पहली कक्षा से ले के अंत तक मेरी पूरी पढाई शहर में हुई, परन्तु जब भी छुट्टियों में गाँव जाता था तो वहाँ सिर्फ मेरा घर नहीं अपितु पूरी 36 बिरादरी के घर-लोग मेरे होते थे| आज जब समाज को कभी धर्म तो कभी जाति में तोड़ के राज करने वालों की गंदी राजनीति के चलते कहीं पैंतीस बनाम एक तो कहीं जाट बनाम नॉन-जाट छिड़ा हुआ है, ऐसे में यह यादें सर चढ़ के बोल रही हैं| और कह रही हैं क्या यूँ बैठे-बिठाए ही यह राजनेता तुम्हारे भाईचारे को ऐसे छीन ले जायेंगे, जैसे एक माँ की गोदी से बच्चा? आईये जरा बताऊँ आपको, मेरे हरयाणे की भाईचारे की परिभाषा दिखलाऊं आपको:
- दादी रिशाले की डूमणी: जब अपनी मधुर वाणी में आल्हों-छंद-टेक के रूप में एक साँस में मलिक गठवाला जाटों (लेखक मलिक गठवाला जाट है) का 'यो घासीराम का पोता' की टेक लगा के इतिहास बखाया करती तो तन-मन का रोम-रोम पुलकित हो उठता था| दादी जी जब तक जीयी सिर्फ मेरी निडाना नगरी (हिंदी में गाँव) ही नहीं अपितु मलिक जाटों के सोनीपत से ले रोहतक-हिसार तक के गाँवों में बेपनाह इज्जत पाती रही और वो भी बावजूद मुस्लिम धर्म की होने के|
- दादा मोजी बनिया का परिवार (general): हमारे घर के बिलकुल सामने घर है| सब सीतापुर व् दिल्ली शिफ्ट हो चुके हैं| परन्तु जब भी गाँव आना होता है तो खाना-पीना-सोना सब हमारे घर पे होता है| अपने घर की जिम्मेदारी भी हमपे छोड़ी हुई है| हर ब्याह-शादी, दुःख-सुख में आना-जाना आज भी जारी है|
- ताऊ रामचन्द्र छिम्बी (राजपूत - obc): जींद की पुरानी कचहरी के बगल वाली मार्किट में एक बनिए की कपड़ों की दुकान के स्थाई टेलर| एक बार दादी ने इनके बारे बताया तो मोह इतना बना रहा कि जब भी उधर जाता तो उस दुकान पे इनको देखने और मिलने जरूर जाता| शायद गाँव की संस्कृति और गरिमा का ही मोह था जो उधर खींच के ले जाता था| गाँव में इनके परिवार से आज भी वही आत्मीयता है| बचपन में इनके घर अक्सर दादी भेजती रहती थी| रामचन्द्र ताऊ मेरे लिए गांव के चंद उन पुरुषों में हैं जो हरयाणवी संस्कृति के धोतक माने जाते हैं|
- ताऊ मेषरा ऐहड़ी (कश्यप राजपूत – sc/st): मेरे पिता जी के साथ इनका अक्सर कम्पटीशन रहता था कि कौन ज्यादा काम करता है (हरयाणा में बिहार-बंगाल का सामंतवाद ढूंढने वाले लेफ्टिस्ट भी ध्यान देवें इस बात पे)| हमारे यहां सीरी रहे (हरयाणवी में सीरी यानी काम में पार्टनर, हिंदी व् गैर-हरयाणवी लोगों की भाषा में नौकर)। इनके बच्चे भी सीरी रहे| ताई के तो कहने ही क्या| इतनी आत्मीयता में भरी औरत, बस एक बार इनके घर के आगे से गुजर जाओ, आपसे पहले खुद ही 'आइये रे मेरा बेटा फूल' की झोली देते हुए बुला लेंगी| बैठा के आवभगत करना और घर-गाँव-गुहांड की बताना| ताई खुद भी हंसोकड़ी हैं और इनके हंसी-मिजाज के किस्से भी बहुत मशहूर हैं पूरे निडाना में|
- दादा जल्ले लुहार (हिन्दू -obc): गाँव में जब छुट्टियों में जाता था तो पिता जी अक्सर इनके पास खेती के औजारों को धार लगवाने या मरम्मत के लिए गए औजार लाने भेजा करते थे| इनकी पत्नी यानि दादी जी घर के सदस्य से भी बढ़कर आवभगत करती थी|
- दादा नवाब लुहार (मुस्लिम): इनकी बूढी माँ होती थी, जब भी इनके घर की तरफ जाता तो मुझे बुला के अक्सर गोदी में बैठा के लाड करती थी| इनके घर में चारपाई की बड़ी चद्दर से बना हुआ बड़ा सा पंखा होता था, जिसको टूलने में मुझे बड़ा मजा आता था|
- काका लीला कुम्हार (मुस्लिम): बचपन में इनकी दुकान मेरे घर के बिलकुल सामने होती थी, खेलता-खेलता गली में निकल आता तो अपनी सगी औलाद की भांति, इनकी अपनी दुकान पे कम और मुझ पर ज्यादा नजर रहती थी कि कहीं कोई व्हीकल या जानवर लड़के को नुकसान ना कर जाए| बड़ा हुआ तो इनके घर स्वत: अक्सर चला जाता था| इनकी अम्मा यानी मेरी दादी और इनकी धर्मपत्नी यानी मेरी काकी, खूब अच्छे से खिलाती पिलाती थी| बहुत बार तो जैसे बच्चा अपने घर में बिना किसी से पूछे रसोई से रोटी उठा के खा लेता है, सीधा इनकी रसोई में घुस जाता और खुद ही उठा के खा लेता| बहुतों बार जब भी काका आक पे पकने के लिए बर्तन चढ़ाते थे तो साथ लग के चढ़वाता था|
- ताऊ पृथ्वी कुम्हार (मुस्लिम): लीला काका के ही बड़े भाई, आज भी गाँव के सबसे व्यस्तम चौराहे पर, मेरे घर के सामने दुकान है इनकी| बचपन से मेरे घर का खुला खाता चलता है|
- ताऊ पाल्ले नाई (obc): पिता की भांति सख्त आदमी, नारियल के जैसे| यह दादा-पिता जी की हेयर-ड्रेसिंग करते आये और इनकी पत्नी यानि ताई जी दादी-बुआ-माँ की| बाकी नाईयों से बिलकुल भिन्न, कभी सर नहीं चढ़ाया, परन्तु जायज बात पे पीठ थपथपाई और गलत पे धमकाया भी|
- दादा कलिया कुम्हार (हिंदू - obc): हमारे घर के कुम्हार| इनका और इनकी पत्नी का जोड़ा, आज भी गाँव के सुंदरतम जोड़ों में गिना जाता है| जब भी इनके घर जाना होता तो हमेशा अपनों-सी-आवभगत मिलती|
- दादा जिले ब्राह्मण (general): हमारे खेतों के पड़ोसी| खेतों में जाटों के बाद किसी के साथ सबसे ज्यादा काम में हाथ बंटवाया तो इनके साथ|
- दादा छोटू तेल्ली (मुस्लिम): गाँव के सबसे शालीन, मृदुल भाषी बुजुर्ग| घर पे अक्सर आते| घर-खेत-घेर सबकी रखवाली करते| गाँव की प्राचीन बातें और इतिहास बहुत जानते थे| जब यह घर आते थे, तो मैं अक्सर सारे काम छोड़ के इनके पास बैठ जाता और गाँव की संस्कृति और इतिहास की बातें खोद-खोद के सुनता रहता|
- ताऊ लख्मी झिम्मर (sc/st): हमारे गाँव का सबसे पुराना तेल का कारखाना, उन्नसवीं सदी की मशीनें हैं आज भी इनकी चक्की में| जितना इनका हम से लगाव, उससे कहीं ज्यादा इनके बच्चों का| हमारे यहां अक्सर जब भी बिहारी मजदूर आते हैं तो इन्हीं की चक्की से आटा पिसवाया जाता है| घर में जब चक्की खराब हो जाती है तो इन्हीं के यहां जाता है| सरसों का तेल निकलवाना तो भी| मेरी आदत है इंवेस्टिगेट करने की, जब भी इनकी चक्की पे गया, पूरी वर्कशॉप में ऐसे छानबीन करते घूमता हूँ जैसे मेरे घर की चक्की हो|
- दादा भीमा खाती (obc): मेरे दादा जी के सबसे पुराने और गूढ़ साथियों में एक| हमारे घर के लकड़ी के काम से ले के मकान बनाने तक के सबसे ज्यादा कार्य इन्होनें और इनके बेटे दादा रमेश ने किये हैं| जब भी इनके घर जाना हुआ, दादी ने कभी भी बैठा के बातें करना नहीं छोड़ी| मेरे दादा जी कैसे बारातों में हमारे 'गाम-गोत-गुहांड' संस्कृति के तहत जिस गांव में बारात गई, वहाँ हमारे गाँव की 36 बिरादरी की बेटियों की मान करने सबसे आगे होते थे, सब कुछ इत्मीनान से बताया करते थे| मेरे पिताजी हमें कभी डांट लगाते और दादा जी देखते होते तो मेरे पिता जी को भी फटकारने से पीछे नहीं हटते थे, इतना हक़ और दखल होता था दादा का हमारी पारिवारिक जिंदगी में|
- दादा रामकरण खाती (obc): बच्चों से लाड करने के मामले में, यह वाले दादा तो आज भी बड़े नहीं हुए हैं| क्या मैं और क्या अब मेरे भतीजे-भांजी देखते ही दूर से ऐसे आवाज लगाएंगे कि 'आईये छोटे साहब, क्या हाल हैं; खूब कुप्पा हो गया हमारा साहब!'| गली में से निकलते हों और बालकनी में हम में से कोई खड़ा हो तो इनको देख के हमें भी जोश चढ़ता और देखते ही नमस्ते करते| और यह गली में तब तक ऊँची आवाजों से हमसे बतलाते चले जाते, जब तक कि आँखों से ओझल नहीं हो जाते|
- काका इंद्रा ऐहड़ी (कश्यप राजपूत – sc/st): ऐहड़ियों में दूसरे ऐसे व्यक्ति जो सबसे ज्यादा सीरी रहे हमारे यहां| वैध जी के कई सारे देशी नुश्खे भी जानते होते थे| काकी के तो कहने ही क्या| व्यवहार की शालीनता और अपनापन, आज भी यूँ का यूँ याद है| इनके घर बैठे हों, ऊपर से कोई हवाई जहाज निकल जाए तो कह उठती कि एक दिन फूल भी इन्हीं में उड़ेगा| आज सोचता हूँ कि कहीं ना कहीं काकी की दुआओं का भी हाथ है मुझे विदेश तक पहुंचाने में|
- राजपाल ऐहड़ी (कश्यप राजपूत – sc/st): शायद पांच साल सीरी रहा| ऊत मानस, नाते में भाई लगता है तो मेरा जो जी करे कहूँ| खेत के काम में परफेक्ट, हंसी-मखौल में अव्वल और शरारतें करने में उस्ताद| जब ज्यादा काइयाँपने पे उतरता तो इसको तो मैं अक्सर कह दिया करता, मखा मालिक तू सै कि मैं| तो फिर कहता भाई आप्पाँ तो सीरी-साझी यानि पार्टनर हैं| मखा हैं, पर तेरी रग-रग मैं जानू, जब तक ना दबाऊं, तूने सीधा चलना नहीं होता| ऐसा हंसी-मखोल की नोक-झोंक भरा रिश्ता| आज भी गाँव जाऊं, सामने टकरा जाए तो बन्दे की मिलने और बात करने की आत्मीयता दिल छू जाती है|
- दादा भुण्डा चमार (sc): "अनुराधा बेनीवाल को फूल मलिक का जवाब" वाले मेरे लेख में बताया था कि मेरे गाँव में चमारों की 50-60 साल पुरानी जाटों को टक्कर देती दो हवेलियां खड़ी हैं, उनमें से एक इन्हीं दादा की है| मेरे घर में मेरी देखत में सबसे ज्यादा सीरी रहे हैं| वो कहावत है ना कि "चमार आधा जाट होता है|" वो ऐसे ही चमारों बारे बनी है| नंबर एक नसेड़ी माणस, दारू पीने लग जाए तो तीन-तीन महीने काम पे ना आये| इनमें सबसे बड़ी क्वालिटी होती थी जानवरों को अच्छे से संभालने की| इनकी ब्रांड वैल्यू यह है कि जिसके घर यह सीरी लग गए, समझो उस घर की गाय-भैंसे दो महीने में ही मोटी हो जाएँगी| मेरे लिए सबसे डेडिकेटेड आदमी| पिता-दादी से किसी वजह से रूठ जाएँ तो भी मेरे कहने पे हरदम तैयार| स्वर्गीय दादा जी के मोस्ट-फेवरेट सीरियों में होते थे| इनकी पत्नी और माँ की आत्मीयता आज भी हृदय में लिए चलता हूँ|
- काका धीरा चमार (sc): दादा भुण्डा के साथ अक्सर ये ही जोड़ी में सीरी रहते थे| दोनों कम से कम छ-सात साल एक साथ सीरी रहे| इनकी अक्सर बड़े भाई से भिड़ंत होती थी और वो भी कौनसे वाली| मान लो पिता जी खेत से चले गए और बड़ा भाई खेत में है तो वो अक्सर ट्रेक्टर को छेड़ेगा, तो यह कहेंगे कि 'तेरा बाब्बू मेरे भरोसे छोड़ के गया है, किममें तोड़-फोड़ ना कर दिए इसमें|' और बड़ा भाई इनसे उलझता कि मुझे क्या समझ नहीं है| और ऐसी ही छोटी-छोटी नोंक-झोंक, परन्तु काका के दिमाग में अपने साझी के नुकसान की चिंता|
- काका धर्मबीर चमार (sc): जब मैं बारहवीं करता था तो ये बीए करते थे, अक्सर मजदूरी पर आते थे| मैं इनकी शिक्षा के प्रति लगन से बहुत प्रभावित था| बड़े अच्छे मित्र थे और यकीं है कि आज भी हैं|
- काका सुरेश चमार (sc): आज के दिन गाँव के सरपंच हैं| मेरी माँ के फेवरेट| सबसे ज्यादा छोटी मजदूरी पर यही आते रहे हैं| घर-खेत में मजदूरी के अलावा, रख-रखाव और सुरक्षा की अपनों जैसी चिंता| इनके पिताजी तो देखते ही गले लगा लिया करते थे| दिखा नहीं कि आइये रे मेरे फूल पोता| और फिर गांव-गलिहार की नई-पुरानी बातें बताने लग जाते|
- दादा चंदन चमार (sc): बचपन में हमारे घर के आगे अपनी जूती गांठने की स्टाल लगाया करते थे| लंच करने घर जाते तो सारा सामान समेट के हमारे घर रख जाते (रात को तो रखना होता ही था)| इनको छोटे बच्चों को चुहिया की आवाज निकाल के उससे डराने का बड़ा शौक होता था| सयाने और शातिर दोनों के लिए फेमस थे|
- काका महेंद्र धाणक (sc): यह और इनके पिताजी दादा किदारा धाणक, पूरे परिवार के साथ सीरी-साझी का रिश्ता रहा| हमेशा अपनी औलाद की भांति व्यवहार मिला| दादी-काकी सब बड़ी ही आत्मीयता से बोलती और मान देती|
- दादा दयानंद धाणक (sc): अभी जब 2014 में इंडिया गया था तो इनके पास बैठ के पूरे गाँव के इतिहास के अनखुले, अनुसने पन्ने लिख के लाया था| मेरे पिता-दादा के साथ मेरे व्यवहार को भी खूब सराहा| जब तक बैठा रहा, 15-20 लोग मेरे इर्दगिर्द रहे| उठ के जाने का टाइम हुआ तो मैंने ही चाय के लिए कहा| कहने लगे कि बिलकुल अपने पिता पे गया है| उस आदमी (मेरे पिता जी) ने भी दलित के हाथ की चाय पीने से, दलितों के बच्चे गोद में ले के खिलाने से कभी परहेज नहीं किया| मुझसे माफ़ी के लहजे में बोले कि भाई आप विदेश में रहते हो तो हमें लगा कि कहाँ हमारे घर की चाय पिओगे| उस चाय का स्वाद आज भी साथ है|
- आटा चक्की वाला काका संजय बनिया (general): खूब मोटा और हमेशा आटे की चक्की के चून में सफेद हुआ रहना, यही पहली तस्वीर उभरती है, जब इनके बारे दिमाग में आया तो| खड्डे वाले बनिए बोलते थे इनको, आज जींद शिफ्ट हो चुके| परन्तु घर औरतों का व्यवहार आज भी यूँ का यूँ जारी है|
- दादा हांडा सुनार (obc): गाँव का सबसे खड़कू आदमी| बच्चे डरते थे इनसे| सुनार की दूकान के साथ-साथ टायर-पंचर की दुकान भी चलाते थे| मेरी अक्सर साइकिल में हवा भरने पे इनसे लड़ाई होती थी| परन्तु लड़-झगड़ के फिर खुद ही भर देते थे| और घुरकी देते कि तू तो बालक है, तेरे से क्या अड़ूं, तेरे बाबू को भेजियो फिर देखता हूँ| और इतनी हंसी आती कि पेट फट जाते|
बाकी मैं (लेखक) खुद जाट हूँ तो जाटू संस्कृति की मिलनसारिता और मधुरिमा का उधर वाला पक्ष भी लिखने लगूंगा तो फिर कहानी अंतहीन लम्बी हो जाएगी|
तो अरे ओ नादानों, समाज को कभी धर्म तो कभी जाति में तोड़ के राज करने की कुमंशा रखने वालो, तुम्हें क्या लगता है तुम माँ की गोदी से बच्चा छीनोगे और हम यूँ बैठे-बिठाए ही छीन ले जाने देंगे? इतनी कमजोर नहीं हमारी संस्कृति, यह हरयाणा है, होश करो|
जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर
लेखक: पी. के. मलिक
प्रकाशन: निडाना हाइट्स
प्रथम संस्करण: 11/03/2016
प्रकाशक: नि. हा. शो. प.
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