मंडी और फंडी स्याना कितना ही बन ले, परन्तु इसकी सबसे बड़ी कमजोरी होती है कि इसको दूसरों पर जुल्म ढाते हुए दर्द नहीं होता, दूसरों की तड़पन से इसको मानसिक सुख मिलता है, परन्तु जब वही चाबुक इसपे खुद चलता है तो यह सबसे पहले त्राहिमाम् कराह उठता है; और फिर उन्हीं इन्हीं के द्वारा प्रताड़ित जातियों से ही सहारे ढूँढा करता है|
मंडी और फंडी की एक और भी कमजोरी होती है और वो है कि इसको खुद के लछणों से बिगड़े हुए हालात संभालने नहीं आया करते; अपने अतिआत्मविश्वास में टूलता हुआ बिगड़े हुए हालातों को समय रहते संभालने की बजाय, इसके दुष्परिणामों से डरा हुआ यह और क्रूर, अति क्रूर होता जाता है और अंत में यह क्रूरता ऐसी अनियंत्रित स्थिति पैदा कर देती है कि फिर किसान-कमेरी जनता को ही वो हालात संभालने पड़ते हैं| इसका यह चरित्र इसलिए भी है क्योंकि इसने वो
मनुसमृति पढ़ी होती है जो इसके लिए कहती है कि तुम श्रेष्ठ हो, तुम पाप भी करो तो क्षमा-योग्य हैं| इसलिए गलती के लिए माफ़ी मांगने की बजाये यह उसपे गलती-पे-गलती करता जाता है और इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर लेता है, जितना कि महमूद ग़जनी को सोमनाथ मंदिर की लूट तक ले जाने के लिए काफी होता है अथवा पृथ्वीराज की मौत का अप्रत्यक्ष सामान बनने को काफी होता है| और फिर बाद में उसको संगवाना पड़ता है किसान-कमेरे मुख्यत: जाट को ही| अब देख लो भाई बाला जी जाट महाराज जैसे यौद्धेयों द्वारा सोमनाथ की लूट को लुटेरों से लूट के देश में ही बनाये रखना हो या यौद्धेय श्री रामलाल जी खोखर द्वारा गौरी को मारकर पृथ्वीराज की मौत का अधूरा पड़ा बदला लेना हो दोनों ही काम जाटों ने किये| यानी इनके हागे हुए हमेशा से संगवाये| ऐसे ही बुद्ध धर्म पर ढाये जा रहे इनके जुल्मों को इनकी एक लाख सेना को सिर्फ नौ हजार खाप यौद्धेयों द्वारा रोकना हो, परन्तु जब भी इनके इस बेपरवाह हुए अंध-हाथी रूप को नकेल डाली तो किसानों ने ही डाली| आधुनिक जमाने में इसका उदाहरण दूँ तो मुज़फरनगर के दंगे इसका सटीक उदाहरण हैं| परन्तु इनका हगना तो इतना बढ़ता जा रहा है कि अबकी बार तो मुझे इस वक्त की कोई धुन्धलकी भी नहीं दिखती कि जब किसान-कमेरे और जाट मिलके इसको संगवाएंगे|
खैर जब मुग़ल भारत में आये तो उनके आने से दो बातें हुई, एक तो इन स्थानीय मंडी-फंडी के किसान-कमेरे को अपनी मर्जी से लूट के खाने के रास्ते अवरुद्ध हुए और दूसरा किसान-कमेरे के साथ-साथ इनके ऊपर भी मुग़लों का चाबुक चलने लगा| हालाँकि मुग़लों के आने से किसान की हालत में कोई ख़ास बदलाव नहीं आये अपितु किसानों को तो अपना मुद्रा धन व् स्त्रीधन बचाने हेतु और ज्यादा जरूरी कदम भी उठाने पड़े और यातनाएं तो झेलनी ही पड़ी परन्तु सबसे बड़ा धक्का लगा मंडी-फंडी की मंशाओं को|
लेकिन यह इतने शातिर निकले कि औरंगजेब के जमाने तक मुग़लों को यह बोल कर टैक्स देने से बचते रहे कि हम तो विदेशी हैं, हम हिन्दू नहीं हैं| लेकिन जैसे ही औरंगजेब ने जजिया कर में इनको भी शामिल किया तो इतना त्राहिमाम मचाया कि आज तक भी औरंगजेब को यह इतिहास का क्रूरतम बादशाह लिखते हैं|
औरंगजेब के जमाने के समानांतर अंग्रेज भारत में एंट्री ले चुके थे और धीरे-धीरे अंग्रेजों ने पूरा भारत
(कुछ जाट रियासतों जैसे कि भरतपुर और पंजाब की रियासतें - इनके साथ मैत्री और बराबरी की संधियां हुई थी) छोड़ कर पूरे देश पर एकछत्र शासन शुरू किया और इन्होनें तो स्थानीय मंडी और फंडी की ऐसी नाक भींचीं कि इनको आज भी सपनों में अंग्रेजी राज नजर आता है|
तो इस तरह मंडी-फंडी को जब मुग़ल और अंग्रेज काबू में रखते थे तो इनको अपनी ही सुध लेने की फुर्सत नहीं होती थी,
(क्योंकि अब किसानों के साथ-साथ मंडी-फंडी दोनों को मुग़ल-अंग्रेज लूट रहे थे) फिर किसानों को कैसे लूटा जाए इसकी तो बात ही कहाँ आनी थी; ठीक वैसे ही पुष्यमित्र और दाहिर के बीच वाले काल वाली लूट और अत्याचार, जिसकी वजह से कि देश गुलाम हुआ था, आज आज़ादी के 67 साल बाद यह लोग वापिस से अपने उसी ढर्रे पर आये हुए प्रतीत होते हैं|
ऐसा लगता है कि या तो इन्होनें 1300 साल के गुलामी के काल से कुछ सीखा नहीं अन्यथा इनके जीन में ही लोकतांत्रिकता का गुण नहीं|
अंग्रेजों के काल में एक अच्छी बात यह हुई कि एक तरफ जहां मंडी-फंडी की ताकतें अंकुश में थी, किसानों पे इनका सीधा कंट्रोल नहीं था, वहीँ
दीनबंधु सर छोटूराम जैसा ऐसा देदीप्यमान किसान-मसीहा हुआ जो कि एक ही पल में अंग्रेजों से किसानों की फसलों के दामों के भाव-तोल करवा लिया करता था| जिस फसल के अंग्रेज 6 रूपये प्रति किवंटल का भाव निर्धारित करते उसके लिए वो मसीहा छोटूराम 10 रूपये प्रति किवंटल के भाव मांगता और जब अंग्रेज अड़ते तो आप अड़ते और अंग्रेज हार के जब बोलते कि अच्छा छोटूराम 10 रूपये भाव ही ले लो तो आप कह देते कि अब भाव मैं नहीं मेरे किसान लेंगे और वो भी 11 का और अंग्रेज 11 का भाव दे देते|
लेकिन सर छोटूराम को कौनसा यह मंडी-फंडी बक्शते थे, अभी गए वर्षों तक भी अंग्रेजों का पिठ्ठू कह के बुलाते रहे हैं| और शायद इस लेख को पढ़ने के बाद कुछ भक्त किस्म के लोग मुझे भी बुलाने लग जाएँ, लेकिन जब एक किसान-वंशज की कलम चलती है तो हर तरफ का बैलेंस बना के लिखती है मुझे इस बात का गर्व है|
अरे विदेशी होते हुए भी अंग्रेज इतनी दया तो मन में रखते थे कि वो किसान का मर्म जानते थे और इंसानियत के साथ विरोध के फलस्वरूप ही सही परन्तु न्याय दे देते थे| लेकिन आज जब खुद को राष्ट्रवादी और देशभक्त बता शुद्ध रूप से स्वदेशी धर्म की सरकार बताई जा रही है तो वो अपने ही उन किसानों जिनको कि "हिन्दू एकता और बराबरी" के नारे दिए जाते हैं, उनको दस दिन होने को हैं जंतर-मंतर पर बैठे हुए अपना दुखड़ा रोते हुए और वर्तमान सरकार में से कोई उनको ढंग से सुनने को तैयार नहीं|
तो क्या मैं गलत तुलना कर रहा हूँ इस पूर्व की दूसरी सदी से आठवीं सदी के उन क्रूर राजाओं और आज की सरकार की ...... निसंदेह नहीं| आखिर यही तो शुद्ध जीन है शुद्ध रूप से मंडी-फंडी की सत्ताप्राप्ति में किसान के मर्म को समझने का|
लेकिन आज अगर मंडी-फंडी बेलगाम हुआ जा रहा है तो यह आज की नहीं बल्कि उन 25 सालों की अजगर (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) किसानी वर्ग की सबसे बड़ी जातियों व अन्य छोटी किसानी जातियों की आपसी फूट का नतीजा है जिसकी नींव इन्हीं मंडी-फंडियों ने 1991 में डाली थी| और आज फिर से जाट-आरक्षण का जिन्न जिन्दा करके यह लोग उसी फूट को और भुना रहे हैं और कुरुक्षेत्र के एम.पी. से ले के गुडगाँव के एम.पी. तक इनकी चालों में सधे बैठे हैं और किसान बिरादरी की जातियों की खाईयों को कम करने की बजाय बढ़ाते ही जा रहे हैं| क्या यह किसान का दुर्भाग्य नहीं कि कहाँ तो इन दोनों एम्पियों (M.P.s) को ओ.बी.सी. के आरक्षण गेज को ओ.बी.सी. जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से 27% से 54% बढ़वाने के लिए आवाज उठानी चाहिए थी और कहाँ यह दोनों मंडी-फंडी की डुगडुगी बने बजे जा रहे हैं|
और यह नतीजा है किसानों की सबसे बड़ी खाप सोशल इंजीनियर संस्था के शुद्ध सामाजिक से राजनैतिक हो जाने का अथवा अधिकतर मीडिया द्वारा इनकी छवि को नकारात्मक दिखा के इनको औचित्यहीन दिखाने और बना देने का| इसी संस्था पर एक हथोड़े की तरह फंडी और मंडीवादी मीडिया द्वारा लगातार चोट करके इसको हासिये पर भेजने का| अभी मार्च के प्रथम पक्ष में मैंने राष्ट्रीय मीडिया के हिंदी के सबसे प्रखर माने जाने वाले एंकर को, "
जख्म देने वाला मरहम लगाने आया है" के शीर्षक से एक छोटा जवाब लिखा था, जब वो किसानों की प्राकृतिक आपदा से बिछ चुकी फसल पे अपने ललित निबंध वाले घड़ियाली राग अलाप के आये थे| जब उन्होंने कहा कि कौन है जिम्मेदार किसानों की इस हालत का, क्यों कोई नहीं बोलता इनके हकों के लिए तो मैंने जनाब को जवाद दिया था कि जनाब जो बोला करते थे यानी खाप उनको तो आपने निरर्थक अंधी आलोचनाएँ कर-कर के उत्साहहीन बना दिया है और अब खुद ही पूछते हो कि क्यों कोई नहीं बोलता? 2011 तक जब तक बाबा टिकैत जिए तब तक तो यह लोग दबी जुबान में रहे परन्तु उनके जाने के बाद तो इन्होनें ऐसे चौतरफा हमले किये कि आज किसान की ऐसी हालत हो रखी है कि किसान जंतर-मंतर से ले देश की गली-कूचों में कहीं धरने तो कहीं आत्महत्याएं कर रहा है; पर क्या मजाल कि इन पुष्यमित्रों, शशांकों और दाहिरों के कानों पर जूँ तक रेंगती हो|
तो ऐसे में क्या चीज है जो किसान को फिर से खड़ा होने के लिए जरूरी है? क्या तालमेल, तार-तम्य बिठाने की लोड है कि किसान फिर से याचक और लाचार की जगह लोकतंत्र में एक निर्याणक व् सम्मानजनक भूमिका में वापिस आये?
वो जरूरत है किसानों को अंग्रेजों और मुग़लों के जाने के बाद से इन मंडी-फंडी पर ढीली हुई लगाम को फिर से कसने वाले एक ऐसे गैर-राजनैतिक किसान-कमेरे के उस मंच की जो राजनेता तो दे परन्तु संगठन को चलाने वाली सामाजिक मशीनरी अलग से रखे| एक ऐसी मशीनरी जो किसान के लिए हर प्रकार के शोध करे, नीतियां निर्धारित करे और अपने या विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से अपनी बातों को एक किसान आयोग की भांति मनवाये| और वो सारे काम करे जो मैंने मेरे लेख, "
अगर आज सर छोटूराम होते तो" में लिखे हैं| सर छोटूराम असमय स्वर्ग सिधारे, भगवान और समय देता तो उनका उत्तराधिकारी भी निर्धारित करके जाते, या अंग्रेजों और मुग़लों के जाने से खुले सांड बनने वाले मंडी-फंडी को बांधे रखने का कोई रास्ता सुझा के जाते| और निसंदेह वो भी कुछ ऐसा ही कहके जाते कि किसानों-कमेरो आपको राजनैतिक रूप से मजबूत रहने के लिए सामाजिक रूप से संगठित रहना होगा और उसके लिए अपने खापों की तरह की संस्थाओं को चिरस्थायी व् आधुनिक बनाना होगा| लेकिन आज देखता हूँ तो खापों के नेता ही सबसे ज्यादा राजनैतिक महत्वकांक्षी हो चुके हैं| जिस सामाजिक सरोकार के लिए यह संस्थाएं होती थी, उसके लिए विरला ही खाप-नायक काम करता दीखता है, जो कि ऊँट के मुंह में जीरे के समान है|
निसंदेह खापों में ऐसे शुद्ध सामाजिक चेतना के लोगों की कमी आई है जो शुद्ध रूप से सामाजिक सरोकारों के लिए असरदार पैरवी किया करते थे| उदाहरणत: मुझे 1953 का वो किस्सा याद आता है जब सर्वजातीय सर्वखाप के महामंत्री रहे स्वर्गीय दादा चौधरी काबुल सिंह बालियान जी उस वक्त के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिलकर बेझिझक कहते हैं कि आधुनिकरण और सिनेमा का ऐसा तारतम्य सुनिश्चित कीजिये कि इसके नकारात्मक प्रभावों से समाज को बचाया रखा जा सके|" तो इस पर पंडित नेहरू तपाक से उनको कहते हैं कि आप अवश्य ही जाट होंगे, जो समाज में इन प्रभावों तक की चिंता व् विवेचना रखते हैं| और दादा जी की यह दूरदर्शिता और इसपे चिंता कितनी वाजिब थी, आज के किसान के हालात देख कर इसको सहजता से समझा जा सकता है| आज किसान-कमेरे वर्ग को बिलकुल ऐसे ही सामाजिक चैतन्य के चिंतकों व् दूरदर्शियों की जरूरत है|
इसलिए किसान के वंश का शहरी हो या ग्रामीण, युवक-युवती को अब ऐसे ही सामाजिक तौर पर संगठित हो, मंडी-फंडी को नकेल डालने वाली संस्था फिर से खड़ी करनी होगी| गाँवों-किसानों के यहां से प्राइमरी प्रोडक्ट की जगह जितना हो सके उतना सेकेंडरी प्रोडक्ट मार्किट में जाए, इसके संयुक्त प्रयास करने होंगे, अपनी दान देने की ताकत
(पैसा और खून दोनों का दान) और अपनी कंज्यूमर पावर दोनों को पहचानना होगा| सरकार की चालों, घड़ियाली मान-मनुहारों में ज्यादा वक्त ज्याया ना करते हुए किसान जातियों को अपने सामाजिक संगठन को फिर से खड़ा करना होगा| और इसमें जाटों को तो सबसे ज्यादा अहम भूमिका निभानी होगी| जाटों को अन्य ओबीसी से भिड़ाने की तमाम सरकारी -गैर सरकारी मंशाओं को भांपते और समझते हुए अपनी भाईचारा व् समक्ष जातियों के साथ खड़ा होना होगा, ताकि आगे आने वाली चुनावी परीक्षा में मंडी और फंडी ताकतों को उनकी हैसियत के हिसाब से सही जगह बताई जा सके| सरकार ने जाटों के आरक्षण की ठीक से पैरवी ना करके जो संदेश दिया है वो किसान समाज को पूरे पांच साल तक भटकाए रखने की मंशा की तरफ ही इशारा करता है|
वर्तमान सरकार जिस हिसाब से किसान और जाट के लिए रवैया अख्तियार किये हुए है वह ऐसा रूख है जो अगर सही से नहीं संभाला गया तो कहीं जाट यूथ को एक और 1984 जैसा काल ना भुगतना पड़ जाए, अथवा ऐसे हालत ना हो जाएँ कि दूसरी फ़्रांसिसी क्रांति खड़ी हो जाए अथवा फिर से किसी बुद्ध को किसान-कमेरे को मंडी-फंडी के अहंकारी रवैये से निकालने हेतु अवतारना पड़े| हाँ एक रास्ता मेरे दिमाग में जो आता है वो यह कि किसानों को मंडी-फंडी से असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहिए| इस आंदोलन के नतीजे स्वरुप हासिल क्या हो उसका सबसे सटीक और आज की शताब्दी में वाजिब बैठता उदाहरण है फ़्रांसिसी क्रांति के परिणामस्वरूप हासिल बिंदु| हाँ यही ठीक होगा, किसान समाज को असहयोग आंदोलन के रास्ते चल अब भारत में २१वीं सदी के फ़्रांसिसी क्रांति करनी होगी, परन्तु कुछ मेरे "
आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़ी!" लेख में बताये जैसी राह ले के|
हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!