ऐसी ही और भी मान-मान्यताएं हैं जो कि जाट-सभ्यता को बाकी भारतीय सभ्यता से नारी के मामले में भिन्न तो दर्शाती ही हैं साथ ही कहीं ज्यादा लचीला भी सिद्ध करती हैं| इसमें ख़ास बात यह भी है कि यह मान्यताएं किसी भी धर्म-शास्त्र में नहीं लिखी गई, ना ही इनको किसी धर्माधिकारी ने आजतक सार्वजनिक मान्यता दी| लेकिन बाकी सर्वसमाज ने मान्यता भी दी और अंगीकार भी किया| और ऐसी ही मान्यताओं की वजह से धर्माधिकारी जाट-सभ्यता को उनके एंटी बोलते आये हैं| लेकिन जाट-बाहुल्य धरती की अधिकतर जातियां इन्हीं मान्यताओं को व्यवहार में बरतती हैं| यहां मैं कारोबारी व् व्यक्तिगत क्लेशों व् झगड़ों की अतिश्योक्तिओं को दरकिनार नहीं करना चाहूंगा| यह समाजों में ऐसे जुड़ी हैं जैसे एक रसोई में बर्तनों की खड़खड़ाहट|
इस बात को लिखते हुए जो अहंकार झलक रहा है उसको पढ़ के कोई भी मुझे कहना चाहेगा कि जाट क्या कोई अलग अनुसरण करते हैं इन बातों का, अन्य भी तो लगभग हर समाज अनुसरण करता है|
हाँ करता है बिलकुल करता है, लेकिन तभी तक जब तक जाट इनका प्रहरी बनके खड़ा है| क्योंकि यह इतिहास में भी और अभी आधुनिक काल में भी समय-समय पर प्रमाणित हुआ है कि जब भी इन मान्यताओं पर आंच आती है तो सबसे पहले जाट बोलता है; वस्तुत: मुख्यत: जाट ही बोलता है| उदाहरण के तौर पर चाहे
'गांव-गोत-गुहांड' के नियम को ले के सुप्रीम कोर्ट में हिन्दू मैरिज एक्ट में समगोत ब्याह को ले कानून में बदलाव की मांग हो अथवा
खाप सामाजिक इंजीनियरिंग सिस्टम को बचाने हेतु सुप्रीम कोर्ट में इनकी पैरवी करने की बात हो| सन 2005 से ले के फ़रवरी 2013 तक इन दोनों मामलों को अकेले जाटों ने लड़ा| जब देखा कि जाट अडिग हैं और इनको खत्म नहीं होने देंगे तो साथ दिखने हेतु एक-दो समाज बाद में जुड़े; परन्तु सारे समाजों का इन मुद्दों पे एक-साथ जुड़ना अभी भी बाकी है|
मुझे मेरा समाज माफ़ी देवे इन तथ्यों को ऐसे सिर्फ जाट के लिए क्लेम करते हुए| मेरे माँ-बाप ने भी मुझे इन चीजों को ऐसे कहने बारे मना किया
परन्तु इस अति-मानवतावादी मनाही के चलते जाट-सभ्यताओं की ना तो कभी डॉक्यूमेंटेशन हो पाई और ना ही इनका प्रचार; संरक्षण पे तो खैर जो बादल मंडरा रहे हैं सो मंडरा ही रहे हैं| बात सही भी है जब तक अपनी कह के सम्बोधित नहीं करूँगा तब तक इनकी मार्केटिंग अथवा प्रमोशन कैसे करूँगा? और वैसे भी जब इनको बचाने हेतु जाट लगभग अकेला लड़ता है तो इनको इसने ईजाद किया ऐसा क्यों ना कहूँ? दूसरे समाजों से भी मैंने इन बारे बहुतों बार बातें की हैं कि इन मान-मान्यताओं को मानते तो आप भी हो तो सुप्रीम कोर्ट में इनके रक्षण हेतु जाट के साथ क्यों नहीं खड़े होते? आजतक किसी एक का भी कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया, सिवाय या तो गोल-मोल जवाब देने के या यह कहने के कि हम बात की एक ख़ास स्थिति तक पहुंचने तक इंतज़ार करना बेहतर समझते हैं या फिर दुर्भाग्य से सही लोग मुझे अभी मिलना बाकी हैं|
और इसी वजह से कहता हूँ कि जाट की इन मान्यताओं को तोड़ने की कोशिशें भरपूर होती हैं परन्तु एक
'लिटमस टेस्ट' की भांति जब जाट का अडिग रवैया परख लिया जाता है तो मंडी-फंडी समाजों के पास जाट के साथ जुड़ने के अलावा कोई चारा नहीं रहता| मैं यहां थोड़ा व्यथित हो के लिख रहा हूँ परन्तु सच्चाई यही है| ऐसी मान्यताएं रही हों अथवा खाप सिस्टम, अन्य समाज इनसे तभी जुड़ें हैं जब उनको इनमें जाट समाज की कटिबद्धता दिखी है| वरना धार्मिक तंत्र की तरह जाट ने कभी किसी को बाध्य नहीं किया कि आपको यह चीजें माननी ही होंगी| नहीं, सब सर्वसमाजों को इनमें अधिक मानवता व् भाईचारे का गुण पाया तो वो जुड़ते रहे| परन्तु आज जब जाट ही मंडी-फंडी के षड्यंत्रों के चलते इनको ढीली छोड़ रहे हैं तो दूसरे समाजों की भी इनके प्रति कटिबद्धता स्वत: घटी है| और इसी मंडी-फंडी के खेल को समझने हेतु इस लेख में मेरी कलम परत-दर-परत परतें खोलती जा रही है ताकि जाट को यह समझ आये कि समाज से उसकी छवि कैसे उतारी जा रही है और कैसे यह कायम रखी जा सकती है|
और क्योंकि जब तक जाट अडिग रहता है तो मंडी-फंडी के लिए जाट से जुड़े दूसरे समाजों को जाट से तोड़ना लगभग नामुमकिन रहता है| असल में उत्तरी भारतीय सभ्यता की सामाजिक प्रतिनिधत्व की लड़ाई जाट बनाम मंडी-फंडी के अलावा कुछ और रही ही नहीं और आज भी इसके अलावा कुछ नहीं| आज भी हरयाणा जैसे प्रदेश में जाट बनाम नॉन-जाट का जो जहर मंडी-फंडी द्वारा बोया जा रहा है वो दलित और ओबीसी समाजों को जाट से तोड़ के अपने साथ जोड़ने के षड्यंत्र के अलावा कुछ है ही नहीं|
ओके ठीक, यह तो परिदृश्य दिखाया कि क्यों जाट और मंडी-फंडी की लड़ाई रही है| अब आता हूँ इस लेख के टाइटल में, जिसका सार इस ऊपर लिखित परिदृश्य से ही होकर गुजरता है, यानी जाट को औरत के प्रति सबसे क्रूरतम दिखाने का खेल क्यों और कब से जारी है|
जारी तो सदियों से है, परन्तु वर्तमान स्वरूप वाले की भूमिका 1991 में तब से घड़ी जानी शुरू कर दी गई थी जब मंडी-फंडी ने अजगर गठजोड़ को तोड़ ताऊ देवीलाल और वीपी सिंह के रूप में किसान-कमेरे की बनी सरकार को गिराया था| और सर छोटूराम के जमाने से चले आ रहे इस गठबंधन का किला ढाया था| अब यहां से खेल शुरू हुआ इस गठबंधन के अगुवा जाट की छवि को धूमिल करने के बवंडर का|
और इसके लिए मंडी-फंडी को चोट करने हेतु सूझी उसको सदियों से रड़क रही जाट की औरत के प्रति उनसे कहीं अपेक्षाकृत अधिक निर्मल व् निष्पक्ष छवि| यहां जाट समाज ध्यान देवे कि जब यह लोग अजगर गठबंधन को ढाने के बाद, जाट सभ्यता को ढाने के मोर्चे गढ़ रहे थे, जाट समाज तब भी
'के बिगड़ै सै, देखी जागी' वाली कुम्भकर्णी निंद्रा में सोया पड़ा था|
समाज का राक्षस चालों पे चाल चल रहा था और जाट व् अन्य तमाम समाज सोये पड़े थे| यह इस बात का दूसरा सबूत है कि इन ऊपर लिखित मान-मान्यताओं की जाट समाज ही अगुवाई क्यों करता है और क्यों मंडी-फंडी ने औरतों के प्रति क्रूर बना के दिखाने को जाट समाज को ही चुना? क्योंकि वो जानता है कि जब तक जाट इन मान्यताओं की अनुपालना करता है बाकी का समाज भी करता रहेगा| एक बार जाट को ढाह के इसके ऑप्शन को खत्म कर दिया तो बाकी के समाज को स्वत: उनमें (मंडी-फंडी) ही ऑप्शन दिखेगा और यह खेल अपने शुरुवाती प्यादे सही-सही चल भी गया है| इसीलिए तो वेस्टर्न यू. पी. में जाट को मुस्लिम से खुद की सुरक्षा के लिए ओढ़ रखा है और हरयाणा में आते ही उसी जाट को मुस्लिम की तरह ट्रीट करते हुए हिन्दू धर्म की बाकी 35 बिरादरियों की बिफरन के आगे अड़ा रखा है| सच कहता हूँ एक पल को वेस्टर्न यू. पी. को भी मुस्लिम से रहित करके हरयाणा वाली स्थिति की कल्पना करो, अगर वहाँ भी इनको जाट में ही मुस्लिम ना नजर आने लग जाए तो| हालाँकि माहौल ऐसा बनाया हुआ है परन्तु धरातल पर तमाम ओबीसी और दलित ऐसा भी नहीं है कि वो बिलकुल ही इनकी मंशानुसार जाट के विरुद्ध आन खड़ा हुआ है| वो आज भी जाट के मुड़ने और उसके एक्शन का इंतज़ार कर रहा है|
आगे बढ़ता हूँ, तो 1991 के बाद तय हुआ कि अब अजगर व् अन्य किसानी जातियों की एकता तो तोड़ दी है, अब तोड़ते हैं जाट की सभ्यता व् संस्कृति को, ताकि 35 बिरादरी का जो भी हिस्सा जाट का अनुसरण करता है उसको विखंडित कर जाट के विरुद्ध किया जा सके और जाट को अकेला अलगाव में ला के छोड़ दिया जावे, बिलकुल
'अंधी पीसै, कुत्ते चाटें' वाली स्थिति बना के|
1991 के इस वक्त तक प्रिंट बाहुल्य मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी एंट्री हो चुकी थी, एकमात्र दूरदर्शन चैनल के साथ-साथ केबल टीवी और प्राइवेट चैनल आने शुरू हो गए थे| तो अब दो चीजें थी, एक किन हथियारों से जाट सभ्यता पे हमला हो और दूसरा जाट सभ्यता के कौनसे पहलु पे हमला हो|
तो इस हेतु हथियार बनाये गए मीडिया, एन.जी.ओ., आर्यसमाज की मिशनरीज द्वारा औरतों व् जाट मान्यताओं के मुद्दों पे या तो चुप्पी साध लेना या जैसा वो चाह रहे थे वैसा प्रचार करवाना व्
चौथा मुंबई में मराठों से पिटते उत्तरी-पूर्वी भारतीय शरणार्थियों का जाटलैंड की तरफ रूख करना, जो कि अभी तक जितना भी था वो पंजाब की तरफ ही था, दिल्ली, एन.सी.आर. या हरयाणा की तरफ नगण्य था|
और चोर दरवाजे से पहलु चुना गया जाट सभ्यता का नारी पक्ष|
हालाँकि मैं चारों हथियारों को एक साथ ले के स्थिति समझाऊंगा तो फिर यह लेख ना रह के इतना लम्बा खिंच जायेगा कि एक अध्याय ही बन जायेगा| इसलिए यहां मैं मीडिया, एनजीओ और आर्यसमाज के रूख को लेते हुए इन चालों को समझते हुए बयान करता चलूँगा| शरणार्थी एंगल पर कभी अलग से लेख उकेरूँगा|
- विगत वर्ष एनडीटीवी पर प्रियंका चोपड़ा के साथ नारी अधिकारों पर एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ था जिसमें प्रियंका रोहतक के एक गाँव में सैटेलाइट के जरिये बलात्कार के मुद्दों पर जाट व् खापों से रूबरू हो रही थी| इससे संबंधित पूरी वीडियो आप एनडीटीवी की वेबसाइट के आरकाइव सेक्शन में जा के देख लेवें| उस कार्यक्रम का सिर्फ वो हिस्सा यहां जिक्र में ले रहा हूँ जो मेरी बात को समझने में सहायता करेगा| प्रियंका ने पूछा कि जब कोई बलात्कार करता है तो उसको सामाजिक सजा जैसे कि मुंह काला कर देना अथवा सार्वजनिक फतवा वगैरह का प्रावधान क्यों नहीं है आपके यहां? आखिर लड़कों को इतनी सुरक्षा क्यों?
इस पर जाटों व् खाप ने दो टूक जवाब दिया कि लगभग डेड-दो दशक पहले तक सब कुछ होता था, बलात्कारी या गाँव की बहु-बेटी से सामान्य सी आपत्तिजनक गैरमर्यादित छेड़-छाड़ करने पर अपराधी का मुंह भी काला किया जाता था, उसका सर भी मुंडवाया जाता था, उसके गले में जूते-चप्पलों की माला भी डाली जाती थी और गधे पे उल्टा बिठा के पूरे गाँव का चक्कर भी लगवाया जाता था| और ऐसी ही अन्य तरह की जैसे कि जुरमाना लगाना अथवा घाघरी पहना देना जैसी सामाजिक सजाएं सब होती थी और अभी तक होती आई|
तब प्रियंका बोली तो अब क्या हुआ? इस पर जवाब आया कि इन एनजीओ और मानवाधिकार वालों ने सब कुछ बंद करवा दिया| और जब से बंद करवाया है तब से ही लड़के ज्यादा बिगड़ैल, उडारु यानी खुल्ले-सांड और गैर-सामाजिक तत्व ज्यादा बनते जा रहे हैं| वर्ना तो हर एक की अक्ल भी ठिकाने रहती थी और दिल-दिमाग भी नियंत्रित रहते थे|
इस पर प्रियंका सिर्फ अच्छा-अच्छा ही करती रह गई|
तो इस किस्से के जरिये मैं इस लेख के पाठकों को यह बताना चाहता था कि कैसे मंडी-फंडी ने हमारे समाज का औरतों के इर्द-गिर्द जो सुरक्षा कवच था उसको इन एनजीओ और तथाकथित मानवाधिकार वालों के जरिये तुड़वाया|
और जाट सभ्यता को तोड़ने हेतु इनका रवैया इतने घटिया और संकुचित मानसिकता का है कि अगर बलात्कारी को यह सजाएँ देने की बात पर चर्चा प्रियंका चोपड़ा की जगह किसी जाट, खाप या अन्य हरयाणवी ग्रामीण ने कर दी होती तो तालिबानी से ले के रूढ़िवादी जैसे तमाम तमगे जड़ने में पल भर का विलम्ब ना करते| और दूसरी विडम्बना यहां यह भी समझिए कि आधुनिकता की सिंबल एक एक्ट्रेस यह पूछ रही है कि आप सामाजिक सजाओं का प्रावधान क्यों नहीं रखते| वाह रे इनके खेल, पहले खुद एनजीओ और मानवाधिकारों को आड़े रख इन चीजों को खत्म करवाते हैं और फिर इन्हीं चीजों की वकालत करके खुद को समाज हितैषी दर्शाते हैं| यहां यह लड़ाई इस बात की भी है कि ग्रामीण समाज से हर प्रकार का समाज हितैषी तमगा छीन के अपनी कैप में टांगो, फिर चाहे उसको तालिबानी दिखाने हेतु इन्होनें ही एनडीटीवी वाले रवीश कुमार की भांति पांच-पांच छह-छह मिनट के प्राइम टाइम इंट्रो के ललित निबंध बाचे हुए हों|
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अब जो बिंदु लिखने जा रहा हूँ वो एक ऐसी संस्था के नकारात्मक रोल बारे लिखने जा रहा हूँ, जिसके प्रवचन सुन-गा और धार के मैं बड़ा हुआ| जिसके जब मेरे घर के चौराहे जिसको मेरी निडाना नगरी में 'मैदान' बोलते हैं वहाँ कार्यक्रम हुआ करते थे तो उसके पूरे स्टेज सञ्चालन में आल्हादित करने वाले जोश-उमंग के साथ आहुति दिया करता था| जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ, जाटों के प्रिय रहे आर्यसमाज पंथ की| हालाँकि समगोत्री विवाहों के मामलों में आर्य-समाज मंदिरों की संदिग्धपूर्ण भूमिका होते हुए 2009 से ही मेरी इन पर प्रश्नात्मक दृष्टि रहने लगी थी| प्रश्नात्मक इसलिए क्योंकि 'आर्य-समाज' की पवित्र पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' के अनुसार पिता के साथ-साथ माता की तरफ की छह पीढ़ियों के गोत्रों तक में विवाह ना होने का विधान लिखे होने के बावजूद भी यह लोग सगोत्रीय विवाह वो भी बिना उन्हीं माता-पिता की अनुमति या उपस्थिति के जिसकी उपस्थिति व् अनुमति की 'सत्यार्थ प्रकाश' ही वकालत करता है, यह लोग सगोत्रीय प्रेमी जोड़ों के विवाह करवाते पाये और सुने गए| गौरतलब है कि अगर 'सत्यार्थ प्रकाश' में इन नियमों में बदलाव की आवश्यकता आन पड़ी थी तो बिना उसमें सार्वजनिक संशोधन घोषित किये यह लोग ऐसा कर रहे थे| अमूमन तब के जाटों को सिख धर्म में जाने से रोकने हेतु 'सत्यार्थ-प्रकाश' में बहुत सी जाट-मान्यताओं को शामिल किया गया था, जिनमें से विवाह की पद्द्ति एक थी|
लेकिन हद तो तब हुई जब 2013 में मुझे मेरे गाँव के एक हाई-स्कूल विद्यार्थी व् रिश्ते में मेरे भतीजे ने जब फ़ोन पे मुझे बताया कि उनके स्कूल में एक आर्य-प्रतिनिधि सभा ने दो दिन का योग कैंप लगाया था और उसमें बच्चों को बताया कि अगर तुम अपने गाँव के दादा खेड़ा की हकीकत सुनोगे तो इसको खुद ही उखाड़ फेंक दोगे| मतलब एक दशक से भी कम समय में जाटों का सर्वप्रिय अंगीकृत तंत्र जाटों की ही जड़ काट रहा था| वह तंत्र जिसमें 'जय दादा खेड़ा' व् 'जय निडाना नगरी' के उद्घोषों के साथ कार्यक्रम प्रारम्भ व् सम्पन्न होते थे, वही आज उसके खिलाफ प्रचार में मशगूल थे? तब मैंने उस बच्चे के मन में उठ रहे सवालों की जिज्ञासा को शांत करने हेतु 'दादा नगर खेड़ा' नाम से लेख निकाला| यह लेख निडाना हाइट्स की वेबसाइट के व्यक्तिगत विकास सेक्शन में जा के पढ़ा जा सकता है|
यहां से मुझे यह चौंध हुई कि आर्यसमाज का तो हमारी औरतों से सीधा कनेक्शन है तो क्या यह खेल इतने बड़े स्तर पर चल रहा है कि हमारे बच्चे तो बच्चे हमारी औरतें भी जाट-सभ्यता की जड़ों से एक बहुत ही सुनियोजित परन्तु चोर दरवाजे से भटका के काटी जा रही हैं? और तब इन चीजों को और बारीकी से अध्ययन किया तो जाटों की मान्यता मार्किट में अवतारे नए भगवानों और रिवाजों का पूरा जखीरा घर करा हुआ मिला| पाया कि मातारानी की जगराते, नवरात्रे, करवाचौथ सब कुछ तो उतार दिया है मंडी-फंडी ने जाटों के घरों में| बुरा मत मानना परन्तु इस मामले में शहरी जाट तो गाँव वालों से भी बड़े उल्लू बने हुए हैं| और तो और इसके लिए जिस चीज की कीमत चुका रहे हैं वो है अपनी खुद की स्वर्णिम व् घनिष्ठतम लोकतान्त्रिक जाट सभ्यता का मलियामेट| और इस कीमत के ऐवज में जाट सभ्यता तो मिटा ही रहे हैं साथ की साथ इनको बिज़नेस देने के सिवाय कख हासिल नहीं कर रहे, सिर्फ एक दोयम श्रेणी के दर्जे और दृष्टि के अलावा| यहां जिक्र करता चलूँ कि 2014 में यौद्धेय मनोज दुहन की 'स्वामी दयानंद - जाटों के पथभ्रष्टक' पुस्तक ने भी मेरी आशंकाओं को स्थापित किया|
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बिंदु एक और दो के नतीजे तो बरगद की छाया तले बढ़ रही वो दाढ़ी थी जो ऊपर से देखने पर नजर ही नहीं आती| और ऊपर से नजर डलवाई किससे जा रही थी, मीडिया से| खापों के ऐसे पहलु उठा के लाओ जिसमें थोड़ा सा भी गलत फैसला चला गया हो| गोत के मुद्दे को उछाल के इनकी औरतों और युवानों पे बंधन की तरह दिखाओ| इनके अध्यादेशों व् फरमानों को तालिबानी बताओ| खापों के मुखियाओं को स्टूडियोज में बिठा के प्रिरेकॉर्डेड कार्यक्रम दिखाओ| जहां कहीं भी एक पारिवारिक मति के चलते कोई हॉनर किलिंग हो जाए उसको पूरे जाट समाज और खाप तंत्र पे थोंप के दिखाओ| इनके यहां की सेक्स रेश्यो को सबसे बड़ा मुद्दा बनाओ (वो भी बावजूद इसके कि खुद मंडी-फंडी समाजों में सेक्स रेश्यो की हरयाणा के बाकी के समाजों से कहीं बढ़कर दुर्गति है)| खापों के चौधरियों से बार-बार ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं होने देंगे जैसे जिद्दी ब्यान दिलवाओ ताकि इनकी औरतों और बच्चियों में दहशत फैले और वो इनको गंवार समझ के इनसे छिंटक के चोर-दरवाजे से इनके घरों में घुसे हमारे एजेंटों की ओर ध्यान देवें| इनके खुद के शुद्ध जाट मान-मान्यताओं व् वास्तविक देवताओं की जगह हमारे घड़े हुए काल्पनिक भगवानों को प्राथमिकता देवें| और इस पहलु पर तो जितना लिखूं उतना कम| आप अपने-अपने इलाके के अनुसार इसमें अपना अनुभव जोड़ के इस पहलु को और बेहतर तरीके से समझ सकते हैं|
अंत में कहने का सार यही है कि हे जाटों की माताओं-बहनों-बेटियों, कृपया अपने घर का यह चोर-दरवाजा बंद करो| क्योंकि बहुत कारणों में से एक मुख्य इस आपके चोर दरवाजे की शय के कारण जाट समाज अलगाव की गर्त में धंसता जा रहा है| आपके समाज का पुरुष वर्ग अपने पीढ़ियों-सदियों से हर सुख-दुःख के संगी-साथी रहे दलित-ओबीसी से छिंटकाया जा रहा है| और ऐसा क्यों हो रहा है उसके लिए इस लेख में लिखी हरेक पंक्ति चीख-चीख कर हकीकत को बयाँ कर रही है|
आप गाँव में रहती हो या शहर में, कृपया अपने दादे खेड़ों की सुध ले लो| उन कल्लर-कोरों व् गोरों की सुध ले लो जहाँ की पालों-चौपालों पे बैठ कभी आपके पुरखों ने इस स्वर्णिम जाट सभ्यता के नारी के प्रति ऊपरलिखित इतने मानवीय पहलुओं को बनाया था, बचाया था और संगवाया था| मैं यह नहीं कहता कि आप आधुनिकता छोड़ दो, परन्तु आधुनिकता भी उसी की फली है जिसने सभ्यता को साथ रखा है| मेरा यकीन ना हो तो आपके साथ रहते समाजों के चलनों को देख लो| आपके बगल में रहते मराठी-बंगाली-तमिल-तेलुगु-पंजाबी को देख लो| इन्होनें इनके पुरखों की बनाई मान-मान्यताओं और सभ्यताओं को भी अगर समानांतर व् यूँ की यूँ बिना किसी मिलावट के पवित्रता से ना चला रखा हो तो और वो भी आप वालियों से कम मानवीय होते हुए भी|
यह भी सही है कि चमकते हुए चाँद में दाग होते हैं, इसलिए आपकी सभ्यता में कोई दाग हो, उसकी मार्केटिंग ना हुई हो, प्रमोशन ना हुई हो तो अपने घर के मर्दों के साथ बैठ के उनपे मंथन करो| परन्तु भूल के भी इस मंथन में मंडी-फंडी को ऊँगली भी मत टेकने देना| उनके साथ समाज-अर्थव्यस्था के साझे पहलु बेशक चर्चा करो परन्तु इन पर सिर्फ अपनों के संग ही मंथन करो|
और मेरे इस लेख को पढ़ने वाले ना सिर्फ जाट-मर्द से अपितु जाट के मित्र हर समाज के मर्द से भी निवेदन है कि अपनी औरतों से इन पहलुओं पर चर्चा करनी शुरू करो| बहस करनी पड़े तो बहस करो परन्तु उनको समझाओ या दिखाओ कि उनकी यह अपने ही घर में चोर दरवाजे की सभ्यता कैसे तुम्हारी कौम को घुण की तरह चाट रही है|
हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!