परिवेश: मैंने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि धर्म पर कभी राजनीति नहीं होनी चाहिए और ना ही करनी चाहिए, लेकिन जब धर्मगुरु तक खुद संसद में पहुँच जाएँ तो क्या तब भी इस पर बात नहीं होनी चाहिए? सामान्य सी बात है जो धर्म के वेत्ता होते हुए भी संसद तक गए हैं तो वो वहाँ जप-तप अथवा भजन-कीर्तन तो करने गए नहीं हैं, धर्म पे राजनीति ही करने गए हैं| और जब वो खुद धर्मगुरु होते हुए अपने आपको राजनीति से दूर रखने में अक्षम हैं और धर्म का राजनीतिकरण कर रहे हैं तो आशा करता हूँ कि मेरे लेख को पढ़ने वाले मुझपर धर्म का राजनीतिकरण करने का आरोप नहीं लगाएंगे| मैं यहाँ इस बात से भी अवगत हूँ कि भारत एक लोकतान्त्रिक देश है इसमें किसी को भी चुनाव लड़ने का हक़ है, बिलकुल सही बात है परन्तु इससे तो मेरी ही बात और ताकत पाती है कि धर्म पे राजनीति की जा सकती है, तो इस हिसाब से भी मेरे लेख को पढ़ने वाले मुझे गलत नहीं लेंगे| तो लेख की भूमिका की तरफ बढ़ता हूँ:
भूमिका: बड़ों से ही सीख के बड़ा हुआ हूँ कि जिस धर्म को धर्मसंस्थान से निकल राजनैतिक परिसर में बैठना पड़े तो यह धर्म के मूल्यों को बनाने वालों, उन मूल्यों और उनके संवर्धनकर्ताओं में गिरावट ही कही जा सकती है कि क्योंकि धर्म सर्वजन-सर्वदेश को मार्गदर्शन करने हेतु होता है, और धर्म का उद्देश्य राजनीति तय नहीं करती|
यहां एक बात और कहता चलूँ कि इंसान के तीन तत्व होते हैं, "सात्विक-राजस-तामस" यानी सात्विक धर्मप्रचारक का, राजस राज करने वाले का और तामस असामाजिक तत्व का| और सात्विक का पद राजस से उच्च होता है और राजस का तामस से| सो इससे यह बात तो साबित हो गई कि अगर सात्विक गुण को राजस गुण भा रहा है तो इसका मतलब यह उसका पतन है, यानी धर्म गिरावट की ओर चल निकला है|
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इस लेख की विवेचना करने वाले इस तथ्य को भी आगे रखकर इसकी विवेचना करेंगे क़ि
"बणिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब, जुल्म खुदा।" यानी अगर ब्राह्मण जो कि मुख्यत: धर्म से संबंधित वर्ग माना जाता है, वो अगर शाह यानी राज-शासक बनेगा तो प्रजा में त्राहि मचे-ही-मचे, आज नहीं तो कल मचे| और यह कहावत इतिहास में बहुत बार सच भी साबित हुई है, कुछ ऐसे ही उदाहरणों का इस लेख में नीचे जिक्र भी करूँगा|
तो राजनैतिक परिसर में जा बैठे धर्मगुरुओं से ही प्रेरणा लेकर, उनको कुछ सन्देश इस लेख के माध्यम से पहुँचाना चाहता हूँ कि आप संसद में हमारे धर्म के इन अत्यंत ज्वलंतशील विषयों पर भी बहस करवाएं और सिर्फ बहस ही नहीं, क्योंकि आज के दिन आपके पास सरकार भी है इसलिए इन पर बिल ले के आएं और पास करवाएं|:
व्याख्या:
1) आज़ादी के 67 साल बाद भी आजतक हमारी धर्मसंसदों व् धर्माधीसों ने इस बात पर मंथन क्यों नहीं किया कि वो क्या कारण थे जिसकी वजह से हम विभिन्न सम्प्रदायों के हिन्दू वर्ग को 1000 साल की गुलामी झेलनी पड़ी? इस पर चर्चा हो कि यह क्यों थी| बताते चलता हूँ कि हमारे साथ ऐसा होने के मुख्य कारण इस लेख के शीर्षक में जो लिखे हैं मूलत: वो दोनों ही थे; सो उनको हमारे धर्म से कैसे निकाला जाए इस पर संसद में चर्चा हो|
2) बिना गुलामी के कारण ढूंढें हिन्दू धर्म में
‘एकता और बराबरी’ का सिर्फ नारा मात्र लगाना, देश को अनिश्चित झंझावत में धकेलना साबित होगा, ठीक वैसे ही जैसे राजा दाहिर और पुष्यमित्र सुंग
(दोनों ब्राह्मण थे) के युग में हुआ था| जिसको याद ना हो वो जान ले कि आज जो हरियाणा और खापलैंड पर
"मार दिया मठ" अथवा "मर गया मठ" की कहावतें हैं यह दाहिर और पुष्यमित्र ने जो जुल्म जाटों और दलितों के पुरखों पर ढहाये थे उसकी वजह से चली| उस काल में जाट जो कि बुद्ध हुआ करते थे, और हमारे बहुत से पुरखे बुद्ध धर्मगुरु थे और अपने मठ चलाते, इन राजाओं ने वो सारे मठ तोड़े और हमारे सारे बुद्धजीवीवर्ग को कत्ल कर डाला था| इसलिए यह लोग इस पर चर्चा करें कि इनके पुरखों द्वारा जाटों और दलितों के पुरखों पर जो जुल्म ढहाये गए थे, उसकी माफ़ी पहले मांगे और फिर
‘बराबरी और एकता’ की बात करें| अगर ऐसा होगा तो मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा जो आज के हमारे धर्म-मंदिर तोड़ उनके धर्मसंस्थान बनाये जाने पे यह लोग उस वर्ग से माफ़ी के इच्छुक हैं या जो भी प्रतिशोध हेतु यह लोग जाटसमाज से सहायता अपेक्षित करते हैं वह एकमुश्त मिलने की सम्भावना और प्रबल होगी|
इसलिए पहले जाट और दलित वर्ग से माफ़ी मांगकर, अगर बराबरी और एकता की बात की जाएगी तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि फिर हिन्दू धर्म को कोई नहीं तोड़ पायेगा, इसमें कोई दरार नहीं रहेगी| और इससे सुअवसर हमारे धर्मवेत्ताओं को यह पुण्य कमाने का फिर मिल भी नहीं सकता, एक तो सरकार हमारे धर्म की और दूसरा
"एकता और बराबरी" पैदा करने का सुअवसर सामने|
और यह मैं ऐसा इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि वर्तमान और अतीत से चलता आ रहा जो भाई-भतीजावाद हमारे धर्म में है, यही सबसे बड़ा कारण है कि हममें एकता नहीं रही| ऐसा नहीं है कि धर्मवेत्ता इस भेद को खत्म करने की कोशिश नहीं करते आये हों, वह तो आज भी कर रहे हैं, लेकिन जब तक ऊपर लिखा तरीके का प्रयास नहीं होगा, तब तक इन कोशिशों की अति ठीक वैसी ही कुंठा में बदलती रहेगी जैसे कि दाहिर और पुष्यमित्र की बदली थी, कि उन्होंने माफ़ी तो समाज से मांगी नहीं, अपितु ताकत के बल पर समाज को झुकाने और शायद उसमें
'एकता और बराबरी' की सोची और नतीजा हुआ देश की 1000 साल की गुलामी|
और इनकी यही कुंठाएं, स्वसमाज पर कहर और अंहकार सबसे बड़े कारण रहे, कि जिसकी वजह से देश लुटेरों के हाथों लुटता रहा और यह असहाय बने देखते रहे, लेकिन जब जाकर जाटों ने ही ऐसे मोर्चे संभाले कि अगर ना संभाले होते तो देश की इज्जत कितनी और नीलाम होनी थी इसका शायद ही किसी को भान होता, जैसे कि
जब
"सोमनाथ मंदिर" को लूटने वालों ने मंदिर का खजाना लूट लिया
(क्योंकि लूट से पहले तो इनको विश्वास ही नहीं था अथवा समाज के आगे इस मंदिर के अभेद्य होने का ढोंग पीटते रहे कि सोमनाथ को कोई ही नहीं सकता, सेना अंदर प्रवेश करेगी तो अंधी हो जाएगी वगैरह-वगैरह; परन्तु वो हुआ मंदिर में सेना प्रवेश भी हुई और विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा मंदिर में लूट भी मचाई गई) तब जाकर उन लूटेरों से जाटों ने खजाना वापिस छीना कि अब तो हद हो गई; पुष्यमित्र और दाहिर के वंशज तो जो करेंगे तब करेंगे लेकिन इससे पहले खजाना देश से बाहर जाए इनसे छीन लिया जाए|
और विडम्बना देखो कि उसी खजाने को लूटेरों से छीनने वालों को लोग "लूटेरे" बोल देते हैं, बेशक लूटेरों से जो खजाना छीन के देश की रही-सही लाज बचाये वो लूटेरे तो कम से कम नहीं हो सकते|
ऐसे अनेकों उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है, जो इस कुंठा और तानाशाही से पनपा| बस एक उदाहरण और देकर बात को अगले बिंदु पर लेकर जाऊंगा| दूसरा ऐसे ही उदहारण है पानीपत की तीसरी लड़ाई, जब मराठा पेशवाओं ने बावजूद जाट महाराजा सूरजमल के अपनी सेना तैयार रखने के, यह सन्देश ना पहुँचाया कि हमें किस मोर्चे की ओर आक्रमण करना है और नतीजा क्या हुआ, जो गुलामी 1763 के पानीपत युद्ध में ख़त्म हो जानी थी वो 1947 तक लम्बी खिंच गई| जबकि बाद में उन्ही महाराजा सूरजमल की महानता देखो कि पानीपत के घायल पेशवा मराठा सैनिकों की मरहम-पट्टी कर अहमदशाह अब्दाली से ना सिर्फ उनकी हिफाजत करी अपितु अब अकेले
(जो कि युद्ध से पहले सब एक साथ आते) अहमदशाह अब्दाली के निशाने पर आ गए| लेकिन उन्होंने इस आशंका की परवाह ना करते हुए, अपने धर्म के घायल भाइयों की मदद करी| और इस पर अनदेखी तो इतनी कि आज छोटे-छोटे युद्ध जीतने वालों पर तो फिल्मों से ले टीवी सीरियल तक बनते हैं और जो असली खेवनहार रहे धर्म के उनकी पूछ तक नहीं और बात करते हैं हिन्दू धर्म में एकता और बराबरी की; क्या ऐसे आएगी एकता और बराबरी?
3) धर्म में प्रतिभा और प्रतिष्ठा से मानवता निर्धारित करने वाला
"सात्विक-राजस-तामस" पैमाना सिर्फ किताबों-कागजों तक होना और जन्म-वर्ण-कुल आधार पर इसका आजतक बने रहना, कभी भी हिन्दू धर्म को वैश्विक गुरु नहीं बनने दे सकता|
हमारे ऋषि-मुनियों में जो निष्पक्ष रहे, वो लिख के गए हैं कि धर्मगुरु का निर्धारण जातीय या जन्माधार पर नहीं होगा अपितु धर्मगुरु सर्वजाति-सर्वसमाज से सात्विक गुणों के बालकों को छांटकर उनकी योग्यतानुसार उनको धर्मगुरु बनाएं, जबकि आज 21 वीं सदी में आकर भी हो क्या रहा है, सिर्फ एक ही जातिविशेष से जन्म के आधार पर धर्मगुरु बन रहे हैं| क्या बाकी जातियों में धर्मगुरु यानि सात्विक गुण के बच्चे पैदा नहीं होते? क्या जो एक बालक को धर्मगुरु बनाने की प्रक्रिया आज हिन्दू धर्म की एक जाति अपने तक सिमित करके रखी हुई है वह सब जातियों में नहीं लागू करनी चाहिए? हम लोग अक्सर शासन-प्रसाशन में भाई-भतीजवाद की जड़ें ढूंढते हैं, जबकि इसकी असली जड़ें तो हमारा धर्म सींचता है; और यही वजहें हैं कि हमारे धर्म को बहुतों बार सिर्फ इस धर्म में अधिपत्य वाली जाति का ही बताया जाता है और जो वर्तमान में इसकी हालत है उसको देखते हुए इस बात की सत्यता ही प्रमाणित होती है| 99% धर्म पर एक जाति विशेष का कब्ज़ा रहते हुए, हमारा धर्म भाई-भतीजावाद के आरोप से कैसे बच सकता है?
और विडंबना एक और भी है कि अगर दूसरे वर्ग से कोई सात्विक गुण का बच्चा धर्मगुरु बनना चाहे तो उसको इनकी कितनी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है, यह भी सबको विदित रहता है|
इसलिए मैं अनुरोध करना चाहूंगा हमारे संसद में बैठे धर्मगुरुवों से कि वो आगे आएं और आज से बिल पास करें कि हिन्दू धर्म की जो मूलगति है उसको मूलरूप में ही लागू किया जाए और धर्मगुरु ढूंढने की परिधि बढ़ा के सर्वमाज के लिए शुरू की जाए| हाँ यहां चारों मठों के वर्तमान शंकराचार्यों को भी एक आग्रह करना चाहूंगा कि आप भी आगे आएं और घोषणा करें कि आज के बाद हिन्दू धर्म के चारों मठों के मठाधीशों में दो औरतें और दो मर्द हुआ करेंगे और वो भी हिन्दू धर्म के चारों वर्णों से एक-एक होगा| और यह सुनिश्चित करने के लिए आप लोग स्वंय सर्वजाति में सात्विक गुण के बच्चों को ढूंढ ऐसी दीक्षा देंगे कि एक दिन हमारे चारों मठ इस बात के लिए जाने जाएँ कि उनमें चारों मठाधीश हिन्दू धर्म के चारों वर्णों से एक-एक हैं|
और जब धर्म के लिए जानी जाने वाली जाति में नाचने-गाने वाले गुण वालों की बॉलीवुड में भरमार है तो दूसरी तरफ जाट जैसी जातियों में तो यह कहावत तक है कि
"अनपढ़ जाट पढ़े जैसा और पढ़ा जाट खुदा जैसा"; यानी अगर आप जाट-जाति से किसी सात्विक गुण के बच्चे को दीक्षा दे किसी मठ का मठाधीश बनाओगे तो सही में वही धर्म होगा और एक जाट धर्माधीस वाकई में खुदा यानी भगवान जैसा हो सकता है बशर्ते आप लोग धर्म के सच्चे प्रारूप पे चल कर ईमानदारी से हमारे ऋषि-मुनियों के सन्देश की पालना करें|
4) बांटो और राज करो हमारे देश में अंग्रेज नहीं लाये थे, अपितु यह तो उन्होंने हमारे धर्म से ही सीखा था, हमारी वर्ण-व्यवस्था को देख कर; जो कि आज 21वीं सदी में आने के बाद भी ज्यों-का-त्यों कायम है; और क्यों है इसपे कोई धर्मगुरु या धर्मसंसद विचार करने को तैयार होना तो दूर, शायद इसको ले के सोचती भी ना हो| तो मेरा आपसे अनुरोध है कि हिन्दू धर्म की जड़ों में बसे इस वर्ग व् जातियों के आधार पर
"बांटो और राज करो" के पैमाने को हमारे धर्मग्रंथों से निकलवा दिया जाए और सर्वमसामाज को सिर्फ उसके तत्व-गुण यानी सात्विक-राजस व् तामस के आधार पर देखा जाना व् लिखा जाना शुरू किया जाए|
5) औरतों के लिए संसद से ले कर सरकारी नौकरियों और जमीनों तक में आरक्षण की तो सब बातें करते हैं, लेकिन हमारे धर्म में सब इसपे चुप हैं| क्यों 21 वीं सदी में आकर भी हमारे धर्म-स्थलों पर आज भी 99% पुरुषों का ही एकछत्तर राज है और उसमें भी 98% हिन्दू धर्म के एक जाति विशेष वालों का|
ऐसे ही कुछ और ज्वलंत मुद्दे मेरे अगले लेख में हमारे संसद परिसर में बैठे धर्मगुरओं व् शंकराचार्यों के लिए लाऊंगा, फिलहाल अगर इन पर से एक पर भी कार्य हो जाए तो हिन्दू धर्म में बैठे-बिठाए एकता और बराबरी आ जाएगी|
लेख से संभावना: क्या यह 99% औरतों का और 98% धर्म के दूसरे वर्ण-जाति के सात्विक गुण वाले बच्चों का हक़ जब तक दबा रहेगा, और एक जाति विशेष इसपे कब्ज़ा जमाये बैठी रहेगी तब तक कोई हिन्दू धर्म में "एकता और बराबरी" की बात को फलीभूत कर सकता है? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर देता यह अत्यंत संवेदनशील लेख लिखने का जोखिम उठाया है| एक बात दावे से कह सकता हूँ कि हमारे धर्म के छोटे-से-छोटे अनुयायी से ले बड़े-से-बड़े धर्माधीस तक के लिए यह लेख एक आईना है और उनके लिए पढ़ना तो बेहद ही जरूरी है जो वास्तव में हिन्दू धर्म में 'एकता-बराबरी' और समरसता चाहते हैं|
हाँ जो
"थोथे धान पिछोड़ने वाले" अथवा सिर्फ
"थूक बिलोने मात्र" को हिन्दू धर्म में एकता और बराबरी के ढोल उठाये घूम रहे हैं, वो जरूर इस लेख को पढ़ के सिर्फ धक्का ही नहीं खाएंगे अपितु जो सोच वो उठाये फिर रहे हैं, उनको उसका कोई आधार ही ना दिखे, ऐसा प्रतीत यह लेख जरूर करवा देगा, ऐसी मेरी इस लेख से उम्मीद है|