में जकड़े हुये 'असमर्थ' लोगों की मजबूरी.
उन फौजियों में से शायद ही कोई सूबेदार के रैंक से ऊपर रहा होगा लेकिन महायुद्धों की समाप्ति पर जब यूनिटों को 'डिसबैंड' किया जाने लगा तो इन्हें 'ऑनरेरी कैप्टन' के पद से मुक्त किया गया और पेंशन भी दी गयी थी. अनेकों को युद्ध जागीरों से नवाजा गया था. पूरी इज्ज़त से इन्हें विदा किया गया था. इनकी हिस्सेदारी के एवज़ में केवल कागज़ात के चंद टुकडे, युद्ध मैडल और स्मारकों पर इनके नाम ही नहीं अंकित किये गये थे और न ही 'वार मेमोरियल' के बतौर नयी दिल्ली में राजपथ पर 'इंडिया गेट' जैसे स्मारक के निर्माण को ही अंत माना गया था. देशी रजवाड़ों की कमजोरी के कारण हमारी 'नेटिव' अर्मीज़ कभी भी अच्छी तरह प्रशिक्षित और 'लौज़िस्तिकली' मजबूत नहीं रही. ये देशी फौजें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश इंडियन आर्मी का मुकाबला नहीं कर सकी थी.
मुझे नहीं लगता कि मृणाल जी ने वैसी कोई किताब पढी होगी जिसमें तब के संयुक्त पंजाब प्रांत के उन फौजियों के बारे में, जो कि ज्यादातर किसान परिवारों से आये थे और जिनमें पंजाब के योगदान के बारे में तथ्यों समेत, विस्तार से जानकारी दी गयी हो. वैसे आजकल एलीट वर्ग के कुछ ऊंचे पढ़ गये लोगों में 'कॉलोनियल स्टडीज़' को लेकर एक प्रतिस्पर्द्धा और फैशन का चलन हो गया है जिसके सबसे बड़े केंद्र पुणे का डेक्कन कॉलेज और नयी दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय हो गये हैं. इनमें चाहे भारत की लोकधारा हो, विज्ञान इतिहास हो अथवा कृषि हो, अधिकतर विषयों पर शोध को बढ़ावा इसलिये |
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The Dom Hospital in Brighton, which had 680 beds for wounded Indian soldiers Photo Source |
दिया जा रहा है कि एक तो विषयों में विविधता लाने में हम लोग असमर्थ हो गये हैं और दूसरा इससे विदेश, खासतौर से इंग्लैण्ड, भ्रमण के अवसर उपलब्ध होते हैं जहां ब्रिटिश इंडियन एम्पायर से सम्बंधित दस्तावेजों को ब्रिटिश लाईब्रेरी, ब्रिटिश म्यूजियम और नेशनल अर्काईव्स में बड़ी सार संभाल से सुरक्षित किया गया है. ऐसे अध्ययनों को विगत एम्पायर कहे जाने वाले देशों से आजकल मुक्त हस्त से आर्थिक मदद भी इसलिये मिल रही है कि कहीं नये देश इतिहास की अपनी पुस्तकों से ही इन्हें अलविदा न कर दें. इस सिलसिले में मेरे कुछ प्रश्नों के उत्तर सीधे तौर पर तो शायद ही मिल पायें.
मेरे कुछ प्रश्न और तथ्य इस प्रकार हैं जिनके उत्तर अपेक्षित हैं:
- देशी रजवाड़ों के क्षेत्र को ब्रिटिश शासित क्षेत्रों में शामिल करने के बाद उनके सैनिकों को यदि ब्रिटिश लोग अपनी सेना में शामिल न करते तो क्या वही हश्र नहीं होता जो सिरजी अंजन गांव में मराठों की हार के बाद मराठा सैनिकों के साथ हुआ था. अर्थात उनमें से अनेक पिंडारी बन गये जिनका कि बाद में दमन हुआ.
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यदि अंग्रेज़ लोग छावनियों का कांसेप्ट लेकर न आते और सैनिकों को सतत सक्रिय भूमिका में न रखते तो क्या यह संभव था कि आजादी के एन वक़्त पर हमारे पास एक प्रशिक्षित और सशक्त सैन्य बल होता.
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यदि हमारे पास उक्त सेना न होती तो क्या हम पाकिस्तान द्वारा अचानक ही सन १९४७ में कश्मीर पर किये गये हमले को मुंहतोड़ जवाब दे पाते.
विख्यात इतिहासविद आचार्य कृपाल चन्द्र यादव से इस लेख की बाबत तब मैनें चर्चा की तो वे खासे खफा थे.
मुझे नहीं लगता कि जंग में हिस्सा लेने वाले पंजाब के उन परिवारों के लिये उक्त युद्ध में काम आये अपने सैनिकों के जुझारूपन और वीर कर्म का स्मरण करना कोई पाप या अपराध है और इसमें मृणाल जी को ऐसा क्या लगा कि यह गोई गर्व करने लायक बात भी उन्हें नहीं लगी.
प्रथम व् द्वितीय विश्वयुद्धों में जाट-रेजिमेंट की टुकड़ियों के कुछ छाया-पल:
- The Indian sepoy in the First World War
- Photographs of Jat plus European soldiers on European fronts during First World War
उस आर्टिकल की प्रतिकापी जिसके मद्देनजर यह लेख लिखा गया: