भूमिका: "असहयोग आंदोलन" शब्द फैशनेबल तो है ही बड़ा कारगर भी है| इसलिए इसके इतिहास, परिभाषा, महत्व और उपयोगिता पर फ़िलहाल ज्यादा ना जाते हुए, इस मेथड की आज के किसान की समस्याओं के निबटारे हेतु कितनी सख्त जरूरत आन पड़ी है, सीधा उसपे आऊंगा| कई बंधुओं-दोस्तों-जानकारों से सुनने को मिल रहा है कि कुछ भी हो जाए वो संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को पास नहीं होने देंगे, फिर चाहे उसके लिए रोड जाम करने पड़ें, अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकना पड़े या अनंत धरने देने पड़ें| और कुछ ऐसे ही हालात हरियाणा में यूरिया खाद की किल्ल्त को ले के बने हुए हैं| सरकार तो सरकार, सरकार के बाहर भी राजनैतिक पार्टियां, सामाजिक संस्थाएं अथवा एन. जी. ओ. सब चुप्पी साधे बैठे हैं|
इन सबके बीच मुझे एक चीज नजर आई कि किसानों की मांगों, दुखों और आवाजों को सरकार तक पहुँचाने का सबसे सकारात्मक व् असरदार जरिया ‘सड़कों पर उतर कर विरोध करना’ रहेगा अथवा ‘असहयोग आंदोलन’ के रास्ते चल के समाज-सरकार को चलाने में अपनी भूमिका दिखाना होगा| गहन मंथन से जो समझ आता है वो है,
“किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन”|
असहयोग आंदोलन ही सबसे कारगर हथियार क्यों?:
जो किसान भाई, किसान का युवा या किसान का शुभचिंतक हिंसात्मक अथवा रोड-रेल या दिल्ली जाम करने के तरीकों से इस बिल को रोकने या मुड़वाने की अथवा किसानों की यूरिया की किल्ल्त मिटाने की सोचता हो वह यह जान ले कि जो सरकार 2013 के बिल को मोड़ के आर्डिनेंस के जरिये 1894 से भी कड़ा बिल लाने का हठ कर सकती है, उसको आप लोगों पर लाठियां-डंडे बरसाने में कितनी देर लगेगी और ऐसा करने में सरकार को कितनी हिचकिचाहट होगी| अवश्य ही इस सरकार को ना ही तो विदेशी शासक कह सकते और ना ही विदेशी आक्रांता, क्योंकि भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है| लेकिन वर्तमान में किसान के जो हालात हो चले हैं अथवा होते दिख रहे हैं इतिहास में इस सरकार की तुलना अंग्रेजों और मुग़लों के काल से भी पहले दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग और सातवीं सदी के राजा दाहिर की विचारधारा वाले लोगों के काल से से करूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी; क्योंकि वो भी पूर्णत: स्वदेशी राजा थे और वर्तमान सरकार भी पूर्णत: स्वदेशी है|
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस सरकार को वही
"ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को" वाली 1300 साल पुरानी परिपाटी पकड़ने में आज़ादी के बाद महज 70 साल भी नहीं लगे
(और इनके अनुसार की पूर्ण रूप से स्वदेशी सत्ता प्राप्ति के हिसाब से कहूँ तो 7 महीने भी नहीं लगे)| पुष्यमित्र सुंग दूसरी सदी में हुए, इसलिए उनसे आगे वाले राजा दाहिर
(661 AD से 712 AD) के काल से गिनूँ तो ठीक 1300 साल हुए हैं
(इस बीच मुग़ल भी आये और अंग्रेज भी), ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इन हमारे शुद्ध भारतीयता की टैग यानी खुद वालों ने इस गुलामी के काल से कुछ नहीं सीखा| क्योंकि ठीक वैसे ही जैसे दाहिर और पुष्यमित्र ने कुछ विशेष लोगों को खुश रखने/करने व् अपनी रक्त-पिपासा शांत करने हेतु अपने ही लोग मारे-काटे-सताए थे, उसी मूड में भारत देश की वर्तमान सरकार दिख रही है| मुझे कहने में बिलकुल हिचक नही हो रही कि 712 ईस्वी में राजा दाहिर का काल यह सरकार फिर से लाने पर आमादा हुई खड़ी है जिसको और कुछ ना मिले तो अपनी ही प्रजा पे जुल्मों का पहाड़ तोड़, उनके शरीर से खून निकालने में मजा आता दिख रहा है| और इसका अंदाजा इस बात से और भी पुख्ता हो जाता है कि आते ही पहले आत्महत्या को अपराध बताने वाली धारा 309 को हटाया गया है|
बुद्धजीवियों, विचारकों, संतों-महंतों से भरी इस सरकार में क्या कोई सरकार को सलाह देने वाला नहीं कि पुष्यमित्र सुंग और दाहिर के नक़्शे-कदम पर चलने से फिर से अराजकता, उत्पीड़न, गुलामी पाँव पसार लेगी, जिससे कि अशांति और आक्रोश पनपेगा? क्या सरकार को कोई यह आइना दिखाने वाला नहीं कि आज जिस जाति-पाति की पुरानी फूट का हवाला दे उसको हमारी सदियों पुरानी गुलामी का कारण बताया जाता है, उसी फूट और घृणा के बीज फिर से अंकुरित हो रहे हैं, अथवा आपके तौर-तरीके उसके अंकुरण का कारण बन रहे हैं; वही जो ऊपर कही थी कि, "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को न जाने को"। कहने को हर तरह की राष्ट्र की, धर्म तक की एकता और बराबरी का हवाला उठाते हो और फिर इतना बड़ा जुल्म भी करते हो कि "एक ही हांडी में दो पेट"? यानी कल को अगर प्रस्तावित अध्यादेश पास होता है तो एक वर्ग को तो इतनी छूट कि उसको दूसरे वर्ग की जमीन लेने हेतु उसकी इजाजत भी ना लेनी पड़े और उधर दूसरा वर्ग इतना लाचार बना दिया कि वो अपनी मन-मर्जी से अपनी जमीन को अपना कहने का अहसास सिर्फ इस डर से खो दे कि क्या पता कल कौन प्राइवेट स्कूल या हॉस्पिटल (सरकारी कार्यों, देश के व्यापक कार्यों के लिए तो सरकार खुद सौ बार जमीन ले परन्तु अब प्राइवेट भी; तो फिर इन प्राइवेटों और अंग्रेजों-मुग़लों वाले प्राइवेटों में फर्क क्या छोड़ा सरकार जी आपने?) तक खोलने वाला आन खड़ा हो कोर्ट का परचा हाथ में लिए? और उसका तो इस आर्डिनेंस के पास होने से इतना पक्का बंदोबस्त और बंध जायेगा कि न्यूनतम पांच साल तो कोर्टों में अपील भी नहीं डलेगी| क्या वाकई यही वो भारत था जिसमें आप जाति-पाँति मिटा "एकता और बराबरी" की बात करते आ रहे थे? क्या यह सीधा-सीधा भारतीय सविंधान के विरुद्ध जा, उन करोड़ों लोगों के आत्मसम्मान-प्रतिष्ठा का सामूहिक बलात्कार नहीं, जिनको कि भारतीय संविधान बराबर के आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा की सोच देता है?
धारा 309 के हटाये जाने और "संसोधित भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस" से इतना तो सबको समझ आ ही जाना चाहिए कि वर्तमान सरकार को इसकी जनता कितनी प्यारी है कि जिस जान-माल की रक्षा हेतु आप सरकार को चुना गया है, उसमें कोई आत्महत्या भी कर ले तो आप सरकार को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा? तो ऐसे में किसानों के लिए सोचने की बात है कि अगर आप लोग सड़कों पर उतरे तो आप लोगों पर पुलिस के डंडे खिलवाने से भी सरकार को कोई परहेज नहीं होगा, अपितु जिनको खुश करने हेतु यह सब किया जा रहा है उनको तो किसानों को पीटते देख घी और घलेगा|
रेल-रोड जाम करने से सरकार को नहीं पड़ेगा कोई फर्क: मुज़फ्फरनगर दंगे में आज भी दो हजार के करीब किसानी जातियों के बच्चे जेलों में हैं; कब तक बाहर आएंगे उस बारे ना सरकारें कुछ कहती हैं और ना ही वो धर्म के ठेकेदार जिनके नाम पर तथाकथित धर्मरक्षक बन इन बच्चों ने कानून अपने हाथ में लिया| जब धर्म का मामला होते हुए ही एक धर्मप्रेमी सरकार ने उनकी तरफ आजतक मुड़ कर नहीं देखा तो ऐसे में यह उम्मीद की जानी कि इस बिल के मुद्दे को ले के अगर किसान रेल-रोड जाम करते हैं तो यह सरकार वापिस मुड़ जाएगी, बड़ा संदेहास्पद लगता है| यह व्यापारिक मति की सरकार है, इसको व्यापारिक नफे-नुक्सान की परिभाषा ही समझ आ सकती है| इसलिए किसान असहयोग आंदोलन चला के व्यापारियों को अपनी ताकत का अहसास करवा के ही इस अध्यादेश को यूँ-का-यूँ वापिस मुड़वा सकते हैं| हालाँकि ऐसा नहीं है कि इस तरीके से आंदोलन करने से कोई जेल नहीं जायेगा, परन्तु इससे दो चीजें तो जरूर होंगी, एक तो कम से कम लोग जेल जायेंगे और दूसरा सरकार को एक असरदार संदेश जायेगा|
अत: इन कारणों की वजह से मैं नहीं मानता कि सरकार धरने-प्रदर्शनों से किसी की सुनने वाली है| अपितु पहले से फसलों के कम दाम, यूरिया की कमी, महंगाई, बिजली-पानी की किल्ल्त से जूझते किसान लोगों पर इस तरह के धरने सिर्फ अतिरिक्त बोझ ही डालेंगे| इसलिए मेरे विचार से एक ऐसा रास्ता है जो ना सिर्फ किसान का आर्थिक सहयोग करेगा अपितु सरकार को इस बिल को वापिस लेने में और यूरिया के नाम पर थानों में अपराधियों की तरह लाइन-हाजिर किये जा रहे किसानों की पीड़ा सुनाने में भी कारगर सिद्ध होगा वह है,
“किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन”|
इससे आगे के भाग में तकनीकी तौर पर चार बातें समझने की कोशिश की जाएगी; पहली इस आंदोलन की परिभाषा, दूसरी यह संसोधित भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस/बिल वापिस करवाना जरूरी क्यों है, तीसरी इस आंदोलन की रूपरेखा, चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का युवा क्या करे|
1 इस असहयोग आंदोलन की परिभाषा: किसानों द्वारा व्यापारियों की दुकानों, फैक्टरियों से एक निर्धारित समय तक
(जैसे कि एक महीने के लिए अथवा जब तक सरकार इस आर्डिनेंस को रद्द ना कर दे), कोई भी सामान खरीदने का बहिष्कार| कोई भी किसान का बेटा-बेटी व्यापारियों की दुकानों/शॉपिंग मालों से ना किरयाना का कोई सामान खरीदे, ना कोई मशीनरी खरीदे, ना ज्वैलरी खरीदे और ना बर्तन-कपड़ा-लत्ता खरीदे| यह आंदोलन एक राज्य से शुरू करके पूरे देश में जितना हो सके उतना फैलाया जाए और तब तक चलाया जाए जब तक सरकार ना सिर्फ इस अध्यादेश को रद्द कर दे अपितु भविष्य में ऐसे दुःस्वप्न की दोबारा ना सोचे| और ना ही ऐसी परिस्थिति बनाये या बनने दे कि यूरिया खाद लेने हेतु किसानों को किसी अपराधी की तरह थानों में लाइन-हाजिर होना पड़े|
2 यह आर्डिनेंस/बिल वापिस करवाना जरूरी क्यों?
- यह आर्डिनेंस भारतीय सविंधान की article 300a व् article 14 का उलंघन करता है: Article 300a देश के हर नागरिक को जायदाद-सम्पत्ति रखने का, उसको अपने मनमुताबिक बेचने-खरीदने का हक देती हैं (सिवाय सरकारी व् देश व्यापी कार्यों हेतु सिर्फ सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण करने के, वो भी 80% किसान की सहमति से)| तो सरकार प्राइवेटों के लिए इस अधिकार को करोड़ों किसानों से कैसे छीन सकती है? ऐसा करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, इसलिए इस अध्यादेश का विरोध करने का मतलब अपने संविधान की रक्षा करना है|
हमारा संविधान कहता है कि देश के हर नागरिक के आत्म-सम्मान, प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा करना हर चुनी हुई सरकार का पहला मूल कर्तव्य होगा| और धन-सम्पत्ति-जमीन-जायदाद हर इंसान के गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक होता है| एक आदमी पूरी जिंदगी लगा देता है एक एकड़ जमीन, घर में जोड़ने में और अगर उसी जमीन को कोई प्राइवेट वाला कोडियों के भाव ले जायेगा तो किसान के जीवन का फिर औचित्य ही क्या बचता है? उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहाँ बचती है?
Article 14 कहता है कि देश का हर नागरिक बराबर है, जबकि सरकार एक तरफ तो किसान को सम्पत्ति पर से हटा रही है और दूसरे को किसान की मर्जी के बिना उसके खुद के प्राइवेट कारोबार तक के लिए जमीन देने को कह रही है; तो इसमें संविधान की आत्मा कहाँ रही? इस प्रकार यह अध्यादेश हमारे संविधान की मूलधारा का खंडन करता है| और इन वजहों से सुप्रीम कोर्ट तक में अपील भी डाली जा सकती है| बाकी कोई भी वकील अथवा कानूनज्ञाता भाई-बंधू-सर इन बिन्दुओं की व्यवहारिकता पर और प्रकाश डाल सकता है|
- इंफ्रास्ट्रक्चर-व्यापार और खेती एक कंप्यूटर के क्रमश हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर हैं: यानी पहले वाला हार्ड बिज़नेस और दूसरे वाला सॉफ्ट बिज़नेस| हार्ड बिज़नेस यानी कंक्रीट-लोहे वगैरह के भवनों/फैक्टरियों में छत के नीचे होने वाले इंसान की सेकेंडरी जरूरतें पूरी करने वाले कारोबार, जैसे कि इंफ्रास्ट्रक्चर-व्यापार| सॉफ्ट बिज़नेस यानी अनाज-दूध-दाल-कपास-गन्ना आदि से इंसान के सॉफ्ट पेट को भरने वाले, खुले आसमान वाली खेतों रुपी फैक्ट्री में किसान द्वारा बनाये जाने वाले प्राइमरी प्रोडक्ट्स| काम दोनों ही डेवलपमेंट का करते हैं, एक प्राइमरी डेवलपमेंट यानी पेट की डेवलपमेंट, उस दिमाग की डेवलपमेंट जो सेकेंडरी जरूरतों हेतु सोचने बारे जरूरी दिमाग और शारीरिक ताकत देता है और दूसरा सेकेंडरी जरूरतें जैसे विलासिता आदि| तो अगर बात सेकेंडरी डेवलपमेंट और तरक्की की है तो यह बिना प्राइमरी प्रोडक्ट के सम्भव ही नहीं| और फिर हमारी सरकार की परिभाषा में "शुद्ध मेक इन इंडिया" तो यही प्राइमरी यानी खेती के प्रोडक्ट्स हैं| तो सरकार के "मेक इन इंडिया" में इनकी जगह कहाँ? तो यह किसानों की फैक्ट्री रुपी जमीनों की उनकी मर्जी के बिना अधिग्रहण क्यों और कैसे जरूरी है?
- इस बिल से समाज में अराजकता व् कुंठा पसरेगी: इस आर्डिनेंस के बिल बन जाने के बाद प्राइवेटों को विकास के नाम पर किसी की भी जमीन हड़पने के मार्ग खुलेंगे| इससे दम्भी किस्म के अपराध पनपेंगे| किसी भी व्यापारी या राजनैतिक व्यक्ति को किसान या किसान के बच्चे से थोड़ी सी खुन्नस हुई नहीं कि जा बैठेगा किसान की जमीन पे कुंडली मार के| इससे किसान को जिंदगी का हर पल सालता रहेगा कि वह किसी की रहमत का मोहताज है, एक स्वछंद व् स्वतंत्र नागरिक नहीं| और इससे सिवाय अराजकता फैलने के समाज में कुछ भला नहीं होगा| इस प्रकार सबसे बड़ा असामाजिक व् अवांछित बिखराव समाज में डलेगा, जिससे समाज में अशांति, असंतुष्टि और कुंठा के अलावा सरकार व् देश को कुछ नहीं मिलेगा|
- Maslow Theory of Need says that after Physiological needs, a person require social safety, love and belongingness. और किसी चीज पे अपनी मर्जी और सहमति होना ही अपनापन (बिलोंगिंगनेस) कहलाता है, लेकिन अगर किसान की यह बिलोंगिंगनेस ही छिन जाएगी तो वह खाली हाड-मॉस का मुर्दा पुतला शेष रह जायेगा| उसमें कोई इच्छा नहीं होगी, प्राण नहीं होंगे, वो सिर्फ एक गुलाम की जिंदगी जीने को विवश होगा, वैसा ही गुलाम जैसे पुष्यमित्र सुंग और दाहिर ने उनके ही धर्म के लोग उनके राज में बना दिए थे| और फिर उनको उनकी करतूतों की ऐसी हाय लगी कि देश को 1000 सालों तक की गुलामी झेलनी पड़ी|
- किसान और व्यापारिक वर्ग के बच्चों में बढ़ेंगी दूरियां: शहरों में बसी किसान जातियों और व्यापारिक जातियों के बच्चों में सीधे और अंदरखाते दोनों तरह के मतभेद बढ़ेंगे| भले ही किसान वर्ग का कुछ नौकरीपेशा व् शिक्षित तबका शहर में बसे हों, परन्तु पीछे गाँवों में उनकी जमीन-जायदादें भी उनकी प्रतिष्ठा-गौरव का अभिन्न अंग होती हैं| तो इस आर्डिनेंस के बिल के रूप में आने से आगे आने वाली पीढ़ियों में द्वेष इस कद्र फ़ैल जायेगा कि व्यापारिक जातियों के बच्चे शायद ही किसानी जातियों के बच्चों को अपने बराबर का दर्ज देवें| अपितु ऐसी कहावतें और ताने भी चलन में आ जायेंगे कि एक व्यापारी जाति का बच्चा एक किसान के बच्चे को "गुलाम", "बेगार", "लाचार" तक कहने से परहेज नहीं करेगा और इससे आये दिन झगड़े होंगे, मनमुटाव होंगे, समाज में बिखराव होंगे|
इस तरह इस आर्डिनेंस के बिल बनने की सूरत में नागरिक के सवैंधानिक अधिकारों और सामाजिक अधिकारों व् सरोकारों पर हमला होने का खतरा है| यह बिल अगर वास्तव में धरातल पर आया तो आने वाले समय में बहुत ही भयावह संकट समाज के एक बना रहने के मार्ग में खड़ा कर देगा| इसलिए समाज को अराजकता, असमता, विषमता और टूटने से बचाना है तो इस आर्डिनेंस के विरोध हेतु यह असहयोग आंदोलन नितांत आवश्यक हो जाता है|
3) आंदोलन की रूपरेखा: ऊपर बताई परिभाषा के अनुरूप इस आंदोलन को करने के चार मुख्य चरण इस प्रकार हो सकते हैं:
- शहर में जा बसे किसान वर्ग को जगाना: शहरी किसनवर्ग को यह बताना कि आप आज भले ही सरकारी, गैर-सरकारी नौकरी अथवा अच्छे जीवनस्तर व् आजीविका हेतु शहर में आन बसे हों और एक तर्कसंगत व् सम्मानजनक जीवनयापन कर रहे हों परन्तु गाँवों-शहरों में खेती-लायक जमीनें आपकी भी हैं| आप उस जमीन की आमदनी लेते हैं और उसको अपनी प्रतिष्ठा का भी एक अभिन्न अंग मानते हैं; इसलिए इस नए आर्डिनेंस को नकारने हेतु अब आपको गाँवों की ओर मुड़ के देखना होगा और अपने भाइयों के साथ मिलकर इस विपदा के समाधान हेतु काम करना होगा| क्या-कैसे करना होगा वो आगे के चरण में लिख रहा हूँ|
- आंदोलन के दौरान शहरी और ग्रामीण किसान समाजों के बीच तालमेल जरूरी: शहरों में बसने वाले किसान तबकों को जागरूक बनाने के पश्चात, गाँव के किसान वर्गों को बताना होगा कि आप अपने शहरी भाइयों के साथ इस असहयोग आंदोलन में पूर्ण सहयोग देवें और उनका पूर्ण सहयोग लेवें| गाँव के किसान इस आंदोलन को कमाई का जरिया ना बनने देवें| यानी यह ना सोचें कि आपके ही शहरी भाई आपके पास यह सामान लेने आ रहे हैं तो उनकी कोई मजबूरी है इसलिए तुम उस मजबूरी का फायदा उठाओ और मनमाफिक दाम वसूलो| नहीं बिलकुल नहीं, इस सूरत से बचने हेतु, दोनों तरफ यह बात स्पष्ट रहे कि शहरी और ग्रामीण किसान वर्ग ऐसा सिर्फ सरकार से इस ऑर्डिनेंस को वापस करवाने हेतु कर रहे हैं|
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शुरू में एक महीने की मियाद पर यह असहयोग आंदोलन खड़ा किया जा सकता है: जब शहरी और ग्रामीण दोनों स्तर पर ऊपर चर्चित तालमेल स्थापित हो जावे तो एक महीने तक ना ही तो शहर की और ना ही गाँव की कोई भी किसान औलाद किसी भी पारम्परिक व्यापारी की दुकान/शोरूम/मॉल से इस आंदोलन की परिभाषा के अनुसार किसी भी तरह का सामान नहीं खरीदेगी| शहरी नौकरीपेशा किसान समाज दूध-सब्जी सीधी अपने किसान भाइयों के खेतों से लावें, या उनसे ही लेवें| यहां तक कि आटा तक पिसवाने हेतु किसी पारम्परिक व्यापारी की आटा-चक्की वाले के यहां ना जावें, या तो घर पे पीस लेवें अन्यथा पीछे अपने गाँव से पिसवा लावें| इससे एक तो व्यापारिक वर्गों को यह अहसास होगा कि आप उनपर नहीं अपितु वो आप पर निर्भर हैं और देश के विकास हेतु सिर्फ वो ही योगदान नहीं देते आप उनसे भी बड़ा योगदान देते हैं| दूसरा जब इस आंदोलन से व्यापारियों की दुकानों पे ग्राहक ही नहीं जायेंगे, यहां तक कि उनकी रसोइयों में दूध-सब्जी तक की किल्ल्त हो जाएगी तो सम्भव है कि वो भी सरकार को यह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापिस करवाने हेतु आपके साथ आंदोलन में उतर आएं| और फिर इस सबका का मिलकर सरकार पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे सरकार अतिशीघ्र इस अध्यादेश को वापिस लेगी|
- आंदोलन की पहली मूल भावना असहयोग है, किसी से हिंसा अथवा मार पीट नहीं: सुनता हूँ कि यह व्यापारियों की सरकार है, तो इसको इस तकनीकी व् व्यापारिक असहयोग के जरिये ज्यादा आसानी व् कम कीमत में मनाया अथवा झुकाया जा सकता है| इनके लिए किसानों का सड़कों पे उतर जाम लगाने अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकने का मतलब होगा, व्यापारियों व् अधिकारीयों द्वारा प्रदर्शन कर रहे व् धरना दे रहे किसानों पर सरकार के जरिये पुलिस कार्यवाही करवाने का बहाना देना| जिससे किसान का समय-संसाधन-ऊर्जा बर्बादी से ले के जान-माल तक नुक्सान होगा, जो कि इतना घातक भी हो सकता है कि किसान को जल्दी से दोबारा आंदोलन खड़ा करने लायक ना छोड़े| इसलिए इस आंदोलन के दौरान कोई भी हिंसात्मक अथवा प्रतीकात्मक क़दमों से किसान को परहेज करना होगा| एक बहुत ही सुनियोजित रणनीति से अनुभवी व् दूरदर्शी लोगों के मार्गदर्शन में फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए ही इस आंदोलन को अंजाम देना होगा|
- किसान की समाजसेवा भावना की गरिमा व् करुणा बनी रहे: लाजिमी सी बात है कि इस आंदोलन के तहत फल-दूध-सब्जी जैसी चीजों का भी किसान व् व्यापारिक जातियों के मध्य एक महीने का अंतराल पड़ेगा तो, बहुत से व्यापारियों (खासकर छोटे व्यापारियों) के घरों में नवजात से ले छोटे बच्चों के लिए दूध-फल की कमी आ सकती है| तो ऐसे में अगर कोई व्यापारी गाँव या किसान की तरफ दूध या फल-सब्जी लेने आता है तो उसको किसान दूध और फल-सब्जी दे देवे; क्योंकि हमारे आंदोलन का मतलब किसी की जान लेना या किसी को तरसाना नहीं अपितु बहरे हो चुके व्यापारियों और इनकी पक्षधर बनती दिख रही सरकार को जगाना है| और वैसे भी किसान धर्म के अनुसार किसान प्रजा का पोषक होता है, शोषक नहीं|
यह सिर्फ इस आंदोलन की मोटी-मोटी रूपरेखा है, कोई किसान समूह, नेता या चिंतक इसको क्रियान्वयन रूप में जमीन पे उतारना चाहे तो उसके लिए इसके अंदर के और गूढ़ व् सफलता के रहस्यों को आपसे साझा करने में मुझे हार्दिक हर्ष होगा|
4 चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का यूथ (youth) क्या करे: -
तमाम किसान वर्ग का जितना भी यूथ सोशल मीडिया पर बैठा है वो इस विचार को जितना हो सके उतना साझा करे, इतना साझा करे कि किसानों के नेताओं, समूहों व् चिंतकों तक यह पहुँच जाए|
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जितना हो सके उतना यूथ इस आंदोलन की व्यवहारिकता पर चर्चा करे, मनन करे व् अपने मनन को साझा करे| ऐसा नहीं है कि इस रूपरेखा में खामियां नहीं हो सकती, इसलिए उन हो सकने वाली खामियों बारे आपस में इन पर चर्चा करे|
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अगर हम लोगों ने इसको सोशल मीडिया का भी आंदोलन बना दिया तो मेरा विश्वास है कि हमारा चर्चा हर वो स्तर व् स्टेज तक जा सकता है जिसकी कि हम शायद कल्पना भी नहीं कर सकते|
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इन बातों को गाँव-गाँव, शहर-शहर हर गली-मुहल्ले-चौपाल तक की चर्चाओं में पहुंचाने का कार्य आप कर सकते हैं, जहाँ कि आंदोलन की मूल बसती है|
इस आंदोलन के जरिये दिखाई ताकत के किसान को होने वाले अन्य दूरगामी लाभ: किसान के सब कुछ चुपचाप स्वीकार कर लेने से, व्यापारिक वर्ग को यह वहम हो गया है कि वो ही इस देश के सर्वेसर्वा व् पालनहार हैं| ऐसे में अगर यह असहयोग आंदोलन हो जाता है तो ना सिर्फ भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस वापिस होगा अपितु किसान इसके बाद खेती के व्यापारीकरण, स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट लागू करवाने, फसलों के विक्रय मूल्य का अधिकार अपने हाथ में लेने व् अन्य तमाम तरह के कृषि सम्बन्धी विकास व् कल्याण के कार्यों को बड़ी आसानी से और कम समय में करवा सकेंगे|
पता नहीं क्यों परन्तु इस लेख का अंत करते वक्त यह पंक्तियाँ अंतर्मन में कोंध रही हैं:
“तैने शेर-बघेरे देखे होंगे री, हम धरती के लाल सां!”
हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!