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!!!......गंभीरतापूर्वक व् सौहार्दपूर्ण तरीके से अपनी राय रखना - बनाना, दूसरों की राय सुनना - बनने देना, दो विचारों के बीच के अंतर को सम्मान देना, असमान विचारों के अंतर भरना ही एक सच्ची हरियाणवी चौपाल की परिभाषा होती आई|......!!!
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असहयोग आंदोलन की घड़ी
आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़ी!


Description
संदर्भ:

28 दिसंबर 2014 को भारत की केंद्र सरकार द्वारा आनन-फानन में लाये गए ‘संसोधित भूमि-अधिग्रहण आर्डिनेंस’ के आगे के विकल्प और असरदार व् सार्थक कदम बारे|


प्रस्तावना:
  1. नया संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस: किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से "सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन” ही नए संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को वापिस करवाने का सबल रास्ता है| इस संकट की घड़ी में किसान व् किसान की युवा संतानों को किसी अन्य प्रकार के वाद जैसे कि "धर्मवाद", "जातिवाद", "वंशवाद", "अपवाद" पर ध्यान देने की बजाय, सिर्फ "बाजारवाद" और "किसानवाद" पर ध्यान देना चाहिए|

  2. यूरिया के लिए किसान महिलाओं तक को रातभर लाईन में खड़े होना पड़ना: अगर किसी व्यापारी या सरकार द्वारा किसान से फसल लेने के लिए उसको मंडी की जगह किसान के दरवाजे पे जाना पड़े, या व्यापारी को कहा जाए कि जाओ थाने से गेहूं/चावल/सब्जी ले लो; तो पहली तो बात कितने व्यापारी ऐसा मानने को तैयार होंगे और दूसरी बात क्या वो इसको उनकी प्रतिष्ठा और मर्यादा का हनन कह के इसका विरोध नहीं करेंगे? जी हाँ, क्या कोई बता सकता है कि कितने व्यापारी ख़ुशी-ख़ुशी थानों के आगे ऐसे ही लाइनें बना के अनाज/सब्जी लेने जा सकते हैं जैसे आज किसान ऐसा करने को तनाये (मजबूर किये) हुए हैं? क्या किसान अपराधी हैं या खेती करना इतना बड़ा अपराध हो गया है या फिर यह यूरिया नहीं, कोई बम बनाने की सामग्री है; जिसकी कि पुलिस द्वारा जाँच-परख करके ही किसानों को दिया जा रहा है?

  3. कहते हैं कि आज भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है; उसमें भी गहन उतर के देखें तो हिन्दुओं द्वारा शुद्ध रूप से हिन्दुओं की सरकार है, और देश के कुल किसानों का 90% से ज्यादा किसान हिन्दू ही बताया जाता है| यह भावनात्मक पहलु यहां मैं इसलिए प्रयोग कर रहा हूँ, इस शब्द की दुहाई इसलिए ले रहा हूँ ताकि हर इस-उस बहाने-मौके हिन्दू की बात करने वालों (सरकारी, गैर-सरकारी, धर्माधीस, व्यापारी या कोई भी) में शायद कोई सच्चा और समर्थ हिन्दू ही उठ के किसान के इस लहू चला देने वाले दर्द को मेट (मिटा सके) दे| क्योंकि यह किसान उसी हिन्दू वर्ग का हिस्सा है जिसकी एकता और बराबरी के नारों के जरिये सरकारें बनती भी हैं और बिगड़ती भी| आज उन्हीं हिन्दू कहे जाने वाले हिन्दुओं की औरतें रातों को पुलिस थानों में सिर्फ यूरिया खाद लेने के लिए लाइनों में लगवाई जा रही हैं| ऐसे में क्या है कोई हिन्दू इस जघन्य प्रताड़ना से अपनी नारियों को मुक्ति दिलाने वाला? सरकार से बाहर ना सही, कोई सरकार के अंदर ही हो?

भूमिका:

"असहयोग आंदोलन" शब्द फैशनेबल तो है ही बड़ा कारगर भी है| इसलिए इसके इतिहास, परिभाषा, महत्व और उपयोगिता पर फ़िलहाल ज्यादा ना जाते हुए, इस मेथड की आज के किसान की समस्याओं के निबटारे हेतु कितनी सख्त जरूरत आन पड़ी है, सीधा उसपे आऊंगा| कई बंधुओं-दोस्तों-जानकारों से सुनने को मिल रहा है कि कुछ भी हो जाए वो संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को पास नहीं होने देंगे, फिर चाहे उसके लिए रोड जाम करने पड़ें, अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकना पड़े या अनंत धरने देने पड़ें| और कुछ ऐसे ही हालात हरियाणा में यूरिया खाद की किल्ल्त को ले के बने हुए हैं| सरकार तो सरकार, सरकार के बाहर भी राजनैतिक पार्टियां, सामाजिक संस्थाएं अथवा एन. जी. ओ. सब चुप्पी साधे बैठे हैं|

इन सबके बीच मुझे एक चीज नजर आई कि किसानों की मांगों, दुखों और आवाजों को सरकार तक पहुँचाने का सबसे सकारात्मक व् असरदार जरिया ‘सड़कों पर उतर कर विरोध करना’ रहेगा अथवा ‘असहयोग आंदोलन’ के रास्ते चल के समाज-सरकार को चलाने में अपनी भूमिका दिखाना होगा| गहन मंथन से जो समझ आता है वो है, “किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन”|



असहयोग आंदोलन ही सबसे कारगर हथियार क्यों?:


जो किसान भाई, किसान का युवा या किसान का शुभचिंतक हिंसात्मक अथवा रोड-रेल या दिल्ली जाम करने के तरीकों से इस बिल को रोकने या मुड़वाने की अथवा किसानों की यूरिया की किल्ल्त मिटाने की सोचता हो वह यह जान ले कि जो सरकार 2013 के बिल को मोड़ के आर्डिनेंस के जरिये 1894 से भी कड़ा बिल लाने का हठ कर सकती है, उसको आप लोगों पर लाठियां-डंडे बरसाने में कितनी देर लगेगी और ऐसा करने में सरकार को कितनी हिचकिचाहट होगी| अवश्य ही इस सरकार को ना ही तो विदेशी शासक कह सकते और ना ही विदेशी आक्रांता, क्योंकि भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है| लेकिन वर्तमान में किसान के जो हालात हो चले हैं अथवा होते दिख रहे हैं इतिहास में इस सरकार की तुलना अंग्रेजों और मुग़लों के काल से भी पहले दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग और सातवीं सदी के राजा दाहिर की विचारधारा वाले लोगों के काल से से करूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी; क्योंकि वो भी पूर्णत: स्वदेशी राजा थे और वर्तमान सरकार भी पूर्णत: स्वदेशी है|

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस सरकार को वही "ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को" वाली 1300 साल पुरानी परिपाटी पकड़ने में आज़ादी के बाद महज 70 साल भी नहीं लगे (और इनके अनुसार की पूर्ण रूप से स्वदेशी सत्ता प्राप्ति के हिसाब से कहूँ तो 7 महीने भी नहीं लगे)| पुष्यमित्र सुंग दूसरी सदी में हुए, इसलिए उनसे आगे वाले राजा दाहिर (661 AD से 712 AD) के काल से गिनूँ तो ठीक 1300 साल हुए हैं (इस बीच मुग़ल भी आये और अंग्रेज भी), ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इन हमारे शुद्ध भारतीयता की टैग यानी खुद वालों ने इस गुलामी के काल से कुछ नहीं सीखा| क्योंकि ठीक वैसे ही जैसे दाहिर और पुष्यमित्र ने कुछ विशेष लोगों को खुश रखने/करने व् अपनी रक्त-पिपासा शांत करने हेतु अपने ही लोग मारे-काटे-सताए थे, उसी मूड में भारत देश की वर्तमान सरकार दिख रही है| मुझे कहने में बिलकुल हिचक नही हो रही कि 712 ईस्वी में राजा दाहिर का काल यह सरकार फिर से लाने पर आमादा हुई खड़ी है जिसको और कुछ ना मिले तो अपनी ही प्रजा पे जुल्मों का पहाड़ तोड़, उनके शरीर से खून निकालने में मजा आता दिख रहा है| और इसका अंदाजा इस बात से और भी पुख्ता हो जाता है कि आते ही पहले आत्महत्या को अपराध बताने वाली धारा 309 को हटाया गया है|

Description
बुद्धजीवियों, विचारकों, संतों-महंतों से भरी इस सरकार में क्या कोई सरकार को सलाह देने वाला नहीं कि पुष्यमित्र सुंग और दाहिर के नक़्शे-कदम पर चलने से फिर से अराजकता, उत्पीड़न, गुलामी पाँव पसार लेगी, जिससे कि अशांति और आक्रोश पनपेगा? क्या सरकार को कोई यह आइना दिखाने वाला नहीं कि आज जिस जाति-पाति की पुरानी फूट का हवाला दे उसको हमारी सदियों पुरानी गुलामी का कारण बताया जाता है, उसी फूट और घृणा के बीज फिर से अंकुरित हो रहे हैं, अथवा आपके तौर-तरीके उसके अंकुरण का कारण बन रहे हैं; वही जो ऊपर कही थी कि, "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को न जाने को"। कहने को हर तरह की राष्ट्र की, धर्म तक की एकता और बराबरी का हवाला उठाते हो और फिर इतना बड़ा जुल्म भी करते हो कि "एक ही हांडी में दो पेट"? यानी कल को अगर प्रस्तावित अध्यादेश पास होता है तो एक वर्ग को तो इतनी छूट कि उसको दूसरे वर्ग की जमीन लेने हेतु उसकी इजाजत भी ना लेनी पड़े और उधर दूसरा वर्ग इतना लाचार बना दिया कि वो अपनी मन-मर्जी से अपनी जमीन को अपना कहने का अहसास सिर्फ इस डर से खो दे कि क्या पता कल कौन प्राइवेट स्कूल या हॉस्पिटल (सरकारी कार्यों, देश के व्यापक कार्यों के लिए तो सरकार खुद सौ बार जमीन ले परन्तु अब प्राइवेट भी; तो फिर इन प्राइवेटों और अंग्रेजों-मुग़लों वाले प्राइवेटों में फर्क क्या छोड़ा सरकार जी आपने?) तक खोलने वाला आन खड़ा हो कोर्ट का परचा हाथ में लिए? और उसका तो इस आर्डिनेंस के पास होने से इतना पक्का बंदोबस्त और बंध जायेगा कि न्यूनतम पांच साल तो कोर्टों में अपील भी नहीं डलेगी| क्या वाकई यही वो भारत था जिसमें आप जाति-पाँति मिटा "एकता और बराबरी" की बात करते आ रहे थे? क्या यह सीधा-सीधा भारतीय सविंधान के विरुद्ध जा, उन करोड़ों लोगों के आत्मसम्मान-प्रतिष्ठा का सामूहिक बलात्कार नहीं, जिनको कि भारतीय संविधान बराबर के आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा की सोच देता है?


धारा 309 के हटाये जाने और "संसोधित भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस" से इतना तो सबको समझ आ ही जाना चाहिए कि वर्तमान सरकार को इसकी जनता कितनी प्यारी है कि जिस जान-माल की रक्षा हेतु आप सरकार को चुना गया है, उसमें कोई आत्महत्या भी कर ले तो आप सरकार को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा? तो ऐसे में किसानों के लिए सोचने की बात है कि अगर आप लोग सड़कों पर उतरे तो आप लोगों पर पुलिस के डंडे खिलवाने से भी सरकार को कोई परहेज नहीं होगा, अपितु जिनको खुश करने हेतु यह सब किया जा रहा है उनको तो किसानों को पीटते देख घी और घलेगा|

रेल-रोड जाम करने से सरकार को नहीं पड़ेगा कोई फर्क: मुज़फ्फरनगर दंगे में आज भी दो हजार के करीब किसानी जातियों के बच्चे जेलों में हैं; कब तक बाहर आएंगे उस बारे ना सरकारें कुछ कहती हैं और ना ही वो धर्म के ठेकेदार जिनके नाम पर तथाकथित धर्मरक्षक बन इन बच्चों ने कानून अपने हाथ में लिया| जब धर्म का मामला होते हुए ही एक धर्मप्रेमी सरकार ने उनकी तरफ आजतक मुड़ कर नहीं देखा तो ऐसे में यह उम्मीद की जानी कि इस बिल के मुद्दे को ले के अगर किसान रेल-रोड जाम करते हैं तो यह सरकार वापिस मुड़ जाएगी, बड़ा संदेहास्पद लगता है| यह व्यापारिक मति की सरकार है, इसको व्यापारिक नफे-नुक्सान की परिभाषा ही समझ आ सकती है| इसलिए किसान असहयोग आंदोलन चला के व्यापारियों को अपनी ताकत का अहसास करवा के ही इस अध्यादेश को यूँ-का-यूँ वापिस मुड़वा सकते हैं| हालाँकि ऐसा नहीं है कि इस तरीके से आंदोलन करने से कोई जेल नहीं जायेगा, परन्तु इससे दो चीजें तो जरूर होंगी, एक तो कम से कम लोग जेल जायेंगे और दूसरा सरकार को एक असरदार संदेश जायेगा|

अत: इन कारणों की वजह से मैं नहीं मानता कि सरकार धरने-प्रदर्शनों से किसी की सुनने वाली है| अपितु पहले से फसलों के कम दाम, यूरिया की कमी, महंगाई, बिजली-पानी की किल्ल्त से जूझते किसान लोगों पर इस तरह के धरने सिर्फ अतिरिक्त बोझ ही डालेंगे| इसलिए मेरे विचार से एक ऐसा रास्ता है जो ना सिर्फ किसान का आर्थिक सहयोग करेगा अपितु सरकार को इस बिल को वापिस लेने में और यूरिया के नाम पर थानों में अपराधियों की तरह लाइन-हाजिर किये जा रहे किसानों की पीड़ा सुनाने में भी कारगर सिद्ध होगा वह है, “किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन”|

इससे आगे के भाग में तकनीकी तौर पर चार बातें समझने की कोशिश की जाएगी; पहली इस आंदोलन की परिभाषा, दूसरी यह संसोधित भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस/बिल वापिस करवाना जरूरी क्यों है, तीसरी इस आंदोलन की रूपरेखा, चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का युवा क्या करे|


1 इस असहयोग आंदोलन की परिभाषा:

किसानों द्वारा व्यापारियों की दुकानों, फैक्टरियों से एक निर्धारित समय तक (जैसे कि एक महीने के लिए अथवा जब तक सरकार इस आर्डिनेंस को रद्द ना कर दे), कोई भी सामान खरीदने का बहिष्कार| कोई भी किसान का बेटा-बेटी व्यापारियों की दुकानों/शॉपिंग मालों से ना किरयाना का कोई सामान खरीदे, ना कोई मशीनरी खरीदे, ना ज्वैलरी खरीदे और ना बर्तन-कपड़ा-लत्ता खरीदे| यह आंदोलन एक राज्य से शुरू करके पूरे देश में जितना हो सके उतना फैलाया जाए और तब तक चलाया जाए जब तक सरकार ना सिर्फ इस अध्यादेश को रद्द कर दे अपितु भविष्य में ऐसे दुःस्वप्न की दोबारा ना सोचे| और ना ही ऐसी परिस्थिति बनाये या बनने दे कि यूरिया खाद लेने हेतु किसानों को किसी अपराधी की तरह थानों में लाइन-हाजिर होना पड़े|


2 यह आर्डिनेंस/बिल वापिस करवाना जरूरी क्यों?

  1. यह आर्डिनेंस भारतीय सविंधान की article 300a व् article 14 का उलंघन करता है: Article 300a देश के हर नागरिक को जायदाद-सम्पत्ति रखने का, उसको अपने मनमुताबिक बेचने-खरीदने का हक देती हैं (सिवाय सरकारी व् देश व्यापी कार्यों हेतु सिर्फ सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण करने के, वो भी 80% किसान की सहमति से)| तो सरकार प्राइवेटों के लिए इस अधिकार को करोड़ों किसानों से कैसे छीन सकती है? ऐसा करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, इसलिए इस अध्यादेश का विरोध करने का मतलब अपने संविधान की रक्षा करना है|

    हमारा संविधान कहता है कि देश के हर नागरिक के आत्म-सम्मान, प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा करना हर चुनी हुई सरकार का पहला मूल कर्तव्य होगा| और धन-सम्पत्ति-जमीन-जायदाद हर इंसान के गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक होता है| एक आदमी पूरी जिंदगी लगा देता है एक एकड़ जमीन, घर में जोड़ने में और अगर उसी जमीन को कोई प्राइवेट वाला कोडियों के भाव ले जायेगा तो किसान के जीवन का फिर औचित्य ही क्या बचता है? उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहाँ बचती है?

    Article 14 कहता है कि देश का हर नागरिक बराबर है, जबकि सरकार एक तरफ तो किसान को सम्पत्ति पर से हटा रही है और दूसरे को किसान की मर्जी के बिना उसके खुद के प्राइवेट कारोबार तक के लिए जमीन देने को कह रही है; तो इसमें संविधान की आत्मा कहाँ रही? इस प्रकार यह अध्यादेश हमारे संविधान की मूलधारा का खंडन करता है| और इन वजहों से सुप्रीम कोर्ट तक में अपील भी डाली जा सकती है| बाकी कोई भी वकील अथवा कानूनज्ञाता भाई-बंधू-सर इन बिन्दुओं की व्यवहारिकता पर और प्रकाश डाल सकता है|

  2. इंफ्रास्ट्रक्चर-व्यापार और खेती एक कंप्यूटर के क्रमश हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर हैं: यानी पहले वाला हार्ड बिज़नेस और दूसरे वाला सॉफ्ट बिज़नेस| हार्ड बिज़नेस यानी कंक्रीट-लोहे वगैरह के भवनों/फैक्टरियों में छत के नीचे होने वाले इंसान की सेकेंडरी जरूरतें पूरी करने वाले कारोबार, जैसे कि इंफ्रास्ट्रक्चर-व्यापार| सॉफ्ट बिज़नेस यानी अनाज-दूध-दाल-कपास-गन्ना आदि से इंसान के सॉफ्ट पेट को भरने वाले, खुले आसमान वाली खेतों रुपी फैक्ट्री में किसान द्वारा बनाये जाने वाले प्राइमरी प्रोडक्ट्स| काम दोनों ही डेवलपमेंट का करते हैं, एक प्राइमरी डेवलपमेंट यानी पेट की डेवलपमेंट, उस दिमाग की डेवलपमेंट जो सेकेंडरी जरूरतों हेतु सोचने बारे जरूरी दिमाग और शारीरिक ताकत देता है और दूसरा सेकेंडरी जरूरतें जैसे विलासिता आदि| तो अगर बात सेकेंडरी डेवलपमेंट और तरक्की की है तो यह बिना प्राइमरी प्रोडक्ट के सम्भव ही नहीं| और फिर हमारी सरकार की परिभाषा में "शुद्ध मेक इन इंडिया" तो यही प्राइमरी यानी खेती के प्रोडक्ट्स हैं| तो सरकार के "मेक इन इंडिया" में इनकी जगह कहाँ? तो यह किसानों की फैक्ट्री रुपी जमीनों की उनकी मर्जी के बिना अधिग्रहण क्यों और कैसे जरूरी है?

  3. इस बिल से समाज में अराजकता व् कुंठा पसरेगी: इस आर्डिनेंस के बिल बन जाने के बाद प्राइवेटों को विकास के नाम पर किसी की भी जमीन हड़पने के मार्ग खुलेंगे| इससे दम्भी किस्म के अपराध पनपेंगे| किसी भी व्यापारी या राजनैतिक व्यक्ति को किसान या किसान के बच्चे से थोड़ी सी खुन्नस हुई नहीं कि जा बैठेगा किसान की जमीन पे कुंडली मार के| इससे किसान को जिंदगी का हर पल सालता रहेगा कि वह किसी की रहमत का मोहताज है, एक स्वछंद व् स्वतंत्र नागरिक नहीं| और इससे सिवाय अराजकता फैलने के समाज में कुछ भला नहीं होगा| इस प्रकार सबसे बड़ा असामाजिक व् अवांछित बिखराव समाज में डलेगा, जिससे समाज में अशांति, असंतुष्टि और कुंठा के अलावा सरकार व् देश को कुछ नहीं मिलेगा|

  4. Maslow Theory of Need says that after Physiological needs, a person require social safety, love and belongingness. और किसी चीज पे अपनी मर्जी और सहमति होना ही अपनापन (बिलोंगिंगनेस) कहलाता है, लेकिन अगर किसान की यह बिलोंगिंगनेस ही छिन जाएगी तो वह खाली हाड-मॉस का मुर्दा पुतला शेष रह जायेगा| उसमें कोई इच्छा नहीं होगी, प्राण नहीं होंगे, वो सिर्फ एक गुलाम की जिंदगी जीने को विवश होगा, वैसा ही गुलाम जैसे पुष्यमित्र सुंग और दाहिर ने उनके ही धर्म के लोग उनके राज में बना दिए थे| और फिर उनको उनकी करतूतों की ऐसी हाय लगी कि देश को 1000 सालों तक की गुलामी झेलनी पड़ी|

  5. किसान और व्यापारिक वर्ग के बच्चों में बढ़ेंगी दूरियां: शहरों में बसी किसान जातियों और व्यापारिक जातियों के बच्चों में सीधे और अंदरखाते दोनों तरह के मतभेद बढ़ेंगे| भले ही किसान वर्ग का कुछ नौकरीपेशा व् शिक्षित तबका शहर में बसे हों, परन्तु पीछे गाँवों में उनकी जमीन-जायदादें भी उनकी प्रतिष्ठा-गौरव का अभिन्न अंग होती हैं| तो इस आर्डिनेंस के बिल के रूप में आने से आगे आने वाली पीढ़ियों में द्वेष इस कद्र फ़ैल जायेगा कि व्यापारिक जातियों के बच्चे शायद ही किसानी जातियों के बच्चों को अपने बराबर का दर्ज देवें| अपितु ऐसी कहावतें और ताने भी चलन में आ जायेंगे कि एक व्यापारी जाति का बच्चा एक किसान के बच्चे को "गुलाम", "बेगार", "लाचार" तक कहने से परहेज नहीं करेगा और इससे आये दिन झगड़े होंगे, मनमुटाव होंगे, समाज में बिखराव होंगे|

इस तरह इस आर्डिनेंस के बिल बनने की सूरत में नागरिक के सवैंधानिक अधिकारों और सामाजिक अधिकारों व् सरोकारों पर हमला होने का खतरा है| यह बिल अगर वास्तव में धरातल पर आया तो आने वाले समय में बहुत ही भयावह संकट समाज के एक बना रहने के मार्ग में खड़ा कर देगा| इसलिए समाज को अराजकता, असमता, विषमता और टूटने से बचाना है तो इस आर्डिनेंस के विरोध हेतु यह असहयोग आंदोलन नितांत आवश्यक हो जाता है|


3) आंदोलन की रूपरेखा:

ऊपर बताई परिभाषा के अनुरूप इस आंदोलन को करने के चार मुख्य चरण इस प्रकार हो सकते हैं:

  1. शहर में जा बसे किसान वर्ग को जगाना: शहरी किसनवर्ग को यह बताना कि आप आज भले ही सरकारी, गैर-सरकारी नौकरी अथवा अच्छे जीवनस्तर व् आजीविका हेतु शहर में आन बसे हों और एक तर्कसंगत व् सम्मानजनक जीवनयापन कर रहे हों परन्तु गाँवों-शहरों में खेती-लायक जमीनें आपकी भी हैं| आप उस जमीन की आमदनी लेते हैं और उसको अपनी प्रतिष्ठा का भी एक अभिन्न अंग मानते हैं; इसलिए इस नए आर्डिनेंस को नकारने हेतु अब आपको गाँवों की ओर मुड़ के देखना होगा और अपने भाइयों के साथ मिलकर इस विपदा के समाधान हेतु काम करना होगा| क्या-कैसे करना होगा वो आगे के चरण में लिख रहा हूँ|

  2. आंदोलन के दौरान शहरी और ग्रामीण किसान समाजों के बीच तालमेल जरूरी: शहरों में बसने वाले किसान तबकों को जागरूक बनाने के पश्चात, गाँव के किसान वर्गों को बताना होगा कि आप अपने शहरी भाइयों के साथ इस असहयोग आंदोलन में पूर्ण सहयोग देवें और उनका पूर्ण सहयोग लेवें| गाँव के किसान इस आंदोलन को कमाई का जरिया ना बनने देवें| यानी यह ना सोचें कि आपके ही शहरी भाई आपके पास यह सामान लेने आ रहे हैं तो उनकी कोई मजबूरी है इसलिए तुम उस मजबूरी का फायदा उठाओ और मनमाफिक दाम वसूलो| नहीं बिलकुल नहीं, इस सूरत से बचने हेतु, दोनों तरफ यह बात स्पष्ट रहे कि शहरी और ग्रामीण किसान वर्ग ऐसा सिर्फ सरकार से इस ऑर्डिनेंस को वापस करवाने हेतु कर रहे हैं|

  3. शुरू में एक महीने की मियाद पर यह असहयोग आंदोलन खड़ा किया जा सकता है: जब शहरी और ग्रामीण दोनों स्तर पर ऊपर चर्चित तालमेल स्थापित हो जावे तो एक महीने तक ना ही तो शहर की और ना ही गाँव की कोई भी किसान औलाद किसी भी पारम्परिक व्यापारी की दुकान/शोरूम/मॉल से इस आंदोलन की परिभाषा के अनुसार किसी भी तरह का सामान नहीं खरीदेगी| शहरी नौकरीपेशा किसान समाज दूध-सब्जी सीधी अपने किसान भाइयों के खेतों से लावें, या उनसे ही लेवें| यहां तक कि आटा तक पिसवाने हेतु किसी पारम्परिक व्यापारी की आटा-चक्की वाले के यहां ना जावें, या तो घर पे पीस लेवें अन्यथा पीछे अपने गाँव से पिसवा लावें| इससे एक तो व्यापारिक वर्गों को यह अहसास होगा कि आप उनपर नहीं अपितु वो आप पर निर्भर हैं और देश के विकास हेतु सिर्फ वो ही योगदान नहीं देते आप उनसे भी बड़ा योगदान देते हैं| दूसरा जब इस आंदोलन से व्यापारियों की दुकानों पे ग्राहक ही नहीं जायेंगे, यहां तक कि उनकी रसोइयों में दूध-सब्जी तक की किल्ल्त हो जाएगी तो सम्भव है कि वो भी सरकार को यह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापिस करवाने हेतु आपके साथ आंदोलन में उतर आएं| और फिर इस सबका का मिलकर सरकार पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे सरकार अतिशीघ्र इस अध्यादेश को वापिस लेगी|

  4. आंदोलन की पहली मूल भावना असहयोग है, किसी से हिंसा अथवा मार पीट नहीं: सुनता हूँ कि यह व्यापारियों की सरकार है, तो इसको इस तकनीकी व् व्यापारिक असहयोग के जरिये ज्यादा आसानी व् कम कीमत में मनाया अथवा झुकाया जा सकता है| इनके लिए किसानों का सड़कों पे उतर जाम लगाने अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकने का मतलब होगा, व्यापारियों व् अधिकारीयों द्वारा प्रदर्शन कर रहे व् धरना दे रहे किसानों पर सरकार के जरिये पुलिस कार्यवाही करवाने का बहाना देना| जिससे किसान का समय-संसाधन-ऊर्जा बर्बादी से ले के जान-माल तक नुक्सान होगा, जो कि इतना घातक भी हो सकता है कि किसान को जल्दी से दोबारा आंदोलन खड़ा करने लायक ना छोड़े| इसलिए इस आंदोलन के दौरान कोई भी हिंसात्मक अथवा प्रतीकात्मक क़दमों से किसान को परहेज करना होगा| एक बहुत ही सुनियोजित रणनीति से अनुभवी व् दूरदर्शी लोगों के मार्गदर्शन में फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए ही इस आंदोलन को अंजाम देना होगा|

  5. किसान की समाजसेवा भावना की गरिमा व् करुणा बनी रहे: लाजिमी सी बात है कि इस आंदोलन के तहत फल-दूध-सब्जी जैसी चीजों का भी किसान व् व्यापारिक जातियों के मध्य एक महीने का अंतराल पड़ेगा तो, बहुत से व्यापारियों (खासकर छोटे व्यापारियों) के घरों में नवजात से ले छोटे बच्चों के लिए दूध-फल की कमी आ सकती है| तो ऐसे में अगर कोई व्यापारी गाँव या किसान की तरफ दूध या फल-सब्जी लेने आता है तो उसको किसान दूध और फल-सब्जी दे देवे; क्योंकि हमारे आंदोलन का मतलब किसी की जान लेना या किसी को तरसाना नहीं अपितु बहरे हो चुके व्यापारियों और इनकी पक्षधर बनती दिख रही सरकार को जगाना है| और वैसे भी किसान धर्म के अनुसार किसान प्रजा का पोषक होता है, शोषक नहीं|

यह सिर्फ इस आंदोलन की मोटी-मोटी रूपरेखा है, कोई किसान समूह, नेता या चिंतक इसको क्रियान्वयन रूप में जमीन पे उतारना चाहे तो उसके लिए इसके अंदर के और गूढ़ व् सफलता के रहस्यों को आपसे साझा करने में मुझे हार्दिक हर्ष होगा|


4 चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का यूथ (youth) क्या करे:

  1. तमाम किसान वर्ग का जितना भी यूथ सोशल मीडिया पर बैठा है वो इस विचार को जितना हो सके उतना साझा करे, इतना साझा करे कि किसानों के नेताओं, समूहों व् चिंतकों तक यह पहुँच जाए|

  2. जितना हो सके उतना यूथ इस आंदोलन की व्यवहारिकता पर चर्चा करे, मनन करे व् अपने मनन को साझा करे| ऐसा नहीं है कि इस रूपरेखा में खामियां नहीं हो सकती, इसलिए उन हो सकने वाली खामियों बारे आपस में इन पर चर्चा करे|

  3. अगर हम लोगों ने इसको सोशल मीडिया का भी आंदोलन बना दिया तो मेरा विश्वास है कि हमारा चर्चा हर वो स्तर व् स्टेज तक जा सकता है जिसकी कि हम शायद कल्पना भी नहीं कर सकते|

  4. इन बातों को गाँव-गाँव, शहर-शहर हर गली-मुहल्ले-चौपाल तक की चर्चाओं में पहुंचाने का कार्य आप कर सकते हैं, जहाँ कि आंदोलन की मूल बसती है|

इस आंदोलन के जरिये दिखाई ताकत के किसान को होने वाले अन्य दूरगामी लाभ: किसान के सब कुछ चुपचाप स्वीकार कर लेने से, व्यापारिक वर्ग को यह वहम हो गया है कि वो ही इस देश के सर्वेसर्वा व् पालनहार हैं| ऐसे में अगर यह असहयोग आंदोलन हो जाता है तो ना सिर्फ भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस वापिस होगा अपितु किसान इसके बाद खेती के व्यापारीकरण, स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट लागू करवाने, फसलों के विक्रय मूल्य का अधिकार अपने हाथ में लेने व् अन्य तमाम तरह के कृषि सम्बन्धी विकास व् कल्याण के कार्यों को बड़ी आसानी से और कम समय में करवा सकेंगे|

पता नहीं क्यों परन्तु इस लेख का अंत करते वक्त यह पंक्तियाँ अंतर्मन में कोंध रही हैं: “तैने शेर-बघेरे देखे होंगे री, हम धरती के लाल सां!”

हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!


जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर


लेखक: पी. के. मलिक

प्रकाशन: निडाना हाइट्स

द्वितीय संस्करण: 22/02/2015

प्रथम संस्करण: 19/01/2015

प्रकाशक: नि. हा. शो. प.

उद्धरण:
  1. Constitutional Consultation: एडवोकेट मनोज दुहन

  2. Article 14 Indian Constitution

  3. Article 300a Indian Constitution

  4. 300 farmers booked after clash with police over urea shortage in Hansi

  5. Aritlce 21 Indian Constitution

  6. Aritlce 21 Indian Constitution

  7. Consumer Protection Act 1986

  8. Right to property is a constitutional right: Supreme Court

  9. Land acquisition ordinance: Important to ensure that those who sacrifice their land are not shortchanged

  10. Unmaking of a progressive law

  11. Compilation of Indian media coverage on New Land Acquisition Ordinance and Urea Shortage

साझा-कीजिये
 
इ-चौपाल के अंतर्गत मंथित विषय सूची
निडाना हाइट्स के इ-चौपाल परिभाग के अंतर्गत आज तक के प्रकाशित विषय/मुद्दे| प्रकाशन वर्णमाला क्रम में सूचीबद्ध किये गए हैं:

इ-चौपाल:


हरियाणवी में लेख:
  1. त्यजणा-संजोणा
  2. बलात्कार अर ख्यन्डदा समाज
  3. हरियाणवी चुटकुले

Articles in English:
    General Discussions:

    1. Farmer's Balancesheet
    2. Original Haryana
    3. Property Distribution
    4. Woman as Commodity
    5. Farmer & Civil Honor
    6. Gender Ratio
    7. Muzaffarnagar Riots
    Response:

    1. Shakti Vahini vs. Khap
    2. Listen Akhtar Saheb

हिंदी में लेख:
    विषय-साधारण:

    1. वंचित किसान
    2. बेबस दुल्हन
    3. हरियाणा दिशा और दशा
    4. आर्य समाज के बाद
    5. विकृत आधुनिकता
    6. बदनाम होता हरियाणा
    7. पशोपेश किसान
    8. 15 अगस्त पर
    9. जेंडर-इक्वलिटी
    10. बोलना ले सीख से आगे
    11. असहयोग आंदोलन की घड़ी
    12. मंडी-फंडी और किसान
    13. भाईचारे की माँ का दर्द
    खाप स्मृति:

    1. खाप इतिहास
    2. हरयाणे के योद्धेय
    3. सर्वजातीय तंत्र खाप
    4. खाप सोशल इन्जिनीरिंग
    5. धारा 302 किसके खिलाफ?
    6. खापों की न्यायिक विरासत
    7. खाप बनाम मीडिया
    हरियाणा योद्धेय:

    1. हरयाणे के योद्धेय
    2. दादावीर गोकुला जी महाराज
    3. दादावीर भूरा जी - निंघाईया जी महाराज
    4. दादावीर शाहमल जी महाराज
    5. दादीराणी भागीरथी देवी
    6. दादीराणी शमाकौर जी
    7. दादीराणी रामप्यारी देवी
    8. दादीराणी बृजबाला भंवरकौर जी
    9. दादावीर जोगराज जी महाराज
    10. दादावीर जाटवान जी महाराज
    11. आनेवाले
    मुखातिब:

    1. तालिबानी कौन?
    2. सुनिये चिदंबरम साहब
    3. प्रथम विश्वयुद्ध व् जाट

NH Case Studies:

  1. Farmer's Balancesheet
  2. Right to price of crope
  3. Property Distribution
  4. Gotra System
  5. Ethics Bridging
  6. Types of Social Panchayats
  7. खाप-खेत-कीट किसान पाठशाला
  8. Shakti Vahini vs. Khaps
  9. Marriage Anthropology
  10. Farmer & Civil Honor
नि. हा. - बैनर एवं संदेश
“दहेज़ ना लें”
यह लिंग असमानता क्यों?
मानव सब्जी और पशु से लेकर रोज-मर्रा की वस्तु भी एक हाथ ले एक हाथ दे के नियम से लेता-देता है फिर शादियों में यह एक तरफ़ा क्यों और वो भी दोहरा, बेटी वाला बेटी भी दे और दहेज़ भी? आइये इस पुरुष प्रधानता और नारी भेदभाव को तिलांजली दें| - NH
 
“लाडो को लीड दें”
कन्या-भ्रूण हत्या ख़त्म हो!
कन्या के जन्म को नहीं स्वीकारने वाले को अपने पुत्र के लिए दुल्हन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए| आक्रान्ता जा चुके हैं, आइये! अपनी औरतों के लिए अपने वैदिक काल का स्वर्णिम युग वापिस लायें| - NH
 
“परिवर्तन चला-चले”
चर्चा का चलन चलता रहे!
समय के साथ चलने और परिवर्तन के अनुरूप ढलने से ही सभ्यताएं कायम रहती हैं| - NH
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